ॐ
मन वातायन खोलिए
दोहा शतक
अनिल कुमार मिश्र
आत्मज: श्रीमती कलावती-स्व.रामनरेश मिश्रा।
जीवन संगिनी: श्रीमती
रजनी मिश्रा।
काव्य गुरु:- स्व. रामनरेश मिश्र
जन्म: ३१ मार्च १९५८, इलाहाबाद
(उ.प्र.)।
शिक्षा: एम.ए. (समाजशास्त्र, हिंदी)।
लेखन विधा: नुक्ताचीनी, गीत, हास्य-व्यंग, दोहे आदि।
प्रकाशन: दृष्टि
(यात्रा संस्मरण), अरुणिमा, इन्द्रधनुष (काव्य संकलन)।
उपलब्धि: अंबेडकर प्रसून सम्मान, नवदर्पण साहित्य जागरण सम्मान, लायंस क्लब-सुर सलिला सम्मान।
संप्रति: विद्युत
पर्यवेक्षक, उमरिया कालरी। सचिव वातायन
साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था उमरिया (म.प्र.)।
सचिव हिंदी साहित्य सम्मेलन म. प्र. भोपाल (उमरिया
इकाई)।
संपर्क: आवास क्रमांक बी ५८, ९ वीं कालोनी उमरिया ४८४६६१।
चलभाष: ९४२५८९१७५६ , ९०३९०२५५१०, व्हाटस एप: ७७७३८७०७५७।
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भारत भूमि आदिकाल से धर्मनिष्ठ,, धर्म-भीरु और धर्म-प्रधान रही है। गंगा तट
इलाहाबाद से नर्मदा, शोण और जुहिला की उपत्यका में आ बसे अनिल मिश्र जी का
साहित्य, धर्म और समाज के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। अनिल जी के लिए धर्म,
साहित्य और समाज एक दुसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं परिपूरक हैं। वे सनातन परंपरानुसार
ईश्वर के विविध रूपों में आस्था रखते हैं। उनके दोहों में दुर्गा, सीता, राम,
हनुमान, शिव, श्याम आदि इस्ट शक्ति के रूप में विराजमान हैं। अनिल जी मन की सहजता
और सरलता को ही प्रभु प्राप्ति का सोपान मानते हैं-
सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर।
हेम कुण्ड में हरि नहीं, अथक थके सब हेर।।
कबीर, तुलसी, बाणभट्ट, केशव, जायसी जैसी
साहित्यिक साहित्यिक विभूतियों से संस्कारित विंध्याटवी में सूफी विचार हवाओं के
साथ बहता है, फिर अनिल कैसे इससे बच सकते हैं-
श्वास-श्वास यह तन फुका, जली न इच्छा एक।
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया
फेंक।।
ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारें वह
निर्गुण-नराकार है, यह अनिल जी भली-भाँति जानते मानते हैं, उनके राम कबीर के राम
की तरह निर्वैर हैं-
प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक।
माना यह पथ कठिन है, राम उपाय
अचूक।।
भक्ति मार्ग पर चलने का आशय दायित्वों
से पलायन नहीं है। गीता का कर्मयोग जिस कर्मठता का सन्देश देता है, वह अनिल के
दोहों में अन्तर्निहित है-
कर्मठता कब देखती, नक्षत्रों की चाल।
श्रम पूँजी जिसको मिली, वह है
मालामाल।।
अनिल जी की व्यंग्य दृष्टि पूस के
सूर्य को कंजूस बताते हुए, उससे औदार्य की अपेक्षा रखती है-
नींद खुली जब भोर में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।।
प्रिय से मिलन होते ही प्रेयसी विरह-व्यथा को विस्मृत कर आनंदित हो, यह
स्वाभाविक है. अनिल जी की नायिका आनंदातिरेक में दहक रही है-
कज्जल, वेणी, हार, नथ, वसन हुए बेहाल।
दहकी प्रिय संग बाँह गह, भूली सभी मलाल।।
देश के राजनैतिक वातावरण और नेताओं के दुराचरण पर गंभीर कटाक्ष करते हुए
दोहाकार की निम्न अभिव्यक्ति जितनी सटीक है उतनी ही पैनी भी-
फेंक न जूता मारिए, इसका भी है मान।
नेता को पड़ रो रहा, आज हुआ अपमान।।
कथ्यानुरूप प्रांजल भाषा, प्रवाहमयी प्रस्तुति, स्पष्ट बिम्ब और सोद्देश्यता
अनिल जी के दोहों का गुण है। दोहापुर की डगर पर यह यात्रा का आरम्भ है, जैसे-जैसे
