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मंगलवार, 8 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक 
मधु रहे गोपाल बरसा वेणु वादन कर युगों से 
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से 
कहाँ नटनागर मिलेगा,पूछते रणछोड़ से क्यों?
बढ़ चलें सब भूल तो ही पा सकें नन्हें पगों से 
***

रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में 
***

salil.sanjiv@gmail.com
#हिंदी_ब्लॉगर 

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