ॐ
कुदरत के संवाद
कुदरत के संवाद
दोहा शतक:
चंद्रकांता अग्निहोत्री
आत्मजा: श्रीमती लाजवन्ती जी-श्री सीताराम जी।
जीवनसाथी: श्री केवलकृष्ण अग्निहोत्री।
काव्य गुरु: डॉ. महाराजकृष्ण जैन, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, ॐ नीरव जी।
लेखन विधा: लेखन, छायांकन. पेंटिंग।
प्रकाशित: ओशो दर्पण, वान्या काव्य संग्रह, सच्ची बात लघुकथा संग्रह, गुनगुनी धूप के साये गीत-ग़ज़ल।पत्र-पत्रिकाओं में कहानी ,लघुकथा,कविता ,गीत,आलोचना आदि।
उपलब्धि: लघुकथा संग्रह सच्ची बात पुरस्कृत ।
संप्रति: से.नि. प्रध्यापक/पूर्वाध्यक्ष हिंदी विभाग, राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सेक्टर 11,चंडीगढ़।
संपर्क: ४०४ सेक्टर ६, पंचकूला, १३४१०९ हरियाणा।
चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: agnihotri.chandra@gmail.com।
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चंद्रकांता जी के लिए दोहा लेखन मन-रंजन नहीं मन-संकेंद्रण का माध्यम है। वे शब्दों से खेलती नहीं, शब्दों के माध्यम से गुरु महिमा का गानकर, आत्मोन्नयन-पथ का संधान करती हैं। प्रकृति उनकी सखी है जिसकी छवि-छटा उनके मन को भाव-विभोर करती है:
फागुन में बौरा गया, होकर मस्त समीर।
कलियाँ नाची झूमकर, भँवरे हुए अधीर।।
नेह नर्मदा में अवगाहन करने की ओशोई भावधारा की पथिक चन्द्रकान्ता जी जागतिक मनोभावों को 'पानी कर बुलबुला' मानकर भुला देने में विश्वास रखती हैं-
स्नेह, मान, अपमान सब, जल पर खिंची लकीर।
जो समझे झट दे भुला, सच्चा वही फकीर।।
वे भली-भाँति जानती हैं कि तृष्णा कभी शांत नहीं होती। इसलिए शब्द-ब्रम्ह के माध्यम से नाद ब्रम्ह प्राप्ति की राह पर साधनारत रहना ही सही राह है-
मन की तृष्णा कब मिटी, मिट–मिट गए शरीर।
जितना समझाओ इसे, उतना अधिक अधीर।।
दोहा-लेखन में सहज-सुबोध भाषा, प्रसाद गुण सम्पन्नता उनका वैशिष्ट्य है। अंतर्मन में घटते मुखरित मौन की साक्षी होकर चंद्रकांता जी अपने पाठकों को उसकी प्रतीत्ति करा पाती हैं-
ढाई आखर प्रेम के, समझ सका है कौन?
जो समझा वह हो गया, खुद ही मुखरित मौन।।
अहम् का वहम ही सब विकारों की जड़ है। चंद्रकांता जी के दोहों में अन्तर्निहित भाषिक प्रवाह सी स्वाभाविकता, सार्थक कथ्य सी सोच, स्पष्टता सा लक्ष्य-बोध, गति-यति सा आत्म-संयम, तथा सम्यक शब्द-चयन में समर्थ दृष्टि हो तो सफलता को खुद-ब-खुद साधक के द्वार पर दस्तक देनी होती है-
अहंकार की नींव पर, कैसा नव निर्माण?
