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शनिवार, 22 अगस्त 2020

पुरोवाक : सीप के मोती - सुनीता सिंह

पुरोवाक : 
दोहा दुनिया सँजोती 'सीप के मोती' 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुण माता सरसत्ति
विनय करीं इ वीनवुं, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरसुरों की स्वामिनी, सुनिए शारद मात
विनय करूँ सिर नवा- दो, निर्मल मति सौगात 
संवत १६७७ में रचित 'ढोला मारू दा  दूहा' से अपभृंश का यह दोहा, दोहा की दो हजार वर्ष से अधिक की रचना यात्रा का साक्षी है।
छंद का उद्गम और महत्त्व : 
नाद, ध्वनि, उच्चार का प्रयोग कर लोक 'वर्ण' और 'शब्द' को जन्म देता है। स्मृति -सुरक्षित शब्द विन्यास का समुच्चय, संकेतों का आश्रय पाकर 'लिपि' बनते हैं। पटल, कलम और स्याही का उपयोग कर लोक अपनी अनुभूतियोंको अभिव्यक्त कर 'भाषा' को जन्म देता है। लोक भाषा, लय और गति-यति में रच-पग कर समतुकांत पंक्तियों को जोड़कर 'छंद' का रूप दे देती है। 'छन्दासि छाद्नात्' अर्थात छंद वह है जो 'छा' जाता है। जिस तरह अलस्सुबह बालारुण की किरणें वसुधा  पर छा जाती हैं, कूकती हुई कोयल या चहकती हुई चिड़िया का कलरव वातावरण को रस सिक्त कर देता है वैसे ही छंद भी कहे जाने पर वातावरण में रस घोल देता है। इसकी प्रतीति ग्राम्यांचल में सहज ही की जा सकती है। बीज बुआई, खेत तकाई, फसल कटाई अथवा पर्व-त्योहारों में गीत गाते ग्राम्य स्त्री-पुरुषों के कंठों से गीत पंक्तियाँ निर्झर से गिरते-बहते सलिल-प्रवाह से उपजे कलकल नाद की तरह मन-प्राण पर छा कर आनंदित करती है।
छंद की अलौकिकता तथा महत्व पर छांदग्योपनिषद प्रपाठक १, अध्याय १,, खंड ४, प्रवाक् २ से  ५ तथा प्रपाठक १ खंड ७ में विस्तृत चर्चा हुई है। ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय १, खंड ५, अध्यय २-खंड ३ तथा शतपथ ब्राह्मण के १३/४/१/१३२ व १३/५/४/२८ में छंद का माहात्म्य वर्णित है। वैदिक कथा है की एक बार देवताओं पर मृत्यु ने आक्रमण कर दिया, बचन ेके लिए देवताओं ने स्वयं को छंदों (मंत्रों) से आवृत्त कर लिया। तब से आच्छादन का साधन बने मंत्रों की संज्ञा छंद हो गयी -
"देवा वै मृतयोर्विभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविन्स्ते, 
छंदेभिरच्छादयन्यदेभिच्छदयंस्तच्छन्दसा छंदस्त्वं।" -छांदग्योपनिषद प्रपाठक , खन्ड , प्रवाक् २, पृष्ठ ३५।
छंदाश्रय पाकर देवों के अमर होने और स्वर्गलोक पाने की कथा ऐतरेय ब्राह्मण में भी वर्णित है -
सर्वे वाई छन्दोभिरिष्ट्वा देवा: स्वर्गलोकं श्रयति" - ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय २, खंड ३, पृष्ठ ६७। 
पौर्वात्य वांग्मय में कविता का आदि रूप वेद हैं। किसी से मिलने, उसका परिचय पाने के लिए पैरों पर चलकर जाना होता है। वेदों के दिव्य ज्ञान से अभिन्न होना है तो छंद ही एक मात्र माध्यम है, इस अर्थ में छंद को वेदों का पैर कहा गया है - "छंद: पादौ तु वेदस्य" - पाणिनीय शिक्षा श्लोक ४। 
वृहत हिंदी कोश पृष्ठ ३९० के अनुसार पुल्लिंग संज्ञा 'छंद' का अर्थ अभिलाष, नियंत्रण, वश्यता, रूचि, अभिप्राय, विष, शकल-सूरत,प्रसन्नता, कलाई पर पहनने का एक गहना, स्वेच्छाचार, धोखा, छल, वेद, मात्रा, वर्ण-मात्रा यदि आदि के नियमों से युक्त वाक्य या पद्मात्मक रचना है। नालंदा विशाल शब्द सागर पृष्ठ ३१६ में छंद का अर्थ इच्छा या अभिलाषा है। महाकवि सुमित्रनंदन पंत के अनुसार "कविता तथा छंद के बीच बड़ा घनिष्ठ संबंध है, कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छंद हृतकंपन, कविता का स्वभाव ही छंद में लयमान होना है।" (उद्धरण कोष पृष्ठ २३०)। 
