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सोमवार, 31 मई 2021

गीता अध्याय ५ यथार्थ हिंदी रूपांतरण


ॐ कृष्ण चिंतन १५ 
गीता अध्याय ५ : कर्म-सन्यास योग
यथार्थ हिंदी रूपांतरण
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(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६,
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित)
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पार्थ- ''पूर्व सन्यासकर्म हरि!, फिर कह कर्मयोग अच्छा।
अधिक लाभप्रद दोनों में से, एक मुझे कहिए पक्का''।।१।।
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हरि- ''सन्यास- कर्म दोनों ही, मुक्ति राह दिखलाते  हैं । 
किन्तु कर्म सन्यास से अधिक, कर्म योग ही उत्तम  है।।२।।
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जाने वह सदैव सन्यासी, जो न द्वेष या आस करे।
द्विधामुक्त हो बाहुबली! वह, सुख से बंधनमुक्त रहे।।३।।
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सांख्य-योग को भिन्न बताते, कमज्ञानी विद्वान नहीं। 
रहे एक में भी थिर जो वह, दोनों का फल-भोग करे।।४।।
जो सांख्य से मिले जगह वही, मिले योग के  द्वारा भी। 
एक सांख्य को और योग को, जो देखे वह दृष्टि सही।।५।।
है सन्यास महाभुजवाले!, दुखमय बिना योग जानो। 
योगयुक्त मुनि परमेश्वर को, शीघ्र प्राप्त कर लेता है।।६।।
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योगयुक्त शुद्धात्मावाले, आत्मजयी इंद्रियजित जो। 
सब जीवों में परमब्रह्म को, जान कर्म में नहीं बँधे।।७।।
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निश्चय ही कुछ किया न करता, ऐसा सोचे सत-ज्ञानी। 
देखे, सुन, छू, सूँघ, खा, जा, देखे सपना, साँसें ले।।८।।
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बात करे, तज दे, स्वीकारे, चक्षु मूँद ले या देखे। 
इंद्रिय में इन्द्रियाँ तृप्त हों, इस प्रकार जो सोच रहे।।९।।
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करे ब्रह्म-अर्पित कार्यों को, तज आसक्ति रहे करता। 
हो न लिप्त वह कभी पाप में, कमल पत्र ज्यों जल में हो।।१०।।
तन से, मन से, याकि बुद्धि से, या केवल निज इंद्रिय से। 
योगी करते कर्म मोह तज, आत्म-शुद्धि के लिए सदा।।११।।
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युक्त कर्म-परिणाम सभी तज, शांति प्राप्त नैष्ठिक करते।
दूर ईश से भोग कर्म-फल, मोहासक्त बँधे रहते।।१२।।
सब कर्मों को मन से तजकर, रहे सुखी संयमी सदा।
नौ द्वारों के पुर में देही, करता न ही कराता।।१३।।
कर्तापन को नहिं कर्मों को, लोक हेतु प्रभु सृजित करे। 
कर्मफल संयोग न रचते, निज स्वभाव से कार्य करे।।१४।।
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कभी नहीं स्वीकार किसी का, पाप-पुण्य प्रभु करते हैं।
अज्ञान-ढँके ज्ञान की भाँति,  जीव मोहमय रहते हैं।।१५।।
ज्ञान से अज्ञान वह सारा, नष्ट जिसका हो चुका हो।  
ज्ञान उसका प्रकाशित करता, परमेश्वर परमात्मा को।।१६ ।।
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उस मति-आत्मा-मन वाले जन, प्रभुनिष्ठा रख आश्रय ले। 
जाते अपनी मुक्ति राह पर, ज्ञान मिटा सब कल्मष दे।।१७।।
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विद्या तथा विनय पाए जन, ब्राह्मण में गौ-हाथी में।
कुत्ते व चांडाल में ज्ञानी, एक समान दृष्टि रखते।।१८।।
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इस जीवन में सर्गजयी जो, उसका समता में मन रहता। 
है निर्दोष ब्रह्म जैसे वे, सदा ब्रह्म में वह रहता।।१९।।
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नहीं हर्षित सुप्रिय पाकर जो, न विचलित पा अप्रिय को हो। 
अचल बुद्धि संशयविहीन वह, ब्रह्म जान उसमें थिर हो।।२०।।
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बाह्य सुखों से निरासक्त वह, भोगे आत्मा के सुख को। 
ब्रह्म-ध्यान कर मिले ब्रह्म में, मिल भोगे असीम सुख वो।।२१।।
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इंद्रियजन्य भोग दुख के हैं, कारण निश्चय ही सारे।
आदि-अंतयुत हैं कुंतीसुत!, नहीं विवेकी कभी रमे।।२२।।
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है समर्थ वह तन में सह ले, जो तन तजने के पहले।
काम-क्रोध उत्पन्न वेग को, नर योगी वह सुखी रहे।।२३।।
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जो अंतर में सुखी; रमणकर अंतर अंतर्ज्योति भरे।
निश्चय ही वह योगी रमता, परमब्रह्म में मुक्ति वरे।।२४।।
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पाते ब्रह्म-मुक्ति वे ऋषि जो, सब पापों से दूर रहे।
दूर द्वैत से; आत्म-निरत वह, सब जन का कल्याण करे।।२५।।
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काम- क्रोध से मुक्त पुरुष की, मन पर संयमकर्ता की।
निकट समय में ब्रह्म मुक्ति हो, आत्मज्ञान युत सिद्धों की।।२६।।
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इंद्रिय विषयों को कर बाहर, चक्षु भौंह के मध्य करे।
प्राण-अपान वायु सम करके, नाक-अभ्यंतर बिचरे।।२७।।
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संयम इंद्रिय-मन-मति पर कर, योगी मोक्ष परायण हो।
तज इच्छा भय क्रोध सदा जो, निश्चय  सदा मुक्त वह हो।।२८।।
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भोक्ता सारे यज्ञ-तपों का, सब लोकों के देवों का।
उपकारी सब जीवों का, यह जान मुझे वह वरे सदा।।२९।।
७-६-२०२१ 
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