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सोमवार, 21 अगस्त 2017

आज की बात

षट्पदी-
आत्मानुभूति
कहाँ कब-कब हुआ पैदा, कहाँ कब-कब रहा डेरा?
कौन जाने कहाँ कब-कब, किया कितने दिन बसेरा?
है सुबह उठ हुआ पैदा, रात हर सोया गया मर-
कौन जाने कल्प कितने लगेगा अनवरत फेरा?
साथ पाया, स्नेह पाया, सत्य बडभागी हुआ हूँ.
व्यर्थ क्यों वैराग लूं मैं, आप अनुरागी हुआ हूँ.
२०-८-२०१७
***
षट्पदी-
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य


***
मुक्तिका: १
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
मुक्तिका: २
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
स्वप्न सजा नव जग में खोएँ
जनगण वे कांटे काटेंगे
जो नेताजी निश-दिन बोएँ
हुए चिकित्सक आज कसाई
शिशु मारें फिर भी कब रोएँ?
रोज रेलगाड़ियाँ पलटेंगी
मंत्री हँसें, न नयन भिगोएँ
आना-जाना लगा रहेगा
नाहक नैना नहीं भिगोएँ
अधरों पर मुस्कान सजाकर
मधुर मिलन के स्वप्न सँजोएँ
***
मुक्तिका ३
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है

***

मुक्तक
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
*** दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*

salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

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