साँसों में अटके रहे, दीवारों के प्राण।।
चंद्रकांता जी के दोहे भावार्थ के साथ निहितार्थता से भी संपन्न हैं। उन्हें पढ़ने के साथ उन पर चिंतन-मनन भी तो वे अधिक सार्थक प्रतीत होते हैं।
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फागुन में बौरा गया, होकर मस्त समीर।
कलियाँ नाची झूमकर, भँवरे हुए अधीर।।
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मन के घोड़े कब रुकें, खींचो लाख लगाम।
नाहक भागमभाग में, बीती उमर तमाम।।
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दर्पण को कैसे मिला, चंदा का उपहार।
गंगा जी को मिल गया, ज्यों नभ का विस्तार।।
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अँधियारे समझें नहीं, उजियारे की बात।
बैर-द्वेष को संग ले, करें प्रेम से घात।।
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अंतर्मन से आपका, प्रगट करूँ आभार।
मन में प्रभु श्रीराम हो, भक्ति-भाव श्रृंगार।।
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इच्छा जल-बुलबुले सा, है फेनिल आभास।
फूटे गीलापन मिले, साथ छोड़ती आस।।
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इच्छाओं के बोझ से, कश्ती डाँवाडोल।
डूबेगी यह जिंदगी, व्यर्थ जन्म अनमोल।।
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क्या करना रख कर भला, इस दुनिया से राग।
रीत भली है प्रेम की, मिट जायेंगे दाग।।
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भव्य हवेली देख कर, मत जाना तू रीझ।
भीतर जा सच जानना, मन जाएगा खीझ।।
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मन के द्वारे बैठिये, सजन विवेकी जान।
पल-पल मन को परखिये, निरख-परख पहचान।।
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धीरज की महिमा बड़ी, कहते सभी महान।
मन! धीरज खोना नहीं, यही स्वर्ण की खान।।
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विधना के हर लेख को, कर ले तू स्वीकार।
कर्मों के इस खेल में, निश्चित तेरी हार।।
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नारी की शोभा बड़ी, जगत मिला उपहार।
मिला दण्ड हर कदम पर, तनिक न मानी हार।।
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दूध-मलाई खा अगर, मत करना विश्राम।
सुधिजन मन को मार के, कर लेना व्यायाम।।
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स्नेह, मान अपमान सब, जल पर खिंची लकीर।
जो समझे झट दे भुला, सच्चा वही फकीर।।
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लुका-छिपी का खेल क्यों, करते दीनदयाल?
यहाँ-वहाँ छिपकर मुझे, मत करना बेहाल।।
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रिमझिम चादर ओढ़ भू, सहज सँवारे गात।
शीत-ठिठुर गर्मी-तपे, किन्तु न खाती मात।
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भाव कुटिल मन में भरे, कैसे उपजे प्रीत।
कैसे सब मिलकर रहें, समझें मिलकर रीत।।
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नैया लहरों से घिरी, छूट गए पतवार।
संकट में हैं प्राण अब, दुःख निवारण हार।।
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सुनते रहना मौन हो, कुदरत के संवाद।
कुछ मत कहना बीच में, हो न कहीं अपवाद।।
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सुमिरन-सुमिरन सब कहें, सुमिरन करें न आप।
बीज उगाये आस के, जल-सिचन कर पाप।।
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नारी से शोभा बढ़ी, जगत-मिला उपहार।
मिला दंड हर कदम पर, तनिक न मानी हार।।
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मन के अंदर मन बसे, महिमा महत महान।
निरख-निरख मन सबल को, संयम से पहचान।।
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जाना गुरु के द्वार पर, मन में ले विश्वास।
आँखों से आँसू बहे, बुझे न गहरी प्यास।।
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दुःख मन देना मीत को, अपनाओ यह रीत।
सुख से भर दो झोलियाँ, फैला जग में प्रीत।।
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तेरा-मेरा छोड़कर, खुद पर कर उपकार।
दिन दस है रहना यहाँ, जीती बाजी हार।।
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मन में जब करुणा बसे, धर्म करे शुरुआत।
सबका जग अपना लगे, लाख टके की बात।।
