ॐ
जीवन नाट्य समान
जीवन नाट्य समान
दोहा शतक
संतोष नेमा "संतोष"
जन्म: १५-७-१९६१, आदेगाँव, सिवनी, मध्य प्रदेश।
आत्मज:श्रीमती रमा-स्वर्गीय श्री देवीचरण जी नेमा।
जीवन संगिनी:श्रीमती सरिता नेमा।
शिक्षा:बी.कॉम.,एलएल.बी.।
लेखन विधा:दोहा, मुक्तक, लघुकथा, कहानी, गीतिका आदि।
प्रकाशित:दोहा संकलन इन्द्रधनुष प्रकाशनाधीन।
उपलब्धि: अखिल भारतीय डाक कर्मचारी संघ ग्रुप सी में संभागीय / प्रांतीय सचिव।
संपादन:यूनियन वार्ता।
संपर्क: अमनदीप, ७८ आलोक नगर, अधारताल, जबलपुर।
चलभाष: ९३००१०१७९९। ईमेल:nemasantoshkumar@gmail.com
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संतोष नेमा जी कबीर के अवदान, रानी दुर्गावती के उत्सर्ग, माँ की महिमा तथा पर्यावरण प्रदूषण जैसे प्रसंगों पर दोहा रचना कर अपनी कलम को माँज रहे हैं। संस्कारधानी जबलपुर में अंकुरित हो रही दोहकारों की नयी पंक्ति में संतोष जी तत्परतापूरकरचना कर्म में संलग्न हैं। संतोष जी को इस परिवेश में कबीर की उपादेयता और कमी दोनों शिद्दत से अनुभव हो रही है-
संतोष नेमा जी कबीर के अवदान, रानी दुर्गावती के उत्सर्ग, माँ की महिमा तथा पर्यावरण प्रदूषण जैसे प्रसंगों पर दोहा रचना कर अपनी कलम को माँज रहे हैं। संस्कारधानी जबलपुर में अंकुरित हो रही दोहकारों की नयी पंक्ति में संतोष जी तत्परतापूरकरचना कर्म में संलग्न हैं। संतोष जी को इस परिवेश में कबीर की उपादेयता और कमी दोनों शिद्दत से अनुभव हो रही है-
अब कबीर कोई नहीं, जिसकी गहरी मार।
कुरीतियों को जो सके, बिना डरे ललकार।।
राजनीति द्वारा निरंतरउडेला जा रहा सामाजिक विद्वेष दोहाकार को चिंतित करता है। वह 'जब आवै संतोष धन, सब धन धूर समान' की विरासत को खुशहाली की कुंजी ठीक ही मानता है। यहाँ अपने नाम का उपयोग वह शब्दकोशीय अर्थ में भी करता है। श्लेष अलंकार का यह उदहारण उसकी सजगता का परिचायक है-
दिल में हो 'संतोष' तो, होंगे सब खुशहाल।
द्वेष आपसी रखा तो, जग होगा बदहाल।।
भौतिकता और भोगवाद का चोली-दामन का साथ है। भोग को लोग भोग रहे या भोग लोगों को भोग रहे की श्लेषार्थ को समाहित करता यह दोहा उल्लेख्य है-
*भौतिकता और भोगवाद का चोली-दामन का साथ है। भोग को लोग भोग रहे या भोग लोगों को भोग रहे की श्लेषार्थ को समाहित करता यह दोहा उल्लेख्य है-
भौतिकता के दौर में, फँसे हुए हैं लोग।
आपा-धापी बढ़ रही, भोग रहे हैं भोग।।
पारिवारिक संबंधों को जीवन में सुख का उत्स मानते हुए दोहाकार उनक महत्व प्रतिपादित करता है-
दुनिया के रंगमंच पर आम आदमी चेचरे पर चेहरा ओढ़े हुए अभिनय करता रहता है। संतोष जी की सजग दृष्टि से यह सत्य छिपा नहीं है-
पारिवारिक संबंधों को जीवन में सुख का उत्स मानते हुए दोहाकार उनक महत्व प्रतिपादित करता है-
शुभचिंतक नहिं बहिन सा, नहीं तिया सा मित्र।
भागीदार न बंधु सा, नहीं नेह सा इत्र।दुनिया के रंगमंच पर आम आदमी चेचरे पर चेहरा ओढ़े हुए अभिनय करता रहता है। संतोष जी की सजग दृष्टि से यह सत्य छिपा नहीं है-
