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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

lekh navgeet aur desh

विशेष लेख
नवगीत और देश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्व की पुरातनतम संस्कृति, मानव सभ्यता के उत्कृष्टतम मानव मूल्यों, समृद्धतम जनमानस, श्रेष्ठतम साहित्य तथा उदात्ततम दर्शन का धनी देश भारत वर्तमान में संक्रमणकाल से गुजर रहा है।पुरातन श्रेष्ठता, विगत पराधीनता, स्वतंत्रता पश्चात संघर्ष और विकास के चरण, सामयिक भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, दिशाहीन मीडिया के वर्चस्व, विदेशों के प्रभाव, सत्तोन्मुख दलवादी राजनैतिक टकराव, आतंकी गतिविधियों, प्रदूषित होते पर्यावरण, विरूपित होते लोकतंत्र, प्रशासनिक विफलताओं, स्वतंत्रता के नाम पर बढ़ती उद्दंडता तथा घटती आस्थाओं के इस दौर में साहित्य विशेषकर भी सतत परिवर्तित हुआ है। छायावाद के अंतिम चरण के साथ ही साम्यवाद-समाजवाद प्रणीत नयी कविता ने पारंपरिक गीत के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की उसका मुकाबला करते हुए गीत ने खुद को कलेवर और शिल्प में समुचित परिवर्तन कर नवगीत के रूप में ढालकर जनता जनार्दन की आवाज़ बनकर खुद को सार्थक किया है।

किसी देश को उसकी सभ्यता, संस्कृति, लोकमूल्यों, धन-धान्य, जनसामान्य, शिक्षा स्तर, आर्थिक ढाँचे, सैन्यशक्ति, धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक संरचना से जाना जाता है। अपने उद्भव से ही नवगीत ने सामयिक समस्याओं से दो-चार होते हुए, आम आदमी के दर्द, संघर्ष, हौसले और संकल्पों को वाणी दी। कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर नवगीत ने वैशिष्ट्य पर सामान्यता को वरीयता देते हुए खुद को साग्रह जमीन से जोड़े रखा है। प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार, ममता, करुणा, सामाजिक टकराव, चेतना, दलित-नारी विमर्श, सांप्रदायिक सद्भाव, राजनैतिक सामंजस्य, पीढ़ी के अंतर, राजनैतिक विसंगति, प्रशासनिक अन्याय आदि सब कुछ को समेटते हुए नवगीत ने नयी पीढ़ी के लिये आशा, आस्था, विश्वास, संघर्ष, जय-पराजय और सपने सुरक्षित रखने में सफलता पायी है। 
पुरातन विरासत: 
किसी देश की नींव उसके अतीत में होती है। नवगीत ने भारत के वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक काल से लेकर अधिक समय तक के कालक्रम, घटना चक्र और मिथकों को अपनी ताकत बनाये रखा है। वर्तमान परिस्थितियों और विसंगतियों का विश्लेषण और समाधान करता नवगीत पुरातन चरित्रों और मिथकों का उपयोग करते नहीं हिचकता। डाल खुलती है चूल्हे में / जले पतीली आग सखी! / फाटे ह्रदय का हाल न पूछो / रही बैठकर ताग सखी! (धीरः श्रीवास्तव, मेरे गाँव की चिन्मुनकी), जागकर करेंगे हम क्या? / सोना भी हो गया हराम / रावण को सौंपकर सिया / जपता मारीच राम-राम - (मधुकर अष्ठाना, वक़्त आदमखोर), अंधों के आदेश / रात-दिन ढोता राजमहल / मिला हस्तिनापुर को / जाने किस करनी का फल (जय चक्रवर्ती, थोड़ा लिखा समझना ज्यादा) में देश की पुरातन विरासत पर गर्वित नवगीत सहज दृष्टव्य है। 
संवैधानिक अधिकार: 
भारत का संविधान देश के नागरिकों को अधिकार देता है किंतु यथार्थ इसके विपरीत है। सामान्य नागरिक खुद को ठगा अनुभव करता है। नव गीत इस त्रासदी का सजग साक्षी है-  मौलिक अधिकारों से वंचित है / भारत का यह स्वतंत्र नागरिक / वैचारिक क्रांति अगर आये तो / ढल सकती दोपहरी कारुणिक (आनंद तिवारी, धरती तपती है), क्यों व्यवस्था / अनसुना करते हुए यों / एकलव्यों को / नहीं अपना रही है? (जगदीश पंकज, सुनो मुझे भी), तंत्र घुमाता लाठियाँ / जन खाता है मार / उजियारे की हो रही अन्धकार से हार / सरहद पर बम फट रहे / सैनिक हैं निरुपाय / रण जीतें तो सियासत / हारें, भूल बताँय / बाँट रहे हैं रेवड़ी / अंधे तनिक न गम / क्या सचमुच स्वाधीन हम? (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सड़क पर) आदि में नवगीत देश के आम नागरिक के प्रति चिंतित है।
