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बुधवार, 1 अगस्त 2018

savan ke dohe

दोहा सलिला:
सावन
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सावन भावन मन हरे, हरियाया संसार।
अंकुराए पल्लव नए, बिखरे हरसिंगार।।
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सावन सा वन हो नहीं, बाकी ग्यारह मास।
चूनर हरी पहन धरा, लगे सुरूपा ख़ास।।
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सावन में उफना नदी, तोड़े कूल-किनार।
आधुनिकाएँ तोड़तीं, जैसे घर-परिवार।।
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बादल-बिजली ने रखा, 'लिव-इन' का संबंध।
वर्षा 'हैपी' की तरह, भागी तज अनुबंध।।
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लहर-लहर के साथ है, पवन पवन के साथ।
समलैंगिक संबंध कर, दोनों हुए अनाथ।।
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नदी-घाट के बीच है, पुरा-पुरातन प्यार।
नाव और पतवार में टूटन है दुश्वार।।
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बरगद ताके नीम को, गुपचुप करे न बात।
इमली ने समझे नहीं पीपल के जज्बात।।
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रिश्ते-नाते बन-मिटे, दूब खूब की खूब।
माँ वसुधा के संग में, गप मारे बिन ऊब।।
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बीरबहूटी की तकें, दूब-धरा मिल राह।
गई सासरे कभी की, याद करें भर आह।।
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१.८.२०१८, ७९९९५५९६१८

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