अंतर्मन में पीर है, चेहरे पर मुस्कान।
असली अभिनय यही है, जीवन नाट्य समान।
वर्तमान जीवन शैली में कष्टों का मूल कारण चादर से बाहर पैर पसारना ही है। संतोष जी मन पर लगाम लगाकर संयमित जीवन शैली को अपनाने में विश्वास करते हैं-
वर्तमान जीवन शैली में कष्टों का मूल कारण चादर से बाहर पैर पसारना ही है। संतोष जी मन पर लगाम लगाकर संयमित जीवन शैली को अपनाने में विश्वास करते हैं-
मन से ही काया चले, मन से मिलते राम।
करें राम का अनुकरण, मन पर रखें लगाम।।
दोहा सहित काव्य की विविद विधाओं में हाथ आजमा रहे संतोष जी में दोहा की समझ और उसे प्रयोग करने की सामर्थ्य है। वे अपनी सृजन यात्रा में नए मुकाम हासिल करेंगे, यह विश्वास किया जा सकता है।
दोहा सहित काव्य की विविद विधाओं में हाथ आजमा रहे संतोष जी में दोहा की समझ और उसे प्रयोग करने की सामर्थ्य है। वे अपनी सृजन यात्रा में नए मुकाम हासिल करेंगे, यह विश्वास किया जा सकता है।
आँधी, तूफां देख; सुन, बरखा की पदचाप।
दिनकर ओझल हो गये, छुपे कहीं चुपचाप।।
बरखा रानी झूमकर, करती सुंदर नृत्य।
आँखें रवि की नम हुईं, देख मनोहर कृत्य।।
सूरज की गर्मी गई, मना करें वे लाख।
सुन बादल की गर्जना, गिरती उनकी साख।।
सुन वर्षा का आगमन, व्याकुल महि को हर्ष।
वर्षा जल में लिपट कर, हुआ धूल-अपकर्ष।।
आँखों में जागी चमक, खुश हो गये किसान।
खेतीवाले जुट गए, करने काम तमाम।।
पशु-पक्षी व्याकुल हुए, जीव-जंतु बेहाल।
आई बरखा देखकर, सबका बिगड़ा हाल।।
बाग-बगीचे खिल उठे, सुन भौंरों की तान।
सबके मुखमंडल दिखे, फूलों सी मुस्कान।।
इंद्रधनुष को देखकर, जागी बदन-उमंग।
पिया-मिलन की आस में, धीर न धरते अंग।।
मेघ बरस कर दे रहे, खुशियों का संदेश।
प्यास सभी की बुझ रही, जल से भरे प्रदेश।।
धानी चूनर से हुए, हरे धरा के अंग।
नगर, गाँव, उपवन, डगर, चहुँदिश बिखरे रंग।।
बरखा रानी दे रही, समता का संकेत।
गले मिलें नाले-नदी, जग-जीवन के हेत।।
दादुर, कोयल स्वर भरें, मोर, पपीहा संग।
मेघ बजाएँ झूमकर, ढोलक, चंग, मृदंग।।
हवा अहम में डूबकर, छोड़े अपना मान।
लाती वर्षा पूर्व ही, आँधी सँग तूफान।।
बरसाते जब मेघ मिल, शीतल जल-बौछार।
लगता प्रेमी युगल को, नभ से बरसा प्यार।।
दिल में हो 'संतोष' तो, होंगे सब खुशहाल।
द्वेष आपसी रखा तो, जग होगा बदहाल।।
अब कबीर कोई नहीं, जिसकी गहरी मार।
कुरीतियों को जो सके, बिना डरे ललकार।।
मानवता का धर्म ही, है कबीर की सीख।
दिखा गये हैं प्रेम-पथ, सबके जैसा दीख।।
कबिरा को भाया नहीं, कभी झूठ-पाखण्ड।
साथ सत्य के खड़े हो, दिया झूठ को दण्ड।।
डरे हुए थे जिस समय, मजहब-ठेकेदार।
करते रहे कबीर नित, पाखंडों पर वार।।
गागर में सागर लिए, साखी-संत कबीर।
वाणी से ही खींच दी, सामाजिक तसवीर।।
मानव-मानव में कभी, किया न किंचित भेद।
खुद खोजी निज बुराई, बिना हिचक कर खेद।।
दीन कबीर ने सीख जो, आतीं सबके काम।
करने से उन पर अमल, मन पाता आराम।।
सिद्धांतों से अलग हट, दे सांसारिक ज्ञान।
