मुक्तक
बहुत नचाया तूने मुझको, आ मैं तुझको आज नचाऊँ
कठपुतली की तरह नचाकर, तेरी ही औकात दिखाऊँ
तू विधायिका मैं जनता हूँ, आयेगा मेरे ही द्वारे-
मत लेने जब, तब जुमलों कह तुझको तेरी जात दिखाऊँ.
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ऐ! मेरी तकदीर नचा ले, जैसा चाहे वैसा मुझको.
हार नहीं मानी है मैंने, जीत नचाऊँगा मैं तुझको.
हाथों की रेखाओं में तू कैद, बदल दूँगा जब चाहूँ-
बाधाओं से जूझ कहूँगा, हार गयी हो जल्दी खिसको.
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गए हमारे बीच से, लेकिन बदला रंग.
अपने होकर भी करें अपनों को ही तंग
देख इन्हें शरमा रहा गिरगिट माने हार
खुद ही खुद से कर रहे दिशा भूलकर जंग
*
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