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घाव छिपाना सभी से, कहो न दिल की बात।
नमक लिए कर घुमते, देने को सौगात।।
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माया के आगे सदा, बैठा घुटने टेक।
प्रभु-माया को दो समझ, नाहक खींचे रेख।।
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इस दुनिया में भरमकर, भूल गया निज धाम।
महिमा उसकी जान कर, लिया न फिर भी नाम।।
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माया नटि के पाँव में, घुँघरू बँधे हज़ार।
छम-छम ध्वनि सब सुन रहे, कैसे उतरे पार।।
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इस कुटिल संसार से, अब तो आँखें मीच।
दे दे कर लालच नए, माया लेती खींच।।
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तृष्णा तो दुष्पूर है, कहते हैं सब लोग।
विष की डाली मुँह लगी, बढ़ता जाए रोग।।
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आशाओं के पेड़ पर ,पत्ते कई हजार।
पक्षी उड़ें विचार के, करें वार पर वार।।
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ठिठुरन बढ़ती देख कर, हुआ गरीब उदास।
छप्पर ठीक न कर सके, कैसे पूरी आस।।
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लड़की सुंदर देखकर, ठोकर मुँह के भार।
कपड़े सब लथपथ हुए, दांत विखंडित चार।
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कौन बँधाए गुरु बिना, व्याकुल मन को धीर।
गुरु बिन ऐसा कौन है, दूर करे जो पीर।।
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मन की तृष्णा कब मिटी, मिट–मिट गए शरीर।
जितना समझाओ इसे, उतना अधिक अधीर।।
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सूरत करती आजकल, सीरत का व्यापार।
सीरत के गुण देखकर, रूप गया खुद हार।।
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गुरु जैसा दानी नहीं, झोली भर दें नित्य।
सुख दे, दुःख खुद झेलकर, करते झ-हित कृत्य।।
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चिंता में क्यों और की, मन अकुला हो दीन।
पर्दा अपनी आँख पर, दर्पण दिखे मलीन।।
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आँखें भर आई विवश, सुनकर सबकी बात।
अपनी ओछी बात से, दूजे को दें मात।।
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निंदा रस में मग्न हैं, अहंकार भरपूर।
उनको जरा टटोलिये, जो पद-मद में चूर।।
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करे भरोसा गैर का, खुद से समझो बैर।
निज रक्षा कैसे करे, कैसे माँगे खैर।।
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प्रेम मिले न गली –गली, न ही मिले बाज़ार।
बिन कारण जहँ सर झुके, वही प्रेम का द्वार।
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बैर-भाव को यूँ समझ,जैसे खरपतवार।
फूल न खिलता प्रेम का, सींचो सौ–सौ बार।।
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छुप कर करते वार वे, तो भी समझें वीर।
अपनों से ही झगड़ते, रहते सदा अधीर।।
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दुख की चिंता मत करें, सुख की कर लें बात।
जिस पर जितना ध्यान दें , वही फले दिन-रात।।
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योगी ऐसा चाहिए, शब्दों में हो धार।
भीतर गहरे ध्यान से, सबका हो उपकार।।
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गुरु-पग में हरिद्वार है, सिमटे चारों धाम।
हुआ दिव्य संसार सब, लिया ईश का नाम।।
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राग-द्वेष कुछ है नहीं, मन पर खिंची लकीर।
जान सके जो भी इसे, मन से हुए फकीर।।
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फेसबुकी के प्रेम का, कोई आर न पार।
ईंट कहीं रोड़ा कहीं, रचते हैं संसार।।
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पल-पल जीना ध्यान में, सही जिन्दगी मीत।।
ध्यान प्रेम की देशना, का अति सुंदर गीत।।
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गत-आगत की फ़िक्र में, नाहक तू मत डोल।
उलझन में खो दे नहीं, जीवन यह अनमोल।।
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संन्यासी के हाथ में, सत्ता भी निर्भार।
ऐसा नाविक जब मिले, नाव लगेगी पार।।
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क्यों तू निंदा रस चखे,ले ले हरि का नाम।