अधिक धर्म से भी दिया, मानवता को मान।।
आज धर्म के नाम पर, मानवता है लुप्त।
चिंतक-कवि भी हो गए, आत्मलीन ज्यों सुप्त।।
सीख आज भी मिल रही, है साखी से मीत।
सदा करे "संतोष" मन, यही नीक है रीत।।
रानी दुर्गावती बनी, गोंड राज्य की शान।
जिसके वैभव से डरे, शासक मुगल महान।।
मुगलों के विस्तार से, रानी थीं बैचैन।
कर मुक़ाबला मुगल से, छीना उनका चैन।।
बीमारी से चल बसे, राजा दलपत शाह।
बीमारी से चल बसे, राजा दलपत शाह।
विधवा रानी धैर्य धर, सबको बनी पनाह।।
हाथों में तलवार ले, दुश्मन को ललकार।
रानी रण लड़ती रही, शत्रु दलों को मार।।
दुर्गा दुर्गा सम लड़ी, साहस रखा अपार।
घर-भेदी था बदनसिंह, मिलकर बड़ा प्रहार।।
रण चंडी बन टूटती, अरि पर करती वार।
छक्के छूटें शत्रु के, देख हाथ तलवार।।
समस्याओं से घिरे हैं, यहां सभी इंसान।
संकट को जो साध ले, है वह व्यक्ति महान।।
परेशानियाँ घूमतीं, डंडा लेकर हाथ।
खुद निज शीश बचाइए, कोई न देगा साथ।।
किरण रोशनी की सदा, लाती मन उत्साह।
अंधेरों को चीरकर, देती नया प्रवाह।।
भौतिकता के दौर में, फँसे हुए हैं लोग।
आपा-धापी बढ़ रही, भोग रहे हैं भोग।।
बाबाओं के नाम पर, करें धर्म-बदनाम।
साधु-संत-ऋषि भ्रमित हैं, भूले अपना काम।।
माया सर चढ़ बोलती, जिसके सभी गुलाम।
पुण्य दान से मिलेगा, आ औरों के काम।।
कथनी-करनी सम रखें, धैर्य-धर्म हो साथ।
ईश्वर में रख आस्था, उन्नत रख निज माथ।।
जीवन के हर मोड़ पर, मिलते लोग हजार।
छली-स्वार्थी-चतुर से, बच; रख साथ उदार।।
अपने क्रिया-कलाप पर, रखिए सदा लगाम।
खुद भी चिंता मुक्त हों, लिए एक पैगाम।।
पैर पसारे सो रहे, चादर-सलवट खूब।
सोचे-समझे बिना क्यों, रहे फ़िक्र में डूब।।
नहें काम कर यह कहें, 'मुझे बैल आ मार'।
फिर लिपटें अवसाद में, हो खुद से बेजार।।
मेरा साया पूछता, साथ खड़ा है कौन।
है कोई जो साथ में, चले रात-दिन मौन।।
नारी-शोषण कर रहे, बाबाओं के धाम।
नारी खुद जा लुट रही, कैसे लगे लगाम।।
ज्ञान बाँटते फिर रहे, ढोंगी बाबा संत।
खुद ही भ्रम में डूबकर, करते खुद का अंत।।
चादर ओढ़ें धर्म की, पुण्य कमाता पूत।
घर में भूखी माँ कहे, 'उठा मुझे यमदूत'।।
शुभचिंतक नहिं बहिन सा, नहीं तिया सा मित्र।
भागीदार न बंधु सा, नहीं नेह सा इत्र।।
नहीं सहारा पिता सा, माता जैसी छाँह।
हितू नहीं परिवार सा, थामे पल-पल बाँह।।
नींव नहीं परिवार बिन, यह जीवन-आधार।
संस्कार का कोष है, सभी सुखों का सार।।
अंतर्मन में पीर है, चेहरे पर मुस्कान।
असली अभिनय यही है, जीवन नाट्य समान।।
पर्यावरण न नष्ट हो, हर कोई दे ध्यान।
तापमान बढ़ रहा है, दूषण लेता जान।।
पौधारोपण कीजिए, आक्सीजन ले शुद्ध।
दूर कीजिए रोग सब, चलिए! बनें प्रबुद्ध।।
रक्षित रख पर्यावरण, स्वच्छ रखें संसार।
शुद्ध पेय जल मिल सके, ऐसा हो आचार।।
सही वक्त पर चाहिए, वर्षा, ठंडक धूप।
प्रकृति का सम्मान कर,चलें नियति अनुरूप।।
मानवता को मारते, जिनका दीन न धर्म।
आतंकी दानव अधम, करते नित्य कुकर्म।।