पग आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे दोहा की बाँकी छवियाँ सारस्वत भंडार को समृद्ध करेंगी।
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ॐ
दोहा शतक
अष्टभुजी जगदंबिके, लुटा रहीं आशीष।
आदि शक्ति की
अर्चना, करते हैं जगदीश।।
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मोक्षदायनी अंब
हैं, महाशक्ति विख्यात।
पाप-शाप देतीं गला, शुभाशीष विख्यात।।
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मातु-चरण जब-जब
पड़े, होते मंगल काज।
विघ्नहरण वरदायनी, चढ़ आईं मृगराज।।
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रखूँ भरोसा राम का, क्या करना कुछ और?
राघव पद रज बन
रहूँ, और न चाहूँ ठौर।।
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राम नाम महिमा बड़ी, पाहन जाते तैर।
छोड़ जगत जंजाल तू, पाल न राग, न बैर।।
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पूरे जग में राम
सा, नहीं अन्य आदर्श।
राम भजन-अनुकरण दे, जीवन में उत्कर्ष।।
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धन्य भूमि साकेत
पा, राघव नंगे पाँव।
निरख हँसे
माता-पिता, विहँस उठे पुर-गाँव।।
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राम नाम शर साधिये, मिटते कष्ट समूल।
सारे जग के मूल
में, राम नाम है मूल।।
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गुणाधीश हनुमंत हैं, पंडित परम सुजान।
आर्तनाद सुन दौड़ते, महावीर हनुमान।।
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मर्यादामय राम है, सतत कर्ममय श्याम।
जिस ढिग ये दोनों
रहे, जीवन चरित ललाम।।
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धन बल यश का क्या करूँ?, साथ न हों जब राम।
व्यर्थ हुईं
अक्षौहिणी, सँग नहीं यदि श्याम।।
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मन में रखिये राम को, कर में रखिये श्याम।
मर्यादामय राम हैं, कर्मयोग घनश्याम।।
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देवी के मन शिव रमे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम
हैं, मानव के मन दाम।।
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कुञ्ज गली कान्हा फिरें, ग्वाल-बाल के साथ।
सच बड़भागी हैं
बहुत, मोहन पकड़े हाथ।।
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मायापति क्रीड़ा करें, चकित हुआ ब्रज धाम।
पञ्च तत्व भजते
रहे, राधे-राधेश्याम।।
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पाँव डुबोये जमुन-जल, छेड़े मुरली तान।
कालिंदी पुलकित
मुदित, धरकर प्रभु का ध्यान।।
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धेनु चराई ग्वाल बन, दधि लूटा बिन दाम।
बने द्वारिकाधीश
जब, फिरे नहीं फिर श्याम।।
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श्याम विरह में तरु सभी, खड़े हुए निष्पात।
शरद पूर्णिमा भी
हुई, स्याह अमावस रात।।
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गोवर्धन सूना खड़ा, कुञ्ज मौन बिन वेणु।
राह श्याम की
ताकते, कालिंदी तट-रेणु।।
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लोभ मोह मद स्वार्थ के, ताले लगे अनेक।
ईश-कृपा सब लौटतीं
,बंद द्वार पट देख।।
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लोभ मोह मद हम
फँसे, लो प्रभु हमें निकाल।
जीवन में शुचिता
रहे, उन्नत हो मम भाल।।
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महासमर तम कर रहा, लोभ-मोह ले साथ।
लड़ने में सक्षम
करो, प्रभु थामा तव हाथ।।
