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शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

शिकार संस्मरण चहला का आदम खोर

शिकार संस्मरण
चहला का आदम खोर
(आगस्टस समरविले की पुस्तक' एट  मिड नाइट कम्स द किलर' से साभार)
अनुवादक - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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              यह वर्ष १९५६ था, माह मई हुए स्थान अब लगभग विस्मृत किया जा चुका मयूरभंज जिले में चहला विश्राम गृह... जब मुझे दक्षिण पूर्व रेलवे बेटनोटी में पी.डब्ल्यू.आई. श्री जॉन अपशॉन का एक पत्र मिला जिसमें मुझे एक आदमखोर की गतिविधियों की सूचना दी गयी थी।  मैं दुविधा में था किन्तु अपशॉन ने अपने पत्र के साथ उड़ीसा सरकार  की घोषणा जिसमें बाघ को आदमखोर तथा उसका शिकार करने पर पुरस्कार देने की घोषणा की गयी थी, की प्रतिलिपि संलग्न की थी। तदनुसार मैंने अपशॉन को तार से सूचित किया कि मैं आ रहा हूँ और उसी रात रुपसा के लिए रवाना होकर अगली सुबह ७ बजे पहुँच गया जहाँ अपशॉन प्लेटफॉर्म पर मेरी प्रतीक्षा करते मिले।               
              अपशॉन १९३० में बनी एक पुरानी फोर्ड कार के भाग्यशाली मालिक हैं। भले ही ऐसा न दिखता हो पर मैं मानता हूँ कि यह शक्तिशाली कर माउंट एवरेस्ट की चीटियों पर भी चढ़ सकती है। बहरहाल हम लगभग एक घंटे में बेटनोटी पहुँच गए जहाँ उनकी खुशमिजाज पत्नी सब कुछ तैयार कर चुकी थीं। एक महत्वपूर्ण छोटी हाजरी (मुलाकात) के बाद हम चहला के पहले पड़ाव बारीपद के लिए रवाना हुए। किसी भीतरी क्षेत्र में जाने के लिए पेट्रोल अपरिहार्य है। हमने जितना संभव था, भरा लिया तथा ४ गैलन अलग से रख लिया। फिर हमने चहला में १४ दिन प्रवास के लिए आवश्यक  सामान लिया और चहला के दूसरे पड़ाव जसईपुर की ओर बढ़ गए। जसईपुर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी, यात्रा और गर्मी के कारण बुरी तरह थक चुके हम चहला के लिए आगे बढ़ने से पहले उस रात डाक बंगले में रुके। बारीपद में वन विभाग ने पुष्टि की कि बाघ ने तीन दिन पहले शिकार किया है और वह चहला डाक बंगले से २० मील की परिधि में शिकार करता है। यह महत्वपूर्ण सूचना थी, अपने पूर्व अनुभवों से मुझे ज्ञात था कि अब वह एक सप्ताह में मारा जानेवाला है। जसईपुर में हमारे पहुँचने की खबर फैलते देर न लगी, अपशॉन सुपरिचित स्थानीय खिलाड़ी था, अत; हमसे मिलने और मदद के प्रस्ताव आने लगे जिन्हें अपशॉन ने विन्रमता किन्तु दृढ़ता से ठुकरा दिया। उसने बताया कि चहला डाक बंगले में कई लोगों के जाने से जानवर शंकित होकर उस क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र जा सकता था। 