अभिलाषाएँ खत्म हैं, रहा न कोई लोभ।
राजा तब ही जानिए, जब न रहे मन-क्षोभ।।
धीरज मन में रख सदा, प्रभु इच्छा बलवान।
आएगा अच्छा समय, होगा तब कल्याण।।
सूरज ने वृष राशि में, जैसे किया प्रवेश।
वैसे ही नौतपा का, दे रोहिणि संदेश।।
नव दिन तक नवतपा की, झेल-झेलकर मार।
व्याकुल धरती जल रही, छोड़ रही है झार।
पशु-पक्षी भी चाहते, पानी ठंडी छाँव।
नखरे हवा दिखा रही, यादों में है गाँव।।
सूरज भी तेवर बदल, दिखा रहा है आँख।
ठंडी न बाहर आ सके, दबा रखा है काँख।।
गर्मी से हो रहा है, हर मानव हैरान।
रातों की निंदिया गई, दिवस हुए वीरान।।
तापमान जब भी बढ़े, रखें स्वास्थ्य का ध्यान।
खानपान हो मौसमी, पड़े जान में जान।।
पानी ज्यादा पीजिये, रक्षित रखिये देह।
करिए धूप-बचाव भी, जब-जब छोड़ें गेह।।
गर्मी पाकर सूर्य की, रोहिणि का जल तत्व।
आता वर्षा-गर्भ में, समझें रीति-महत्व।।
नौ नक्षत्रों सह फिरे, चंदा नौ दिन रोज।
रहता चुप 'संतोष' कर, नहीं प्रकृति पर बोझ।।
सुख सत्ता का जो चखे, उसको लगता खून।
दौलत ऐसी बढ़ रही, रात चार दिन दून।।
पूर्वाग्रह से ग्रसित हो, सर्वे करते लोग।
अपने मकसद के लिए, फैलाते भ्रम-रोग।।
जीवन में सुख-शांति हो, बाहर व्यर्थ तलाश।
खुद के अंदर झाँक लें, मिल जाए आकाश।।
मन से ही काया चले, मन से मिलते राम।
करें राम का अनुकरण, मन पर रखें लगाम।।
वादा को उल्टा करें, दावा करते झूठ।
नेताओं की आदतें, लें जनता को लूट।।
आम आदमी खा रहा, मँहगाई की मार।
अब तेलों के दाम भी, दिखा रहे हैं धार।।
जन-सेवा के नाम पर, मची हुई है लूट।
सेवक मालिक बन गए, देश रहा है टूट।।
जिन तत्वों से बना है, अपना मनुज शरीर।
उनमें ही मिल जाएगा, क्यों हम व्यर्थ अधीर।।
निपट अकेले रह गए, सच की बाँहें थाम।
झूठ झपट आगे बढ़ा, करने अपना काम।।
स्वाभिमान गिरवी रखा, दे कुर्सी हित दाम।
लड़ा चुनाव विरोध में, मिले लपक गुलफाम।।
अपनी सत्ता छोड़ कर, दी औरों के हाथ।
फिर भी बंदे खुश हुए, ले गैरों का साथ।।
जोड़-तोड़ की सफलता, सत्ता की पहचान।
अवसर चूका बड़ा दल, मेरा देश महान।।
धर्म-कर्म में मन लगा, कर प्रभु में विश्वास।
दीन-हीन-उपकार कर, करें शांति-आभास।।
भगवत कथा श्रवण करें, जप सहस्त्र हरि नाम।
सकल मनोरथ पूर्ण हों, बनते बिगड़े काम।।
सूखा जंगल चीखकर, मचा रहा है शोर।
पेड़ों को मत काटिये, चलें प्रकृति की ओर।।
पानी से जीवन चले, अमृत सी हर बूँद।
पानी व्यर्थ न फेकिये, अपनी आँखें मूँद।।
आग उगलता भास्कर, दिखा रहा है क्रोध।
दिन सन्नाटा छा रहा, सूनी रात अबोध।।
पशु-पक्षी व्याकुल फिरें, पानी करें तलाश।
मानव से ही आस थी, लेकिन हुए निराश।।
ताल-तलैया सूखते, सिमटी नदिया-धार।
सूखी धरती तप रही, सहती दुहरी मार।।
जीव-जंतु बेहाल हैं,जीना हुआ मुहाल।
शासन की सामर्थ्य पर,करते लोग सवाल।।
जल बिन हो पता नहीं, किसी तरह का काम।
दूर उपयोग करें नहीं, खुद पर रखें लगाम।
विश्व युद्ध अब तीसरा, होना है जल हेतु।
जल ही जीवन जानिए, तोड़ न आशा-सेतु।।