पौर्वात्य ही नहीं पाश्चात्य कवि समीक्षकों ने भी छंद को कविता का अनिवार्य गुण स्वीकार किया है। हर्ड के मत में "काव्य के संपूर्ण आनंद के लिए छंद आवश्यक है। बिना इस तत्व के काव्य को सुनने का आनंद जाता रहता है।" (उद्धरण कोष पृष्ठ २२१)। प्रख्यात कवि कॉलरिज के शब्दों में "मैं छंद का प्रयोग इसलिए करता हूँ कि  गद्य न लिखकर काव्य की रचना कर रहा हूँ। बिना छंद के काव्य असंपूर्ण रहता है। यही धरना संसार के महान से महान  कवियों की रही है।"(उद्धरण कोष पृष्ठ २२१)।
लघु-गुरु उच्चार (सिलेबल्स) जिन्हें लिपिबद्ध होने पर 'मात्रा' के रूप में पहचाना जाता है, का समुच्चय 'ध्वनि खंड' (रुक्न) को जन्म देता है। एक या अधिक ध्वनि खण्डों का संयोजन अथवा आवृत्ति 'छंद' (बह्र) कही जाती है। वस्तुत: छंद वाक् से निःसृत होने के कारण वाचिक तथा लोक में विकसित होने के कारण 'लौकिक' होता है। वेदों के सृजन में प्रयुक्त छंदों को 'वैदिक' छंद कहा गया है। 
छंद रचना में वर्ण या अक्षर (ध्वनि का लिपिबद्ध रूप) का प्रयोग किया जाता है। ३-३ वर्णों के ८ समुच्चय गण (मूलत: ध्वनि खंड) कहे गए हैं। वर्ण संख्या के आधार पर निर्मित ध्वनि खण्डों का प्रयोग कर रचे गए छंद 'वार्णिक छंद' कहे जाते हैं। वर्णों के लघु-दीर्घ (गुरु) उच्चार में लगा समय को 'मात्रा' है। मात्रा गणना के आधार पर रचित छंद 'मात्रिक छंद' कहे जाते हैं। एक श्वास में पढ़ी जा सकनेवाली काव्य पंक्तियों से निर्मित छंदों की वर्ण संख्या या मात्रा संख्या के आधार पर उनकी 'जाति' का निर्धारण किया गया है। एक ही जाति के छंदों में गति-यति व तुकांत के आधार पर विविध छंदों को अलग-अलग नाम दिए गए हैं। 
दोहा :
दोहा का परिचय देते हुए डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' लिखते हैं- "मैं दोहा हूँ। भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण और रस मेरी आत्मा है। कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा ह्रदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है। प्रथम-तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय-चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं।"  - नावक के तीर 
दोहा सूक्ष्म-विराट का, सरस लोकप्रिय मेल 
भाव बिंब लय अर्थमय, गति यति मति का खेल 
दोहा मोती सीप में, सिंधु बिंदु में जान 
गागर में सागर भरे, पढ़कर बन रसखान 
'सीप के मोती' के तरह दोहा भी प्रथम दृष्टया बहुत सहज, सरल, सामान्य दिखता है पर जैसे-जैसे दोहा में डूबें और उसका रसपान करें वैसे-वैसे दोहा साधारणता में असाधारणता की प्रतीति कराता है। 'गूँगे के गुण' की तरह दोहा रसानंद ही नहीं, घनानंद भी लुटाता है। दोहा आप तो रस-निधि है ही, पाठक-श्रोता को भी रस-लीन कर रस-खान बना देता है।
जिन छंदों के सब चरण (पंक्ति या पद का अंश) समान मात्रा भार के हों उन्हें सम मात्रिक छंद कहा जाता है। जिन छंदों में विविध चरणों का मात्रा भर भिन्न-भिन्न हो उन्हें विषम मात्रिक छंद कहा जाता है। जिन छंदों के विषम चरण समान मात्रा भार के हों तथा सम चरण भिन्न समान मात्रा भार के हों उन्हें अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) होती हैं, प्रत्येक में दो चरण (सम-विषम) होते हैं। इसलिये दोहा आरंभ में दोपदी भी कहा गया है।