नाम मग्न हो बावरे, पायेगा विश्राम।।
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ये निंदा रस पी हुए, अहंकार में चूर।
हरि रस में वे मग्न हैं, निंदा कोसों दूर।।
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पर निंदा अपराध है, अहंकार है पाप।
अपने भीतर झाँक ले, बने न जीवन शाप।।
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शीश झुकाना व्यर्थ है, जब तक मन में चाह।
निस्तरंग जब मन हुआ, मिल जायेगी थाह।।
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धड़कन काशी हो गई, हरिद्वार है श्वास।
मन गंगा- जमुना हुआ, बुझी हृदय की प्यास।।
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चूनर ओढ़ी प्रेम की, मन पाया बैराग।
जब–जब ये आँसू बहे, बिरहा जागी आग।।
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टाइम् लाइन् 'बॉक्स में, छिड़ी अनोखी जंग।
हावी है इन्बोक्स पर, टाइम लाइन दंग।।
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घना अँधेरा छा रहा, हर ख्वाहिश के संग।
फिर भी मन मजबूर है, जारी रहती जंग।।
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बिन गुरु नीरस जिंदगी, बिन प्राणों की देह।
गिर जाएगा एक दिन, साँसों का यह गेह।।
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सारी दुनिया देख ली, गुरु सा मिला न मीत।
मन की बगिया खिल गयी, जानी सच्ची प्रीत।।
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गिनी-चुनी साँसे बचीं, कर ले सोच-विचार।
मद, माया अरु लोभ में, गँवा नहीं बेकार।।
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प्रेम घटे तो सब मिले, भीतर मिलता चैन।
बहे हृदय में प्रेम रस, निखरे वह दिन-रैन।।
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छल–बल से सर्दी घुसी, फैली ठाँव-कुठाँव।
बची खुची गर्मी डरी, भागी उलटे पाँव।।
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देखो छत के आज भी, दीवारों में प्राण।
किसकी कितनी बेबसी, सका न कोई जान ।
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धीरे-धीरे शीत ऋतु ,गर्मी को दे मात।
रिमझिम की चुनरी लिए, सहज सँवारे गात।।
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बरखा की पायल बजी, हुआ अनोखा शोर।
गुस्सा आया मेघ को ,किया अँधेरा घोर।।
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कुर्सी की इस दौड़ में, पल-पल रखना याद।
अब भी है इस देश में, जयचंदी औलाद।।
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मन की तृष्णा कब मिटी ,मिट–मिट गए शरीर।
गुरु बिन ऐसा कौन है, दूर करे जो पीर।।
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छम-छम बरखा आ गई ,रुन–झुन उसकी चाल।
इंद्रधनुष ने लिख दिए, सारे रंग गुलाल।।
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कविता की चिंता नहीं, नहीं शब्द में धार।
पुरस्कार की होड़ में, काव्य बना व्यापार।।
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मेरी अपनी राह है, मेरा अपना गीत।
जीतूँ तो भी जीत है, हारूँ तो भी जीत।।
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जब पर-निंदा सुर उठे, अपने भीतर झाँक।
मन छलिया तो छल करे, देख सकेगी आँख।।
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कहूँ न मन चिंता लगे, न कहूँ तो अकुलात।
और किसे कैसे कहूँ, पिया मिलन की बात।।
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सांस–सांस सुमिरन जगे, रोम–रोम में प्यास।
पिऊ-पिऊ मनुआ रटे, बिरहा जागी आस।।
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अहसासों के गाँव में, शब्दों से खिलवाड़।
शब्द–शब्द की आड़ में, बनते तिल के ताड़।।
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ढाई आखर प्रेम के, समझ सका है कौन?
जो समझा वह हो गया, खुद ही मुखरित मौन।।
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सत्ता ले ली हाथ में, चमचे मिले उदार।
करनी-भरनी खेल सब, लीला अपरंपार।।
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अहंकार की नींव पर, कैसा नव निर्माण?
साँसों में अटके रहे, दीवारों के प्राण।।
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मनमानी होने लगी, चलो छोड़ कर गाँव।
तपश अनोखी धूप की, कहाँ मिलेगी छाँव??
