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सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

नवगीत

नवगीत
तुम्हें प्रणाम
संजीव
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*

सूक्ष्म काय थे,

चित्र गुप्त रख, विधि बन

सृष्टि रची अंशों से।

नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम

व्यापे वंशों में।

अणु-परमाणु-विषाणु

विष्णु हो धारे तुमने।

कोष-वृद्धि कर

'श्री' पाई है।

जल-थल-नभ पर

कीर्ति-पताका

फहराई है।

बन श्रद्धा-विश्वास

व्याप्त हो हर कंकर में।

जननी-जनक देखते हम

गौरी-शंकर में।

पंचतत्व तुम

नाम अनाम।

मेरे पुरखों!

सतत प्रणाम।

*

भूत-अभूत तुम्हीं ने

नाते, बना निभाए।

पैर जमीं पर जमा

धरा को थे छू पाए।

द्वैत दिखा,

अद्वैत-पथ वरा।

कहा प्रकृति ने

मनुज हो खरा।

लड़े, मर-मिटे

असुर और सुर।

मिलकर जिए

किंतु वानर-नर।

सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ

काम करे रहकर निष्काम।

मेरे पुरखों!

विनत प्रणाम।

*

धरा-पुत्र हे!

प्रकृति-मित्र हे!

गही विरासत,

हाय! न हमने।

चूक करी

रौंदा प्रकृति को।

अपनाया मोहक विकृति को।

आम न रहकर

'ख़ास' हो रहे।

नाश बीज का

अपने हाथों आप बो रहे।

खाली हाथों जाना फिर भी

जोड़ मर रहे

विधि है वाम।

मेरे पुरखों!

अगिन प्रणाम।।

*

९५२५१८३२४४

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