माँ ही जीवनदायिनी, रखती सबका ध्यान।।
माँ -चरणों में स्वर्ग है, माँ ही हैं भगवान।।
मां के ही आशीष से, फलते हैं सब लोग।
चरण कमल माँ के पकड़, कर 'संतोष' सुयोग।।
माँ से ही रिश्ते बने, माँ से ही परिवार।
माँ से ही हमको मिला, निज आचार-विचार।।
माँ है मूरत त्याग की, माँ भावों की खान।
माँ की सेवा जो करे, उसे मिले सम्मान।।
माँ की महिमा समझिये, माँ ईश्वर अवतार।
कौन चुका सकता कभी, माता का उपकार।।
अच्छे-अच्छे सुधरते, सुन पत्नी-फटकार।
तुलसी रामायण रची, खुले भक्ति के द्वार।।
कभी न पीछा छोड़ते, करते हम जो कर्म।
फल भी वैसा ही मिले, यही बताता धर्म।।
समता,संयम,शांति का, करिए सदा प्रचार।
विलग रहे अतिचार से, जिनके सद-आचार।।
मन परिवर्तन पर दिया, सदा बुद्ध ने जोर।
मन ही करता है सदा, सबसे ज्यादा शोर।।
दीन-हीन पर दया कर, चल नेकी की राह।
करुणा जीवन में रखें, राग-रंग मत चाह।।
हिंदू-मुस्लिम बाद में, पहले हम इंसान।
जिसमें मानवता नहीं, समझो है शैतान।।
श्रम से ही हो सफलता, बिनु श्रम सफल न आप।
पर्सा भोजन सामने, उदर न पहुँचे आप।।
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***
मां से बढ़कर जहां में, दूजा नहिं है कोय
दुनिया जिसकी गोद में,सुखी सदा ही होय
दुनिया में कोई नहीं,मां से बड़ा महान
सारे ग्रंथों से मिला, हमें एक यही ज्ञान
सभी तीरथ चरणों में, मां ही चारों धाम
सेवा माँ की जो करे, वह पहुँचे सुरधाम
चिंता सबकी छोड़िये, सबके दाता राम
पालें,पोषें,सभी को, दें सबको आराम
धीरज संयम साथ सदा,मन में हो विस्वास
ईश्वर में हो आस्था,बनते बिगड़े काज
बुरे वक्त में उड़ाते, जो किसी की मजाक
वक्त बदलते ही सदा, उनकी कटती नाक
कथनी करनी में रखें, अंतर बारह मास
कब खोखले सिद्धांत से, कौन बना है खास
इस जहां में ईश्वर की,मां सच्ची अवतार
माँ चरणों में जन्नत है, माँ ही सच्चा प्यार
सादर नमन है बुद्ध को, दिया शुद्ध आचार
हैं हरेक पल कारगर, उनके सम्यक विचार
वैशाख माह पूर्णिमा, बुद्ध लिये अवतार
सत्य अहिंसा,प्रेम का, किया सदा विस्तार
बुद्धम शरणं गच्छामि, याद रखें यह मंत्र
जीवन में "संतोष"का, यही सुनहरा यंत्र
प्रभु! 'संतोष' पड़ा चरण, त्राहि-त्राहि कर जोर।
कारज सभी सँवारिए, विनती सुनिए मोर।।
जल संरक्षण किए बिन, कहाँ बुझेगी प्यास?
वर्ना मीलों भटक कर, करना पड़े तलाश
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राजनीति में शिक्षा का, होता सदा अभाव
बिना पढ़े ही डालते, सब पर बड़ा प्रभाव
राजनीति में शिक्षा का, होता सदा अभाव
बिना पढ़े ही डालते, सब पर बड़ा प्रभाव
सूरज आंख तरेरता, बड़ा रहा है ताप
वृक्षारोपण कीजिये, तभी बचेंगे आप
सूर्य सक्रांति हो नहीं, अधिक होत एक मास
कारज मांगलिक न करें, कोई इस मलमास
पूजा पाठ,दान हवन,कर पुरुषोत्तम मास
दीप दान और यज्ञ कर,व्रत ध्यान उपवास
मां दया की सागर है, ऊंचा मां का स्थान
है मां से संसार भी, मां घर की है शान
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