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बुधवार, 12 अगस्त 2020

विमर्श: बचाओ पर्वत, घाटी, जमीन और सागर

विमर्श: बचाओ  पर्वत, घाटी, जमीन और सागर 
महासागरों का पानी पीने-योग्य मीठा व पौष्टिक होता तो सम्भवतय इंसान पर्वतों को समतल करके गगनचुंबी होटल्स, मोल्स, फ्लैट्स बनाकर नदियों को विलुप्त करवाकर उनकी तलछटी में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बसा चूका होता; महासागरों को गट्टर में बदलकर फेसबुक-युग आने से पहले विलुप्त हो चूका होता! सौभाग्य से महासागरों का पानी खारा और लवणीय है; पीने के योग्य नहीं है;  महासागरों की बदौलत पर्वतों की चोटियों पर जमा हुई बर्फ पिघलकर नदियों के रूप में बहती है और धरती पर जीवन का आधार बनती है! बर्फ पिघलने से बना पानी मीठा तो होता है लेकिन उसमें पौष्टिकता पर्वतों की वनस्पति व पत्थरों से आती है! मीठे-पौष्टिक पानी हेतु पर्वतों व पर्वतों की प्राकृतिक सुन्दरता, रमणीयता व स्वच्छता को सुरक्षित व संरक्षित करना यानी पर्वतों एवं नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण को नियंत्रित रखना अत्यंत ही जरूरी है! जीवन है तो सबकुछ है यानी पर्वतों व नदियों के संरक्षण के सामने हिंदुत्व, इस्लाम, राष्ट्रवाद आदि शब्द महत्वहीन हैं! >>> तथाकथित राजनीतिज्ञ व नेता राजनीति की किताब को ‘राजनीतिक-विज्ञान’ तो कहते हैं, लेकिन राजनीति करते समय ‘विज्ञान’ को भूल जाते हैं! फलस्वरूप राजनीति पर ‘अज्ञानता’ व ‘मूर्खता’ हावी होकर भारतीय-उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य बनकर उभरती है; धूर्तता, पाखण्ड, नौटंकी की बदौलत लोकतंत्र कब्बडी की प्रतियोगिता जैंसा बन गया है; नासमझ भावुक आमजन इस कब्बडी-प्रतियोगिता में चलरही दांव-पेच से मंत्रमुग्ध होकर सबकुछ भूल जाता है: नेताओं के आका पूंजीपति अपना सिट्टा-सेककर साफसुथरी रमणीक जगह पर रैनबसेरा बनाकर ठाठ से रहते हैं! >>> पर्वतों व नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण बढ़ने का ही परिणाम है कि आम-इंसान की औसत प्राकृतिक-आयु 40 वर्ष है, 40 के बाद उसकी औषधीय-आयु शुरू हो जाती है!

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