कृष्ण चिंतन गीता अध्याय ३
ॐकृष्णचंद्र की ज्योत्सना, मोह तिमिर को जीत
राधा चंद्रा सह विचर, कहे कर्म ही रीत
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तेजप्रकाश बिखर कहे, मधु रस बृज में व्याप्त
कृष्ण भक्त प्रभु ध्यानकर, कहें भक्ति ही आप्त
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शंभु अमित विश्वास हैं, श्रद्धा उमा अशेष
सरला मति है वर्तिका, कर्म प्रकाश विशेष
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श्रीनिवास हो ह्रदय में, रूप सुदर्शन श्रेष्ठ
मनहर बासन्ती छवि, मिटा सके हर नेष्ठ
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भक्ति प्रियंका अहर्निश, करे ईश का ध्यान
राग द्वेष तज कर्म कर, यह गीता का ज्ञान
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कर्तापन का गर्व तज, तज दे फल आसक्ति
इन्द्रिय-वश कर मननकर, सार्थक कर पुनरुक्ति
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कर्म करें आसक्ति बिन, फल की करें न फ़िक्र
विभा विकीर्ण रहे सतत, पल-पल हो सत जिक्र
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लोक हितों हित कर्म कर, मन में हो संतोष
ग्यानी-ईश्वर भी करें, मोह जगाता रोष
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हो अशोक गिरि सदृश मनु, तजे वासना आप
चंद्र विभा सम तम हरे, करे कृष का जाप
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राजा प्रजा समान हैं, कर्म धर्म लें जान
लोक हितों हित कर्म कर, तज दें निज अभिमान
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कालिंदी मज्जन करे, मिले भक्ति आलोक
तेजप्रकाश तिमिर हरे, मिठे ह्रदय से शोक
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धर्म श्रेष्ठ निज जानिए, भले न हो वह श्रेष्ठ
धर्म गैर का श्रेष्ठ यदि, उसे जानिए नेष्ठ
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कर्म ईश अर्पित करे, तज आशा-अरमान
बंधनकारी हो नहीं, निरासक्ति ही ज्ञान
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कर्म बिन निष्कर्मता, योगनिष्ठ को प्राप्त
कर्म तज पा सिद्धि ले, सांख्यनैष्ठिक आप्त
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रमता आत्मा में रहे, हो आत्मा में तृप्त
नहीं शेष कर्तव्य है, वह नर हो न अतृप्त
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कर्म दोष से मुक्त हो, अगर नहीं आसक्ति
कृपा किरण पा ईश की, मिले जीव को मुक्ति
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चाहे वस्तु-विचार पर, जो अपना स्वामित्व
सुधियों में जी गँवाता, वह मनु अपना स्वत्व
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गुण ही गुण में बरतते, सोच न हो आसक्त
प्रकृति-गुणों पर मुग्ध हो, संत न रहें विरक्त
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दोष दृष्टि से मुक्त हो, श्रद्धायुत हो कर्म
कर्म-फलों से मुक्त हो, यही धर्म का मर्म ३१
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कर्म नहीं उद्देश्य का, जानो अधिक महत्व
लोकहितैषी कर्म ही, जीवन का सत तत्व
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प्रभु छाया में बैठकर, सरला मति कर ध्यान
भक्ति मंजरी चाहते, वे जो हैं मतिमान
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धर्म-अधर्म न चाहकर, सके मनुज से छूट
काम-क्रोध मति भ्रष्ट कर, लेते संयम लूट
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समझें सीमा तब बढ़ें, हम असीम की ओर
कर्म-धर्म की थामकर, अपने कर में डोर
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हैं इन्द्रिय-मन-बुद्धि ही, काम निवासस्थान
आच्छादित हो ज्ञान जब, मोहित जीव न जान
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कर्म करें फल भूलकर, धर्म यही लें जान
धर्म न अपना छोड़िए, कहें कृष्ण भगवान
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पाखी चंदा देखकर, छूने भरे उड़ान
सत्प्रयास की जय कहे, जग करता सम्मान
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मोक्ष न अपना साध्य है, जन-हित जीवन लक्ष्य
निधि आसक्ति न पालना, सहज तभी दुर्लक्ष्य
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अमिता समता शक्ति है, तजें विषमता नित्य
अनिल अनल भू नभ सलिल, पाँचों तत्व अनित्य
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बंधनकारी कर्म वे, जिनमें आग्रह खूब
सुख-दुःखदायी कर्म-फल, पाना होगा डूब
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सुर-नर यज्ञों से जुड़े, आहुति दैवी भोग
यज्ञ न मन से यदि करें, तभी फैलते रोग
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रक्षा करते यज्ञ की, भू पर आ भगवान
नर करते ऋषि कराते, तुष्ट रहें यजमान
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अनासक्त हो कीजिए, कर्म नित्य करणीय
पहरा मन पर बुद्धि का, सलिल सत्य मननीय
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