गणतंत्र: 
देश का संविधान और ध्वज हर नागरिक के लिये बहुमूल्य हैं। गणतंत्र की महिमा गायन कर हर नागरिक का सर गर्व से उठ जाता है- गणतंत्र हर तूफ़ान से गुजरा हुआ है / प्यार से फहरा हुआ है ताल दो मिलकर / कि कलियुग में / नया भारत बनाना है (पूर्णिमा बर्मन, चोंच में आकाश)। नवगीत केवल विसंगति और विडंबना का चित्रण नहीं है, वह देश के प्रति गर्वानुभूति भी करता है - पेट से बटुए तलक का / सफर तय करते मुसाफिर / बात तू माने न माने / देश पर अभिमान करने / के अभी लाखों बहाने (रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के), मुक्ति-गान गूँजे, जब / मातृ-चरण पूजें जब / मुक्त धरा-अंबर से / चिर कृतज्ञ अंतर से / बरबस हिल्लोल उठें / भावाकुल बोल उठें / स्वतंत्रता- सँवरो नमन / हुंकृत मन्वन्तरों नमन (जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', तमसा के दिन करो नमन) आदि में देश के गणतंत्र और शहीदों को नमन कर रहा है नवगीत।
वर्ग संघर्ष-शोषण: 
कोई देश जब परिवर्तन और विकास की राह पर चलता है तो वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है. नवगीत ने इस टकराव को मुखर होकर बयान किया है- हम हैं खर-पतवार / सड़कर खाद बनते हैं / हम जले / ईंटे पकाने / महल तनते हैं (आचार्य भगवत दुबे, हिरन सुगंधों के), धूप का रथ / दूर आगे बढ़ गया / सिर्फ पहियों की / लकीरें रह गयीं (प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'), सड़क-दर-सड़क / भटक रहे तुम / लोग चकित हैं / सधे हुए जो अस्त्र-शस्त्र / वे अभिमंत्रित हैं (कुमार रवीन्द्र), व्यर्थ निष्फल / तीर और कमान / राजा रामजी / क्या करे लक्षमण बड़ा हैरान / राजा राम जी (स्व. डॉ. विष्णु विराट) आदि में नवगीत देश में स्थापित होते दो वर्गों का स्पष्ट संकेत करता है। राजतन्त्र और लोकतंत्र की जद्दोजहद प्रगति के की दिशा और लक्ष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाती है- वोट दीन अब खेतौ लेहौ / यह तो सीना जोरी है / काका बस मुसकाय क बोले / बुरा न मानौ होरी है / पुरखिन कै / यह आय निशानी कम मानिति है भइया / बुलेट ट्रेन लेकिन जब चलिहैं / नचिहैं भैंसी, गइया  / सब लरिकन के रोजगार मा / मूँगफली की झोरी है (डॉ. प्रदीप शुक्ल, यहै बतकही है) 
स्त्री शोषण:
विकासशील देश में बदलते जीवन मूल्य शोषण के विविध आयामों को जन्म देता है। स्त्री शोषण के लिए सहज-सुलभ है। नवगीत इस शोषण के विरुद्ध बार-बार खड़ा होता है- विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी / जेठ-ससुर की मैली नजरें / अब टूटीं, तब टूटीं (राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है), कहीं खड़ी चौराहे कोई / कृष्ण नहीं आया / बनी अहल्या, लेकिन कोई राम नहीं पाया / कहीं मांडवी थी लाचार, घुटने टेक पड़ी (गीता पंडित, अब और नहीं बस), होरी दिन भर बोझा ढोता / एक तगाड़ी से / पत्नी भूखी, बच्चे भूखे / जब सो जाते हैं / पत्थर की दुनिया में आँसू तक खो जाते हैं (जगदीश श्रीवास्तव), चीरहरण हो रहा / द्रोपदी का या / जग की नारी का / उस नारी का / जिसने पंचतत्व से ब्याह रचाया / उस नारी का / जिसको धर्मराज ने / दाँव लगाया / हारा हुआ / खेल लगता है / जीते हुए जुआरी का (डॉ. ओमप्रकाश सिंह, सूरज अभी डूबा नहीं) कहते हुए नवगीत देश में बढ़ रहे स्त्री-शोषण के प्रति सचेत करता है।
