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रविवार, 30 मई 2021

मुक्तिका दिंडी छंद

मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
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साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
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हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
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हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
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चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
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मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
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न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
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३०.५.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

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