              चहला की ओर बढ़ते हुए हम गुड़गुड़िया के खूबसूरत फारेस्ट बंगले में रुके। यहाँ वन विभाग की अधिकांश सालाना बैठकेँ होती हैं, इसलिए कर्मचारी तथा देखरेख बढ़िया है। विश्राम के लिए सुविधाजनक होने के बावजूद हमने चहला जाना तय किया। मुख्य कठिनाई सड़क की स्थिति, पशुओं के आने-जाने से बने निशान, उतार-चढ़ाव, पेड़ों से गिरी शाखाएँ थीं। किसी तरह हम गुड़गुड़िया से ६ मील दूर दोराहे पर पहुँचे जहाँ से बाईं शाखा चहला की ओर थी। हम डाक बंगले पहुँच कर सामान उतार ही रहे थे कि एक गठीले झुर्रीदार इंसान दण्डु ने मुखिया और स्थानीय शिकारी के रूप में अपना परिचय दिया  है। उससे नयी विस्तृत जानकारी मिली। तीन दिन पहले पड़ोस के गाँव का एक लकड़हारा  आदमखोर का शिकार बना था पर उसकी लाश नहीं मिली थी। इसका अर्थ था बाघ ने पूरा शरीर खा लिया या ग्रामीणों ने खोजने का प्रयास ही नहीं किया। 
               हम बहुत थके थे और देर भी हो गयी थी, इसलिए तुरंत कुछ करना संभव न था। विचार विमर्श के बाद हमने वृद्ध ग्रामीण को तीन भैंसे देने के लिए मनाया जिन्हें वह उन स्थानों पर बाँधने के लिए सहमत हो गया जहाँ बाघ आया था। हमें उस पर भरोसा नहीं था इसलिए हमने कालिआ जिसे उपशॉन अपने साथ लाये थे को आदेश पालन करने के लिए साथ भेजा। हमें जैसी शंका थी, वृद्ध ने गाँव पहुँचते ही अपना वायदा भुला दिया और कालिया से कहा कि रात हो जाने के कारण भैंसे बँधवाना संभव नहीं है और अपने झोपड़े में चला गया। व्यक्तिगत प्रयास के बिना कुछ न होते देख हम सवेरा होते ही गाँव पहुँच गए, देखा कि वृद्ध ने आधे मन से कोशिश की और दो मरियल भैंसे बँधवा रखे थे। अपशॉन जो स्थानीय बोली अच्छे से बोलते थे ने कहा 'बाघ हड्डियों के इस ढेर में क्या खाने आएगा?' दण्डु मुस्कुराया और बोला 'साहब आप ठीक कह रहे हैं, बाघ इन बेचारे पानियों को खाने क्यों आएगा जब उसे मोती-ताजी लड़कियाँ खाने को मिल रही हैं। लोग हँस पड़े, मैं भी, पर अपशॉन ने नाराजी से कहा 'दण्डु तुम ठीक कह रहे हो, मुखिया होने के नाते तुम चार मोटी ताजी लड़कियाँ जंगल में बँधवा दो, तुम्हें चार अच्छे भैंसों की कीमत मिल जाएगी।'
               कुछ ग्रामीणों ने दान निपोरे पर डाँट का असर यह हुआ बाघ के शिकार हेतु ४ अच्छे भैंसे मिल गए।   कालिआ ने कुछ ग्रामीणों की सहायता से भैंसों को उन जगहों पर बँधवा दिया जहाँ से रात में बाघ से गुजरने की सूचना मिली थी। हम चुपचाप राह देखने लगे कुछ घटने की। हर सुबह हम भैंसों को दाना-पानी देने जाते और आसपास बाघ के पैर के निशान खोजते। केवल एक जगह बाघ भैंसे के निकट आया, शेष से उसने कुछ दूरी बनाये रखी। ऐसा केवल एक बहुत सजग और अनुभवी बाघ ही करता है। मैंने और उपशॉन ने आसपास के गाँवोंमें जाकर घोषणा की कि बाघ की सुचना देनेवाले को १० रु. ईनाम दिया जायेगा पर कोइ परिणाम न मिला। उपशॉन की छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं और हम निराश हो रहे थे, तभी एक सुबह एक वृद्ध कंकरीली सड़क से होते हुए डाक बंगले के बरामदे में आया, उसके चेहरे पर विस्मय और उत्तेजना के चिन्ह देखकर मैंने अनुमान लगा लिया कि कुछ असामान्य घटा है। उपशॉन ने उत्सुकता से पूछा 'दंडु क्या खबर है?'
