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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

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गीत 
प्रो. रामस्वरूप सिन्दूर
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कितनी कुछ कट गयी ज़िन्दगी,
रही-सही कट जायेगी ।
तू चाहेगा तो तन-मन की,
खाई भी पट जायेगी ।
पढ़ कर तेरे गीत किसी को भी,
कितना परितोष मिले,
तुझे मिले या नहीं, मगर उसको
कुबेर का कोष मिले,
तू जा, या मत जा विगंत तक
तेरी आहट जायेगी ।
दुःख सहने का जीवन में, तू ने
न कभी अभ्यास किया,
बंजारे की तरह, सहज सन्यास
जिया उल्लास जिया,
जैसे आया तू, जाने की घटना
भी घट जायेगी ।
तू है रस अन्वेषी, तू ने
मुक्त श्वास जी-भर भोगी,
तू कवि रचना-सिद्ध देह में
समाधिस्थ कोई योगी,
तू हठ कर ले, तो हर बाधा
एक तरफ हट जायेगी ।
तू मरीचिका के पीछे भागता रहा
सब हार गया,
तेरा यश दुर्लभ जीवन के
साथ बहुत कुछ मार गया,
काया तेरी क्लान्त, कीर्ति की
हर पोथी फट जायेगी ।
 - 25 जुलाई 2011
साभार: अनिल सिन्दूर / सीमा अग्रवाल 
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टीप: इस उत्कृष्ट और सन्देशवाही गीत में  'विगंत' नया शब्द मिला. गन्तु = मार्ग, पथिक, गन्ता = पानेवाला, सहवास करनेवाला गंतव्य = जहाँ किसी को जाना हो. (बृहत हिंदी कोष), विगन्ध = गंध रहित. गन्ता, गन्तु, गंतुक = पथग, गमन कर्ता, चलन हारा, जानेवाला. (समान्तर कोष). ''तू जा, या मत जा विगंत तक / तेरी आहट जायेगी।'' क्या 'गन्तु' को 'गन्त' मानकर 'विगंत' प्रयोग किया गया है? विगंत का अर्थ लक्ष्य या मंजिल है अन्य कुछ? सीमा जी ने रचनाकार के पुत्र अनिल से चर्चा कर बताया की शब्द 'दिगंत' है. दिक् + गन्तु = दिगंत.   

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