परिवर्तन-विस्थापन: 
देश के नवनिर्माण की कीमत विस्थापित को चुकानी पड़ती है. विकास के साथ सुरसाकार होते शहर गाँवों को निगलते जाते हैं- खेतों को मुखिया ने लूटा / काका लुटे कचहरी में / चौका सूना भूखी गैया / प्यासी खड़ी दुपहरी में (राधेश्याम /बंधु', एक गुमसुम धूप), सन्नाटों में गाँव / छिपी-छिपी सी छाँव / तपते सारे खेत / भट्टी बनी है रेत / नदियां हैं बेहाल / लू-लपटों के जाल (अशोक गीते, धुप है मुंडेर की), अंतहीन जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती / मन भीतर जलप्रपात है / धुआँधार की मोहक वादी / सलिल कणों में दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी (रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची), प्रतिद्वंदी हो रहे शहर के / आसपास के गाँव / गाये गीत गये ठूंठों के / जीत गये कंटक / ज़हर नदी अपना उद्भव / कह रही अमरकंटक / मुझे नर्मदा कहो कह रहा / एक सूखा तालाब (गिरिमोहन गुरु, मुझे नर्मदा कहो), बने बाँध / नदियों पर / उजड़े हैं गाँव / विस्थापित हुए / और मिट्टी से कटे / बच रहे तन / पर अभागे मन बँटे / पथरीली राहों पर / फिसले हैं पाँव (जयप्रकाश श्रीवास्तव, परिंदे संवेदना के) आदि भाव मुद्राओं में देश विकास के की कीमत चुकाते वर्ग को व्यथा-कथा शब्दित कर उनके साथ खड़ा है नवगीत।
पर्यावरण प्रदूषण: 
देश के विकास साथ-साथ की समस्या सिर उठाने लगाती है। नवगीत ने पर्यावरण असंतुलन को अपना कथ्य बनाने से गुरेज नहीं किया- इस पृथ्वी ने पहन लिए क्यों / विष डूबे परिधान? / धुआँ मंत्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राणवायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान (निर्मल शुक्ल, एक और अरण्य काल), पेड़ कब से तक रहा / पंछी घरों को लौट आएं / और फिर / अपनी उड़ानों की खबर / हमको सुनाएँ / अनकहे से शब्द में / फिर कर रही आगाह / क्या सारी दिशाएँ (रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ) कहते हुए नवगीत देश ही नहीं विश्व के लिए खतरा बन रहे पर्यावरण प्रदूषण को काम करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है।
भ्रष्टाचार: 
देश में पदों और अधिकारों का का दुरुपयोग करनेवाले काम नहीं हैं। नवगीत उनकी पोल खोलने में पीछे नहीं रहता- लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार / अपना काम पड़े तो देना / टेबिल के नीचे से लेना (ओमप्रकाश तिवारी, खिड़कियाँ खोलो) स्वर्णाक्षर सम्मान पत्र / नकली गुलदस्ते हैं / चतुराई के मोल ख़रीदे / कितने सस्ते हैं (महेश अनघ), आत्माएँ गिरवी रख / सुविधाएँ ले आये / लोथड़ा कलेजे का, वनबिलाव चीलों में / गंगा की गोदी में या की ताल-झीलों में / क्वाँरी माँ जैसे, अपना बच्चा दे आये (नईम), अंधी नगरी चौपट राजा / शासन सिक्के का / हर बाज़ी पर कब्जा दिखता / जालिम इक्के का (शीलेन्द्र सिंह चौहान) आदि में नवगीत देश में शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार को उद्घाटित कर समाप्ति हेतु प्रेरणा देता है।
मँहगाई:
