एक कविता : दो कवि
शिखा:
एक मिसरा कहीं अटक गया है
दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के
जो बहती है तुम तक
जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे
और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के
जो बहती है तुम तक
जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे
और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
कई बार सोचा निकाल ही दूँ उसे
तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?
फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके
पर ये भी तो सच है
कि मिसरे पूरे न हों तो
तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?
फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके
पर ये भी तो सच है
कि मिसरे पूरे न हों तो
ग़ज़ल मुकम्मल नहीं होती
संजीव
ग़ज़ल मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को अर्थ देते हैं
गले मिलकर मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें: आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
ग़ज़ल मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को अर्थ देते हैं
गले मिलकर मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें: आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
**
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें