दोहा शतक जय प्रकाश श्रीवास्तव
छाया है कुहरा घना,दिखता ओर न छोर
जाने कब संध्या ढली,कब उग आई भोर।
फूल बसंती खिल गये,वन उपवन श्रंगार
प्रीत हिंडोला झूलती,मन में जागा प्यार।
मन के आँगन में जगे,प्रीत पगे संबंध
कली कली से हो गये,भँवरों के अनुबंध।
खिले फूल कलियाँ खिलीं,खिला खिला रँग रूप
खिली खिली धरती लगे,खिली खिली सी धूप।
ऋतु बसंत के मायने ,समझा रही बयार
कभी लगे ग़ुस्सैल सी,कभी जताती प्यार।
पाँव जब तलक साथ दें,चलता चल तू यार
मिलता जैसा जो जहाँ,बाँट सभी से प्यार।
रोज़ बनाते नीतियाँ,रोज़ निभाते फ़र्ज़
जनता के सिर पर मढ़ें,टैक्स लगाकर क़र्ज़ ।
भीतर अपने झाँक ले,फिर कर सोच विचार
कितना पाया क्या दिया,कितना रहा उधार।
सूरज खिड़की में उगा,दरवाज़े पर घाम
दिन के कारोबार में,रात हुई बदनाम।
सन्नाटा बुनती रही,अँधियारे में रात
दिन निकला फिर धूप की,लेकर के सौग़ात।
जिनके महल अटारियाँ ,मख़मल के क़ालीन उनके पाँवों के तले,होती नहीं ज़मीन । जिन्हें देखकर ज़रा भी,जगे नहीं उल्लास उनसे रहिये दूर ही,हों कितने ही पास। वैमनस्य की आग में,झुलस रहे परिवेश बुझा बुझा कर हारता,मेरा प्यारा देश। भक्ति और वैराग्य का,मणिकाँचन सा योग ढूँढे़ से मिलता नहीं ,अब ऐसा संयोग। धूल बवंडर आँधियाँ,और गले तक प्यास बूँद पसीना पोंछने,छाँव बुलाती पास। फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव। फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।
फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव।
फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।
राजनीति के मंच पर,कुर्सी का है खेल सत्ता पाने के लिये,मचती रेलमपेल।
छाया है कुहरा घना,दिखता ओर न छोर
जाने कब संध्या ढली,कब उग आई भोर।
फूल बसंती खिल गये,वन उपवन श्रंगार
प्रीत हिंडोला झूलती,मन में जागा प्यार।
मन के आँगन में जगे,प्रीत पगे संबंध
कली कली से हो गये,भँवरों के अनुबंध।
खिले फूल कलियाँ खिलीं,खिला खिला रँग रूप
खिली खिली धरती लगे,खिली खिली सी धूप।
ऋतु बसंत के मायने ,समझा रही बयार
कभी लगे ग़ुस्सैल सी,कभी जताती प्यार।
पाँव जब तलक साथ दें,चलता चल तू यार
मिलता जैसा जो जहाँ,बाँट सभी से प्यार।
रोज़ बनाते नीतियाँ,रोज़ निभाते फ़र्ज़
जनता के सिर पर मढ़ें,टैक्स लगाकर क़र्ज़ ।
भीतर अपने झाँक ले,फिर कर सोच विचार
कितना पाया क्या दिया,कितना रहा उधार।
सूरज खिड़की में उगा,दरवाज़े पर घाम
दिन के कारोबार में,रात हुई बदनाम।
सन्नाटा बुनती रही,अँधियारे में रात
दिन निकला फिर धूप की,लेकर के सौग़ात।
जिनके महल अटारियाँ ,मख़मल के क़ालीन उनके पाँवों के तले,होती नहीं ज़मीन । जिन्हें देखकर ज़रा भी,जगे नहीं उल्लास उनसे रहिये दूर ही,हों कितने ही पास। वैमनस्य की आग में,झुलस रहे परिवेश बुझा बुझा कर हारता,मेरा प्यारा देश। भक्ति और वैराग्य का,मणिकाँचन सा योग ढूँढे़ से मिलता नहीं ,अब ऐसा संयोग। धूल बवंडर आँधियाँ,और गले तक प्यास बूँद पसीना पोंछने,छाँव बुलाती पास। फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव। फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।
फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव।
फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।
राजनीति के मंच पर,कुर्सी का है खेल सत्ता पाने के लिये,मचती रेलमपेल।
गंगा शुद्धीकरण में,लेंगें अब वे दान
इससे क्या बच पायेगा,गंगा का सम्मान।
आजादी आई कहाँ,जनता है परतंत्र
राजनीति के घाट पर,है घायल गणतंत्र।
बेकारी औ भूख से,लड़ता रोज गरीब
श्रम से लिखता हाथ पर,अपना रोज नसीब।
रोटी रोटी के लिये,रोटी रहे उछाल
प्रजातंत्र में आज भी,रोटी एक सवाल
प्रेम सरोवर में लगा,डुबकी तू इक बार
प्रेम उतारेगा तुझे,भवसागर से पार।
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