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ईश कृपा जिसको मिली, उसको व्यर्थ कुबेर।
शुचिता की आभा रहे, थमे अमावस फेर।।
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सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर।
हेम कुण्ड में हरि
नहीं, अथक थके सब हेर।।
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मन वातायन खोलिए, निर्मल मन संसार।
प्रभु-छवि आँखों में बसा, होगा बेड़ा पार।।
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तुम साधन अरु साधना, मन चित भाव विचार।
ध्यान योग प्रभु आप हो, अवगुण के उपचार।।
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मायापति की शरण जा, छूटे बंधन-मोह।
मानव मन भटका हुआ, है विराट जग खोह।।
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मिट जाएगी दीनता, भज ले
मारुति-नाम।
यश-वैभव पौरुष मिले, बिन कौड़ी बिन दाम।।
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सत्कर्मो से कीजिये , कलुषित मन को साफ।
करते हैं प्रभु ही सदा, त्रुटियाँ सारी माफ़।।
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मन में प्रभु कैसे
रहें, बसी मलिन यदि सोच।
जैसे गति आती नहीं, अगर पाँव में मोच।।
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पुष्कर में ब्रह्मा बसे, अवधपुरी में राम।
कान्हा गोकुल में
रहे, शिव जी काशी धाम।।
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सागर में हरि रम
रहे, रमा रहें नित संग।
देव सभी मम हिय
बसें, हो निश-दिन सत्संग।।
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मन में रख श्रद्धा
अनिल, प्रभु दिखलाते राह।
प्रभु के द्वारे
एक हैं, दीन कौन, क्या शाह।।
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कर्मठता कब देखती, नक्षत्रों की चाल।
श्रम पूँजी जिसको मिली, वह है मालामाल।।
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रहें न गृह वक्री कभी, रहें राशि शुभ वार।
नखत सभी अनुचर बने, राम कृपा आगार।।
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राम चषक पी लीजिये, करिए तन-मन चंग।
धर्म-ध्वजा फहराइए, नीति-सुयश की गंध।।
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अंधकार मन में रहा, बुझा ज्ञान का दीप।
प्रभु अंतर ऐसे
छिपे, ज्यों मोती में सीप ।।
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श्वास-श्वास यह तन फुका, जली न इच्छा एक।
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया फेंक।।
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राम नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल पौरुष दृढ़ तना
हो, चरित सघन जड़-मूल।।
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उहा-पोह में क्यों फसें?, पूछे नवल विहान।
कर्मठता के साथ ही, सदा रहें भगवान।।
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दीप पर्व अरि तमस का, देता जग उजियार।
पाप मिटे
हरि-भक्ति से, हो शुचि-शुभ संसार।।
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प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक।
माना यह पथ कठिन है, राम उपाय अचूक।।
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जीवन में मत कीजिये, मिथ्या से गठजोड़।
क्षमा, शील, तप, सत्य का, कहीं न कोई तोड़।।
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भक्ति-भाव से सींचिये, मन का रेगिस्तान ।