               वृद्ध ने साथी की ओर देखकर अपना महत्व जताया और कहा 'साहब! हमने बाघ को पकड़ लिया है।'
               कुछ पल की स्तब्धता के बाद उपशॉन ने पूछा 'कब, कहाँ कैसे?' दंडु ने कुछ न बताते हुए कहा 'आइये और देखिये। "
               तेजी से वृद्ध के पीछे-पीछे जाते हुए मैं निराश था। बाघ भले ही आदमखोर था पर कोई शिकारी पिंजरे में बंद या गड्ढे में पड़े बाघ को मारना नहीं चाहता। इस बीच पहाड़ी पर चढ़ते हुए मुझे पग चिन्ह कुछ कहते लगे। मैं रुकने का आदेश देता तभी दंडु धीरे और चुपचाप बढ़ने का इशारा किया। हम पहाड़ी की चोटी की ओर रेंगते हुए बढ़ने लगे, मैंने देखा कि जंगल घना और पेड़ मोटे होते जा रहे हैं, तब तक हम लगभग ५० गज के समतल में पहुँच गए थे जिसके बीच में तालाब था। मैं आगे बढ़ा ही था कि दंडु कोहनी मारते हुए उल्टी तरफ इशारा करते हुए फुसफुसाया "साहब वहाँ है,  जल्दी मारिये। '
               पेड़ों से छनकर आती हुई मद्धिम रौशनी में मुझे बाघ या भैंसा कुछ नहीं दिखा। उपशॉन भी कुछ नहीं देख पाया जब तक कि हमारे साथ आए एक ग्रामीण ने झुककर एक बड़ा पत्थर पत्तियों के एक गुच्छे की ओर फेंका और समूचे पत्तियों में हलचल मच गयी। मुझे आग लगने से भी इतना विस्मय न होता जितना पत्तियों में अपने पूरे शरीर को छिपाये, भ्रमित करते, गुर्राते  बाघ को घूमकर पेड़ों और झाड़ियों में  गुम होते देखकर हुआ।
               डाक बंगले में लौटने के बाद दंडु ही बातचीत के केंद्र में था। अपने हाथ में चाय का एक प्याला थामे उसने कहा 'साहब, आप मुझे बूढ़ा आदमी समझते हैं पर मेरे पिता और दादा बरसों से इस गाँव में रहे हैं। जब मैं बच्चा था तब मेरे पिता ने बताया था कि जब वह जवान था एक आदमखोर बाघ ने गाँव में तहलका मचा रखा था।  उसने बाघ से पीछा छुड़ाने का जो तरीका अपनाया मैंने उसी को आजमाया। मैंने गांव के बच्चों से साल पेड़ की हजारों पत्तियां इकट्ठी कराईं, उनका बंडल बनाया और लकड़हारों की मदद से पीपल के पेड़ से निकलने वाला द्रव इकठ्ठा कर पानी में उबाल कर चिपचिपा 'लस्सा' बनाया, आम तौर पर हम चिड़िया पकड़ने के लिए इसका उपयोग करते हैं। मैंने तालाब के आस पास के झाड़ों में दो-दो पत्तों में लस्सा लगा कर उन्हें चिपका दिया ताकि लस्सा सूख न सके। फिर मैं उस तालाब तक गया, जहाँ आप को ले गया था। यह कई मीलों के जंगल में एकमात्र जगह है जहाँ पानी है। एक सुबह मैं कुछ साथियों के साथ वहाँ गया।  मुझे भरोसा था कि जल्दी या देर से बाघ पानी पीने वहाँ आएगा ही। हमने तालाब के आसपास पड़ी पत्तियाँ बटोरीं और उनकी जगह तालाब के चरों ओर लगभग ३० फुट की चौड़ाई में तैयार की गयी पत्तियाँ लगा दीं। दो रात मैं पेड़ पर छिपा रहा। तीसरी रात बाघ आया और पानी की और जाने लगा। पहले उसे पता नहीं चला कि पत्तियाँ उसके पंजों से चिपक रही हैं लेकिन जैसे-जैसे वह पानी के निकट आया पत्तियों के कारण उसे गुस्सा आने लगा और वह पत्तियों को छुड़ाने की कोशिश करने लगा। असफल होने पर वह बैठ गया और दाँतों से उन्हें खींचने लगा, पत्तियाँ उसके होंठों और मुँह से चिपकने लगीं और जब वह उठा तो उसका शरीर पत्तियों का ढेर बन गया था। अंत में पत्तियाँ छुड़ाने के लिए थककर वह जमीन पर लोटने लगा। तुरंत ही वह पत्तियों का ढेर बन गया, जैसे जैसे वह लोटता गया, पत्तियाँ अधिक से अधिक चिपकती गयीं। आखिर में शेर दिखना ही बंद हो गया। तब मैं पेड़ से उतरा और सीधे डाक बंगले की ओर दौड़ लगा दी पर आप लोगों ने देर कर दी और मेरी हिकमत और मेहनत पर पानी फिर गया।