आसमान छूते भाव आम आदमी का जीना हरान किए हैं। विडंबना यह कि सत्ता परिवर्तन भी पूंजीपतियों की येन-केन धनार्जन की आसुरी वृत्ति पर अंकुश लगाने में असमर्थ सिद्ध हुआ है। 'घिरी घटाएँ घोर / कर रहा / अब मौसम मनमानी / दुर्लभ दालें / नॉन-तेल का / भाव न पूछो भैया / लदा शीश पर कर्ज़ / बिक गयी / बची अकेली गैया / आता गीला कंगाली में / बिना डाल के हंडिया / क्या ओढ़ें / क्या करें बिछावन / बिना गोदड़ी खटिया / छान पुरानी / टूटा छप्पर / टपक रहा है पानी (यतीन्द्रनाथ 'राही', कंधों लदे तुमुल कोलाहल)।मँहगाई का एक कारण वस्तु की लगत से अधिक प्रचार और विज्ञापन पर खर्च है- सुनों ध्यान से / कहता कोई / विज्ञापन के पर्चों से / हम जिसका निर्माण करेंगे / तेरी वही जरूरत होगी / जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा / तस-तस प्रभु की मूरत होगी (अवनीश सिंह चौहान, टुकड़ा कागज़ का))  
उन्नति और विकास: 
नवगीत विसंगति और विडम्बनाओं तक सीमित नहीं रहता, वह आशा-विश्वास और विकास की गाथा भी कहता है- देखते ही देखते बिटिया / सयानी हो गयी / उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह नौकरी करने चली / कल तलक थी साथ में / अब कर्म पथ वरने चली (ब्रजेश श्रीवास्तव, बाँसों के झुरमुट से), मुश्किलों को मीत मानो / जीत तय होगी / हौसलों के पंख हों तो।/ चिर विजय होगी (कल्पना रामानी, हौसलों के पंख) कहते हुए नवगीत देश की युवा पीढ़ी को आश्वस्त करता है की विसंगतियों और विडम्बनाओं की काली रात के बाद उन्नति और विकास का स्वर्णिम विहान निकट है। उन्नति और विकास के सपने बिना संघर्ष पूर्ण नहीं हो सकते- मनुज बीज हूँ / स्वप्न रहेंगे / सपनों के संघर्ष रहेंगे / रे पंखों से बड़ा कहाँ / अंबर का खोला हुआ दुशाला / भीतर की अनहद लहरों / ने, इनके रेशों को पाला.....हवा कहीं मनचली छ्लेगी / धँस करके उत्कर्ष गहेंगे (शीला पांडे, परों को तोल)।
दिशाहीनता:
देश ने पर्याप्त प्रगति की है इसमें कोई संदेह नहीं है किंतु प्रगति की गति और दिशा पर अनेक गंभीर प्रश्न चिन्ह लगे हैं। तरुण नवगीतकार शुभम श्रीवास्तव 'ॐ' समाज में सद्भाव और सहकार के स्थान पर ईर्ष्या और देश के साथ तकनीक को गलबहियाँ करते देखकर  चुप नहीं रह पाते- 'दीवारों पर खूनी पीकें / ईर्ष्या ने चुभलाए पान / उभरे हैं विकल्प बहुत से / मेसेज, अन्फ्रेंड ब्लॉग, पोक /  जंगल बनती बोनसाइयाँ / आदिम बरगद; नीम; अशोक (फिर उठेगा शोर एक दिन)। राजनीति के गलियारों में बदलाव के जुमले खूब उछाले जाते हैं किंतु न तो आदमी बदला है, न शतरंजी चालें- साँझ सकारे / मिल जाते जब प्रेमचंद जी / गली-दुआरे / कहते-फिरते बदल गए दिन / किंतु न बदला अभी आदमी / पंचायत से राजभवन तक /  शतरंजी गोटें वहीं जमीं (बृजनाथ श्रीवास्तव, समय की दौड़ में)। अपने गलत को भसही और अन्य के सही ठहरने का यह दौर चिन्तन औत चिंता दोनों का कारण है- घाटी की / चुप्पी में डूबी / फिर से एक नदी। /पर्वत के / कंधों  पर झूले / नेकी और बदी / चीखों को / परिभाषित करना / सच में सहज हुआ (पंकज मिश्र 'अटल', बोलना सख्त मना है)।   
प्यार : 
किसी देश का निर्माण सहयोग, सद्भाव और प्यार से हो होता है. टकराव से सिर्फ बिखराव होता है. नवगीत ने प्यार की महत्ता को भी स्वर दिया है- प्यार है / तो ज़िंदगी महका / हुआ एक फूल है / अन्यथा हर क्षण / ह्रदय में / तीव्र चुभता शूल है / ज़िंदगी में / प्यार से दुष्कर / कहीं कुछ भी नहीं (महेंद्र भटनागर, दृष्टि और सृष्टि), रातरानी से मधुर / उन्वान हम / फिर से लिखेंगे / बस चलो उस ओर सँग तुम / प्रीत बंधन है जहाँ (सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की) में नवगीत जीवन में प्यार और श्रृंगार की महक बिखेरता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन सामान्य की प्राण शक्ति है। नवगीत आम जन की संघर्ष में सफलता की आशा का उत्सव मानाने से पीछे नहीं रहता- बंद आँखों में मचलते / भोर के उत्सव / झुके कंधों पर उठाए / रेशमी कुछ ख्वाब / ढूँढता वह डिग्रियों से / एक अदना जॉब / अर्थियां कागज़ की धोना / कब तलक संभव? (मालिनी गौतम, चिल्लर सरीखे दिन)। 