महक उठेगा हरित हो, जीवन का उद्यान।।
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मन में शुचिता धार ले, त्याग लोभ मद काम।
स्वर्ग-नर्क हैं
यहीं पर, मोक्ष यहीं सब धाम।।
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छठ मैया जी आ गईं, बहती भक्ति बयार।
भूख-प्यास तिनका
हुईं, श्रद्धा अपरम्पार।।
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पाई-पाई में हुई, हाय! अकारथ श्वास।
गिनते बीती जिंदगी, राम न आये पास।।
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नींद खुली जब भोर
में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।।
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कौड़ा और अलाव से, रखिये अब सद्भाव।
इनके ही बल शिशिर
के, घट पाएँगे भाव।।
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पूस बाँटने चल पड़े, पाला शीत कुहास।
कूकुर चूल्हा में
घुसा, साध रहा है साँस।।
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शुभ विचार शुभ भाव हों, हो शुभ ही मन-चित्त।
शुभ आचार-विचार हों, शुभ हो जीवन-वृत्त।।
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नई नवेली सोचती, काश न आये भोर।
पड़ी प्रीत ले पाश
में, टूट रहे हैं पोर।।
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चादर ओढ़े धवल सी, खेत खपड़ खलिहान।
ठिठुरे-ठिठुरे से दिखे, मचिया मेड़ मचान।।
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स्वेटर शाल
रजाइयाँ, ताप रहीं हैं धूप।
कल तक सारे बंद थे, मंजूषा के कूप।।
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चना-चबेना-गुड़
बहुत, पूस माँगता खोज।
बजरे की रोटी रहे, चटनी भरता रोज।।
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हीर कनी तृण कोर
पर, पूस रखे हर रात।
बिन लेतीं हैं
रश्मियाँ, आकर संग प्रभात।।
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भानु न धरणी पग
रखे, देख शिशिर का जोर।
जा दुबके हैं नीड़
में, शान्त पड़ा खग शोर।।
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खल हो सूरज जेठ में, और समीरण यार।
माघ मास सब उलट है, मानव का व्यवहार।।
*
कज्जल, वेणी, हार, नथ, वसन हुए बेहाल।
दहकी प्रिय संग
बाँह गह, भूली सभी मलाल।।
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शिशिर यातना दे
रहा, भूल सभी व्यवहार।
पृष्ठ भरे हैं
जुल्म से, बाँच सुबह अखबार।।
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कुछ सोए फुटपाथ पर, कुछ ऊँचे प्रासाद।
सबके अपने भाग हैं, नहीं शिशिर अवसाद।।
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रखे मृत्यु सम
दृष्टि ही, करे न कोई भेद।
सत्कर्मी जब भी
गया, जग को होता खेद।।
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हत्या हिंसा से
रँगी, दिखी पंक्तियाँ ढेर।
डरा रहे अख़बार हैं, आकर देर सबेर।।
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सीता को सब खोजते, किंतु न बनते राम।
शर्त सरल पर कठिन
है, पहले हों निष्काम।।
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रिश्ते-नाते टाँकिये, नेह-सूत ले हाथ।
साँसें जो छिटकी
रहीं, चल देंगी सब साथ।।
*
हम मानव अति हीन
हैं, तरु हैं हमसे श्रेष्ठ।
छाया ,पानी, फल दिया, माँगा नहीं अभीष्ट।।
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साँसों का मेला
लगा, पिंजर है मैदान।
इच्छाएँ ग्राहक बनी, मोल करे नादान।।
*
गिनती की साँसें मिलीं, क्यों खर्चे बेमोल?