                हमने उसे सांत्वना दी कि अब बाघ उसके गाँव की ओर मुँह भी नहीं करेगा और उस शाम हम बेतनोती लौट आये। पूरा घटनाक्रम परिणामहीन था और हम अपनी भूमिका से बहुत असंतुष्ट थे। जब तक उपशॉन पत्तियों का नया ढेर लेकर नहीं आ गए, मैं चैन से नहीं बैठ सका और तब हम चहला आ गए। दस दिन हो चुके थे और अब पूर्णिमा की चाँदनी रात थी। उस क्षेत्र में दूर दूर तक पानी का अन्य स्रोत न होने को ध्यान में रखकर मचान बनाया गया जहाँ से पूरा तालाब साफ़-साफ़ दिखता रहे। हमने हर रात वहाँ बैठने का फैसला किया ताकि ग्रामीणों का खोया आत्मविश्वास वापस आ सके। एक सप्ताह तक हम असफल रहे।  एक शाम हम बहार बैठे थे, तभी एक ग्रामीण दौड़ता हुआ डाक बँगले में आया और बताया कि शाम को एक लकड़हारे को बाघ ने हमला कर मार डाला है। एक पल की भी देरी किये बिना हम ग्रामीण द्वारा बताई दिशा में रवाना हो गए। गाँव पहुँचने पर पता चला कि लकड़हारे की अधखाई लाश का स्वजनों ने दाह संस्कार कर दिया था। हमारे करने के लिए कुछ नहीं बचा था, हम लौट आये और उस रात तालाब के पास मचान पर बैठे, हम सुनिश्चित थे कि बाघ इसी क्षेत्र में है। मैं उस रात को अब भी याद कर सकता हूँ, चरों और अच्छे से दिखाई दे रहा था, गर्मी चरम पर थी, हमारे नीचे जलाये गए जंगल से आती गर्म हवा और मच्छर हमारा बैठना मुश्किल बना रहे थे। आधी रात के करीब जब चन्द्रमा हमारे सर पर रौशणि बिखेर रहा था, मुझे बाघ की उपस्थ्ति की अनुभूति हुई। मैं उसे आते हुए देख या सुन नहीं सका, पेड़ों की पत्तियों के चरमराने की आवाज तेज थी, मुझे लगा कोई जानवर मेरे निकट आने का प्रयास कर रहा है। मैं अपनी बंदूक थामे बिना हिले-डुले तालाब को देखता रहा। उपशॉन और मैं दो विरुद्ध दिशों में बैठे थे और हमने तय किया था कि बाघ जिस भी दिशा से आये, उसके समीप वाली बंदूक से गोली दागी जाए। अब मैं आपको जो दृश्य बताने जा रहा हूँ उससे आपके श्वास रुकने की सी हालत हो जाएगी। क्षणिक प्रतिक्रिया से स्पष्ट था कि बाघ का उत्सुकतापूर्ण व्यवहार सतर्कता और अनुभव का परिणाम था। मेरी सोच सही थी। कुछ सेकेण्ड बाद रोशनी की लकीर में बाघ और तालाब दिखा और उपशॉन ने गोली दाग दी। शेर गुर्राया गोली की आवाज़ के साथ ही और उसने मेरे मचान की और दौड़ा। मैं तैयार था, जैसे ही वह मेरी बंदूक की पहुँच में आया, मैंने बंदूक से गोली दागी और संतुष्टि के साथ उसे पुट्ठों के बल गिरते देखा। एक क्षण बाद उसने अपने पैरों पर उठने और आश्रय के लिए जंगल की ओर जाने की जद्दोजहद की और शांत हो गया।  उपशॉन ने आवाज़ लगाकर पूछा कि क्या हम बाघ का पीछा करें? मैंने उसे सवेरा होने तक रुकने को कहा। बाद में मैंने कई सहकारियों के संस्मरण पढ़े जिनमें उन्होंने गोली चलने के तुरंत बाद खून  के सहारे टोर्च लेकर जानवर का पीछा कर उसकी आँखों में बुझती ज्योति देखने और खोपड़ी में गोली मारने का उल्लेख किया है पर मैं इस मामले में बहुत सुरक्षावादी हूँ। उपशॉन को पौ फटने तक राह देखनी पड़ी और सवेरा होने पर मैंने उपशॉन को आवाज़ दी। हमारी तलाश छोटी थी। जंगल में कुछ फुट घुसने पर ही बाघ की लाश पड़ी थी। दोनों गोलियाँ कारगर थीं। उपशॉन की गोली बाएं कंधे के नीचे लगी थी जो फेफड़ा छेड़ते हुए बहार निकल गयी थी। मेरी गोली बिलकुल सही निशाने पर लगी जो किडनी में घुस गयी थी जिसके कारन बाघ तुरंत ही गिर गया था जिसके कारण हमें खोजने में श्रम नहीं करना पड़ा।
यह एक शानदार ९ फुट ३ इंच लंबा नर बाघ था, जिसे कोइ चोट या घाव नहीं लगा था। मेरा मत है कि उसकी आदमखोर वृत्ति मनुष्य का शिकार सहज होने और जंगल कटने के कारण प्राकृतिक पशु शिकार उपलब्ध न हो पाने से उपजी थी।
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