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मंगलवार, 18 जुलाई 2017

smaran

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
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महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि

कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश

सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप

चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन

सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष

कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब

चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत

दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम

चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य

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