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दूर करो भव-ताप सब, सुन लो कृपानिधान!
सहज मिले भक्ति मुझे, दे दो यह वरदान।।
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इस दुनिया की भीड़ में, पकड़ गुरू का हाथ।
मतलब के सौदे यहाँ ,कोई न’ देगा साथ|
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गुरुवर को पहचानिए, महिमा अपरंपार।
एक नजर जो देख ले, धूल लगे संसार।।
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भक्ति न होती ध्यान बिन, बिना भक्ति कब ज्ञान।
ज्ञान बिना जीवन नहीं, कहते संत सुजान।।
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अगर न होती फेस बुक, तो क्या होता हाल।
मुर्दा होते दिन सभी, रातें भी बेहाल।।
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ओशो के संदेश की, महिमा अपरंपार।
डूब गए जो ध्यान में, सहजे उतरे पार।।
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ओशो के संदेश में, छिपा जगत का नूर।
उसके दर पर जो झुका, हुआ अँधेरा दूर।।
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ध्यानी में संसारी में, केवल इतना भेद।
ध्यानी तो रस रूप है, संसारी को खेद।।
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जब तेरी वंशी बजे, मन का नाचे मोर।
डर है अब किस बात का, हाथ उसी के डोर।।
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बैठे रहो दुकान पर, पर भीतर हो होश।
तन-मन भी महका रहे, हुए खत्म सब रोष।।
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गुरु बिन रीती जिंदगी, अँधियारी हर रात।।
सुबह न जिसकी हो सके, मिले घात पर घात।।
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कहना संन्यासी उसे, काम करे निष्काम।
कर्ता भाव बचे नहीं, मन में हरि का नाम।।
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बलशाली राजा हुए, बहुत मिला था मान।
सब पीछे अभिमान के, हुआ न कुछ भी ज्ञान।।
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सच की सब माला जपें, खूब मचाएँ शोर।
अपनी-अपनी छावनी, करें लड़ाई घोर।।
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मान सभी को चाहिए,चमचे, राजा, शूर।
भीख माँगते फिर रहे, कहकर मान गुरूर।।
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छूटी मन की कामना, लिया ईश का नाम।।
गुरु हर पल करते कृपा, भक्ति घटे निष्काम।।
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ओशो ने सबको दिया, सचमुच ऐसा ज्ञान।
सारी कुदरत खिल गयी, मुदित हुए सब धाम।।१०१
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ज्ञान भैरव’ तंत्र का, फिर से किया बखान |
शिव जी जैसे आ मिले ,मिला सहज वरदान |
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साधू उसको ही कहो, जो जाने पर पीर।
धरी-धर्म धारण करे, होता नहीं अधीर।।
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पकड़ डगर तू ध्यान की, आँख मीच कर बैठ।
जितना डूबे ध्यान में, उतनी गहरी पैठ।।
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मन सागर को देखता, संन्यासी हो शांत।
दूर किनारे पर खड़ा, कभी न चित हो भ्रांत।।
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अग्नि जली जब ध्यान की, बचा न खरपतवार।
सारी तृष्णायें जलीं, मन से गए विकार।।
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बीज ध्यान का बीज के, करना नहीं विचार।
मौन-शांत हो देखना, पल-पल हो त्यौहार।।
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कितने रंग दिखला रहा, सबको आज समाज।
तार –तार की जा रही, निज बेटी की लाज।।
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दुनिया है पागल बड़ी, धन की करती बात।
धन के कारण दिख गई, सबकी क्या औकात।।
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गाँव हुए जल-मग्न सब, ऐसी थी बरसात।
दुखी हुआ मन देखकर, जीवन काली रात।।
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कुछ पाने की होड़ में, दौड़े दुनिया साथ।
गीली लकड़ी सी जले, कुछ भी लगे न हाथ।।
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मन से मन जुड़ता नहीं, जब तक भाव न नेक।
सूखी बेली सींचते, फूले फूल अ-नेक।।
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