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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

laghukathayen

लघुकथाएं -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१. एकलव्य
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- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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२. खाँसी
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कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती। सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए।
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे। उसने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है। जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे।
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी।
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३. साँसों का कैदी
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जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।

गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।

धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
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४. गुरु जी
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मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बना नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए सहमति दे दी। रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा।
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं। फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं। मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती। आइंदा ऐसा किया तो...'

आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकड़े कि अब नहीं बनेंगे किसी के गुरु। ऐसों को गुरु नहीं गुरुघंटाल ही मिलने चाहिए।
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प्रेषक:
संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्व वाणी हिंदी संस्थान,
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१


चलभाष: ७९९९५५९६१८, ई मेल: salil.sanjiv@gmail.com

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