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मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

लघुकथा: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद थका-हारा घर पहुँचा तो पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया। उलटे पैर बाजार भागा, किराना लेकर लौटा तो बिटिया रानीशिकायत लेकर आ गई "मम्मी पिकनिक नहीं जाने दे रही।" जैसे-तैसे  श्रीमती जी के मानकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए बेटे ने बताया कोचिंग जाना है,  फीस चाहिए। जेब खाली देख, अगले माह से जाने के लिए  कहा और सोचने लगा कि धन कहाँ से जुटाए? माँ के खाँसना और पिता के कराहना की आवाज़ सुनकर उनसे हाल-चाल पूछा तो पता चला कि दवाई  खत्म हो गई और शाम की चाय भी नहीं मिली। बिटिया को चाय बनाने के लिए कहकर बेटे को दवाई लाने भेजा ही था कि मोबाइल बजा। जीवनबीमा एजेंट ने  बताया किस्त तुरंत न चुकाई तो पॉलिसी लैप्स हो जाएगी। एजेंट से शिक्षा ऋण पॉलिसी की बात कर कपड़े बदलने जा ही रहा था कि दृष्टि आलमारी में रखे,  बचपन के खिलौनों पर पड़ी।
पल भर ठिठककर उन पर हाथ फेरा तो लगा खिलौने कह रहे हैं "तुम्हें ही जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की, अब भुगतो। छोटे थे तो हम तुम्हारे हाथों के खिलौने थे,  बड़े होकर तुम हो गए हो दूसरों के हाथों के खिलौने।
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