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सोमवार, 24 मई 2021

नवगीत

नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
तन-मन, जग-जीवन झुलसाता काला कूट धुआँ
.
सच का शंकर हँस पी जाता, 
सारा झूट धुआँ....
आशा तरसी, आँखें बरसीं,
श्वासा करती जंग.
गायन कर गीतों का, पाती
हर पल नवल उमंग.
.
रागी अंतस ओढ़े चोला भगवा-जूट धुआँ.....
पंडित हुए प्रवीण, ढाई
आखर से अनजाने.
अर्थ-अनर्थ कर रहे
श्रोता सुनें- नहीं माने.
धर्म-मर्म पर रहा भरोसा, जाता छूट धुआँ.....
.
आस्था-निष्ठा की नीलामी
खुले आम होती.
बेगैरत हँसते हैं, गैरत
सुबह-शाम रोती.
अनजाने-अनचाहे जाता धीरज टूट धुआँ...
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२४-५-२०१० 

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