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रविवार, 30 मई 2021

मुक्तिका

: मुक्तिका :मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
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सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
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जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
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मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
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जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
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जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
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सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
३०-५-२०१० 
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