नवगीत:
संजीव
.
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
जन-मन के मंदिर में
घंटा-ध्वनि होने दो
पथ पाने के लिये
भीड़ में धँस-खोने दो
हँसने की खातिर
मन को जी भर रोने दो
फलना हो तो तूफां में
फसलें बोने दो
माल जपें हुज़ूर
देव-किस्मत को ठगने
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
आशा पर आकाश टंगा
सपने सोने दो
तन धोया अब तलक
तनिक मन भी धोने दो
खोलो खिड़की-द्वार
तिमिर को मत कोने दो
ताले फेंको तोड़
न खुद को शक ढोने दो
अट्टहास कर नाचो
हैं बेमानी नपने
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
संजीव
.
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
जन-मन के मंदिर में
घंटा-ध्वनि होने दो
पथ पाने के लिये
भीड़ में धँस-खोने दो
हँसने की खातिर
मन को जी भर रोने दो
फलना हो तो तूफां में
फसलें बोने दो
माल जपें हुज़ूर
देव-किस्मत को ठगने
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
आशा पर आकाश टंगा
सपने सोने दो
तन धोया अब तलक
तनिक मन भी धोने दो
खोलो खिड़की-द्वार
तिमिर को मत कोने दो
ताले फेंको तोड़
न खुद को शक ढोने दो
अट्टहास कर नाचो
हैं बेमानी नपने
सपने हुए कपूर
गैर भी लगते अपने
.
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