नवगीत:
शिरीष
संजीव
.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
शिरीष: एक गीत
आभा सक्सेना
.
जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्ल्वित हुआ है।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
सिंदूरी फूलों से लदकर,
टहनी टहनी गमक रही है।
छटा निराली मन को भाये,
धूप मद भरी लटक रही है।
आओ कवियो तुम सब आओ,
एक नवीन गोष्ठी रचायें।
वृक्ष शिरीष के नीचे हम सब,
एक नयी सी प्रथा बनायें।
गरमी के आने की आहट,
खुद शिरीष ने दे डाली है।
हर रेशा फूलों का कहता,
फिर रंगोली रच डाली है।
जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्लवित हुआ हैं।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
....
मैं शिरीष से मिलाने जाऊँ
कल्पना रामानी
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शिरीष
संजीव
.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध शिरीष के फूल है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.
शिरीष: एक गीत
आभा सक्सेना
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जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्ल्वित हुआ है।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
सिंदूरी फूलों से लदकर,
टहनी टहनी गमक रही है।
छटा निराली मन को भाये,
धूप मद भरी लटक रही है।
आओ कवियो तुम सब आओ,
एक नवीन गोष्ठी रचायें।
वृक्ष शिरीष के नीचे हम सब,
एक नयी सी प्रथा बनायें।
गरमी के आने की आहट,
खुद शिरीष ने दे डाली है।
हर रेशा फूलों का कहता,
फिर रंगोली रच डाली है।
जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्लवित हुआ हैं।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
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मैं शिरीष से मिलाने जाऊँ
कल्पना रामानी
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सोच रही
इस बार गाँव में
मैं शिरीष से मिलने जाऊँ
इस बार गाँव में
मैं शिरीष से मिलने जाऊँ
बाग सघन वो याद अभी तक
पले बढ़े जिसमें ये जातक
जल न जलाशय जब-जब देते
नम पुरवा बन जाती पालक
पले बढ़े जिसमें ये जातक
जल न जलाशय जब-जब देते
नम पुरवा बन जाती पालक
उन केसर
सुकुमार गुलों को
सहलाकर बचपन दोहराऊँ
सुकुमार गुलों को
सहलाकर बचपन दोहराऊँ
ग्रीष्म-काल के अग्निकुंड से
झाँक रही छाया शिरीष की
लहराते गुल अल्प- दिवस ये
अलबेली माया शिरीष की
झाँक रही छाया शिरीष की
लहराते गुल अल्प- दिवस ये
अलबेली माया शिरीष की
कोमल सुमन
बसे नज़रों में, मन
करता फिर नज़र मिलाऊँ
बसे नज़रों में, मन
करता फिर नज़र मिलाऊँ
जेठी-धूप जवान हो रही
तन को बन धारा भिगो रही
ऐसे में कविता शिरीष से
कर शृंगार सुजान हो रही
तन को बन धारा भिगो रही
ऐसे में कविता शिरीष से
कर शृंगार सुजान हो रही
तंग शहर
के ढंग भूल अब
रंग नए कुछ दिन अपनाऊँ
के ढंग भूल अब
रंग नए कुछ दिन अपनाऊँ
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