मिट्टी में मिल जायगा, अस्थि चाम का खोल।।
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हाँ-हाँ , हूँ-हूँ कर रहा, करके नीचे माथ।
लालच कब करने दिया, ऊपर अपना हाथ।।
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कृषकायी सरिता हुई, शोक मग्न हैं कूल।
सांस जगत की फूलती, होता सब प्रतिकूल।।
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बेला बिकता विवश हो, सोच रहा निज भाग।
मंदिर या कोठा
रहूँ, या दुल्हिन की माँग।।
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बेला कभी न सोचता, कौन लिए है हाथ।
उसको ही महका रहा, जो रखता है साथ।।
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बेला जब गजरा बने, उपजें भाव अनेक।
वेणी बन जूड़ा गुथे, मन न रहे फिर नेक।।
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खोलो मन की साँकली, झाँके अन्दर भोर।
भागे तम डेरा लिए, सम्मुख देख अँजोर।।
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भास्कर नभ पर आ
कहे, उठ जाओ सब लोग।
तन-मन नित प्रमुदित रहे, काया रहे निरोग।।
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धमनी-धमनी में बहे, नूतन शोणित धार।
तन-मन यदि हुलसित रहे, भुला बैद का द्वार।।
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पायल सहमी पाँव में, चूड़ी है बेहाल।
सावन सूना हो नहीं, जैसे पिछले साल।।
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आएगा जब गाँव में, कागा ले संदेश।
आएगा जब गाँव में, कागा ले संदेश।
पल में ही कट
जायगा, शाप बना परदेश।।
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सावन पापी ठहर तो ,मत बरसा रे! आग।
सावन पापी ठहर तो ,मत बरसा रे! आग।
विधि ने खुशियाँ
कम लिखीं, मैं ठहरी हत भाग।।
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पावक से लिपटे हुए, अंग-अंग श्रृंगार।
पावस में रजनी हुई, जैसे सौतन नार।।
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दर्पण हैं चंचल
नयन, बाहुपाश हैं हार।
प्रियतम से अनुपम
भला, कब कोई श्रृंगार।।
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पावस बूँदें
छेड़तीं, जाने किस अधिकार।
प्रियतम! निज थाती गहो, यौवन बोझिल भार।।
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प्रीतम बरसें मेघ बन, तन भिसके ज्यों भीत।
पोर-पोर टूटन कहे, हा! पावस की रीत।।
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प्रियतम की आहट मिली, पायल बोली कूक।
मध्य भाल टिकली हँसी, कंगन रहा न मूक।।
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दिवा हुआ है शिशिर
सा, और ग्रीष्म की रात।
नयन-नयन संवाद सुन, अधर-अधर की बात।।
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अंग-अंग वाचाल लख, काँधा आँचल छोड़।
आँखें प्रियतम को तके, निज मर्यादा तोड़।।
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गोरी ने खुद को
किया, प्रियतम के अनुकूल।
आँचल में भी फूल हैं, चोटी में भी फूल।।
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नथ अधरों से कर
रही, गुपचुप कुछ संवाद।
मैं शोभा की पात्र
बस, तुम हरदम आबाद।।
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तुम हो किस रस में
पगे, पूछे नथ यह राज।
अधर कहे हम मित्र
हैं, मिलें त्याग कर
लाज।।
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पग आलक्तक से रंगे, नयन हुए अरुणाभ।
अंग-अंग हँस कह रहे, जगे हमारे भाग।।
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फेंक न जूता मारिए, इसका भी है मान।
नेता को पड़ रो रहा, आज हुआ अपमान।।
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बेटा से माता कहे, बेटा! गारी बोल।
संसद की भाषा यही, बोल बजाकर ढोल।।
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चोर द्वार से है घुसे, लड़ते नहीं चुनाव।
लोकतंत्र के पीठ पर, नेता करते घाव।।
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हिंदी का निज देश में, हम करते अपमान।
एक दिवस के रूप
में, लेते जब संज्ञान।।
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कैसे कुछ सौ वर्ष में,बदल गया है रूप।
हिंदी दासी रह गई, अंगरेजी है भूप।।
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हिंदी को अपनाइए, तनिक न करिये लाज।
इस से अपना कल रहा, इससे ही है आज।।
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दोहा छंद कवित्त हैं, हिंदी के श्रृंगार।
चिरगौरव से युक्त हैं, हिंदी के युग चार।।
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सारी लज्जा छोड़ दें, हो हिंदी व्यवहार।
अगर पराई सी रही, हमको है धिक्कार।।
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धीरे-धीरे झाँकती,जा सागर के पार।
हिंदी की है छवि मृदुल, मिलता नेह-दुलार।।
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शील क्षमा साहस
दया, उन्नति के सोपान।
इसी मार्ग चल
मिलेंगे, कृपासिंधु भगवान।। १००
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