'कहूँ क्या आस निरास भई' की मन:स्थिति में भी संबंध के अनुबंध बने रहते हैं, टूटन से भी जुड़ाव जन्म ले सकता है,- समझौतों के / गुब्बारे बहुत उड़े / उड़ते ही सबकी डोरी छूट गयी / विश्वास किसे क्या कहकर बहलाते? / जब नींद लोरियाँ सुनकर टूट गयी / संबंधों से / हम जुड़े रहे यों ही / ज्यों जुड़ी / वृक्ष से हो टूटी टहनी (धनंजय सिंह, दिन क्यों बीत गए)
अंतर्द्वंद:
क्या, क्यों, कब, कैसे,  कहाँ आदि प्रश्न विकास प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं। सहमति-असहमति ही संतोष-असंतोष की जननी होती है किंतु प्रक्रिया से असंलग्नता भी संभव नहीं होती। जुड़ कर क्यों जुड़ा और न उड़कर क्यों नहीं जुड़ा  का अंतर्द्वंद नवगीत भी झेलता है- आज अपने आप से ही / लड़ रहा हूँ / क्यों गया था / देखने मेला / सयानों का? / साथ लेकर / आ गया हूँ / गम ज़मानों का / दोष सारे मैं स्वयं पर / मढ़ रहा हूँ (कृष्ण शलभ , नदी नहाती है)। विकास की प्रक्रिया में भ्रम भी होते हैं और विकासकर्ता के भ्रम की कीमत आम जन को चुकाना होती है- भरे पेट का / भ्रम पाले हैं / लोग न जानें / रोग जलोदर / अगर वैद्य / समझाए भी तो / कहें कृपालु / हुए लंबोदर (देवेन्द्र 'सफल', हरापन बाकी है)। मनुष्य पर हावी होता यंत्र कुंठा को जन  देता है- मशीनों में / लिया है भर / देह-श्रम / सारे जतन / ऐसे में भला /कोई बता दे / हम इन्हें कैसे भुलाएँ (सुरेश कुमार पंडा, अँजुरी भर धूप)। प्रश्नों के उत्तर न मिलें तो कुंठा होना स्वाभाविक है- दे नयी गंगा जगत को / आज है देवत्व किसमें / साध ले आवेग सर पर / है यहाँ शिवत्व किसमें? / हो रहे कुंठित भगीरथ / कौन लाए दिव्य-धारा? (फटे पांवों में महावर, संजय शुक्ल)। 
आव्हान : 
समस्त विसंगतियों की बाद भी जनमानस की अपराजेय आस्था का जयघोष करता नवगीत चुनौतियों से दो-दो हाथ कर न केवल आगे बढ़ने के लिए तैयार है अपितु किसी को पीछे न छूटने देने के लिए भी कृत संकल्पित है- कन्दरा में यों अपरिचित / हम तुम्हें रहने न देंगे / शब्द का सद आचरण / सुर-ताल का चारा नहीं है / बालुई मिट्टी किसी भी / दुर्ग का गारा नहीं है / इन कुदालों की कुचलों से / कलश ढहने न देंगे (वेदप्रकाश शर्मा 'वेद', आओ नीड़ बुनें)। सपनों से नाता जोड़ो पर / जाग्रति से नाता मत तोड़ो तथा यह जीवन / कितना सुन्दर है / जी कर देखो... शिव समान / संसार हेतु / विष पीकर देखो (राजेंद्र वर्मा, कागज़ की नाव), सबके हाथ / बराबर रोटी बाँटो मेरे भाई (जयकृष्ण तुषार), गूंज रहा मेरे अंतर में / ऋषियों का यह गान / अपनी धरती, अपना अम्बर / अपना देश महान (मधु प्रसाद, साँस-साँस वृन्दावन), हाथ में पतवार होगी / यह नदी भी पार होगी / बस भँवर का ध्यान रखना / तैरने का ज्ञान रखना / उस किनारे की जमीं भी / एक दिन गुलजार होगी (संध्या सिंह, मौन की झंकार), खिल रहा नवगीत का शुभ / फिर नया सन्दर्भ कोई / घिर रही कोइ घटा फिर / सतह पर अवतरणिका की / सज रही अनुसंधि कोई / शब्द की मणिकर्णिका की / हँस रहा मधुमास लेकर / फिर नया गन्धर्व कोई (शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', रोटी का अनुलोम-विलोम) आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत के अंतर में देश के नव निर्माण की आकुलता की अभिव्यक्ति करते हुई आश्वस्त करती हैं कि देश का भविष्य उज्जवल है और युवाओं को विषमता का अंत कर समता-ममता के बीज बोने होंगे। 

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