दोहा दूहा दोहड़ा, द्विपदिक दोग्धक नाम
साखी बानी बन अमर, दोहा छंद ललाम  
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसके विषम चरणों में १३-१३ तथा सम चरणों में ११-११ मात्राएँ होती हैं। दोहा का पदांत गुरु लघु होना अनिवार्य है।
दो पद सुख-दुःख रात-दिन, चरण चतुर्युग चार
तेरह-ग्यारह विषम सम दोहा विधि अनुसार
विषम चरण के आदि में,  जगण विवर्जित मीत
दो शब्दों में मान्य है, दोहा की शुभ रीत
विषम चरण के अंत में, सनर सके रस घोल
समचरणांत जतन रहे, दोहा हो अनमोल
दोहा अमिधा, व्यंजना तथा लक्षणा का उपयोग कर 'सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय' के आदर्श का पालन करता है। दोहा लय प्रधान छंद है। अशिक्षित कबीरदास हों या सुशिक्षित तुलसीदास  दोहा दोनों के सृजन की जान है। दोहा की लय साधने का सरल सूत्र है -
त्रिकल त्रिकल के बाद हो, चौकल चौकल बाद
रस-लय बिम्ब प्रतीक युत, दोहा है नाबाद
दोहा के प्रकार
दो पदों के अंत में गुरु लघु अनिवार्य होने के कारण ४८ मात्रिक दोहा की शेष ४२ मात्राओं में एक से २१ गुरु वर्ण का उपयोग करने पर २१ प्रकार के दोहा छंद बनते हैं।
दोहा के इक्कीस हैं, ललित-ललाम प्रकार
लघु-गुरु की घट-बढ़ करे, दोहा का श्रृंगार
रखें चार-छः लघु सदा, भ्रमर-सुभ्रामर छाँट
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ
बारह लघु मंडूक में, चौदह मरकत हर
सोलह लघु हैं करभ में, लिये अठारह नर
हंस बीस लघु से बने, बाइस लिए गयंद
लघु चौबिस ले पयोधर, बल छब्बीस अमंद
वानर अट्ठाइस लघु, तीस त्रिकल के साथ
बत्तिस कच्छप संग हैं, चौंतिस मच्छ सनाथ
छत्तिस लघु शार्दूल में, अड़तिस शर वाचाल
चालिस लघु हैं व्याल में, ब्यालिस लिए विडाल
श्वान चवालिस लघु लिए, दो गुरु रखता लीक 
उदर छियालिस एक गुरु, गुरु बिन सर्प न ठीक
तेईस-चौबिस गुरु नहीं, दोहा को स्वीकार्य
लघुता बिन प्रभुता कहाँ, बंधन है अनिवार्य
लगभग दो सहस्त्र वर्ष की रचना यात्रा में दोहे ने अनेक पड़ाव तय किये हैं। सरह, देवसेन, हेमचंद्र, चंद बरदाई, बाबा फरीद शकरगंज, सोमप्रभ सूरि, खुसरो, कबीर, तुलसी, रत्नावली, रहीम, रसखान, बिहारी, रसनिधि, मतिराम, वृन्द, रसलीन, हीरालाल राय, विक्रम, राम, हरिऔध, वियोगी हरि, दुलारेलाल भार्गव, नवीन, राजाराम शुक्ल, राधावल्लभ पांडेय, दीनानाथ 'अशंक', बौखल, दिनेश, दिव्य, करुण,  'अनंत', इंद्र, विराट, अंजुम, आदि असंख्य दोहाकार अपनी समिधा दोहा दरबार में प्रस्तुत कर चुके हैं। अनेक दोहा संकलन भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें सप्तपदी संपादक डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' , नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार संपादक अशोक अंजुम, दोहा शतक मंजूषा संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समकालीन दोहा कोष संपादक हरेराम 'समीप', दोहा संदर्भ संपादक कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' व डॉ. महेश दिवाकर आदि महत्वपूर्ण हैं। कई पत्रिकाओं ने दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं। अंतरजाल ने दोहा सृजन माल में अनेक पुष्प जोड़े हैं। हिन्द युग्म, साहित्य शिल्पी, दिव्य नर्मदा आदि ब्लॉग, दोहा सलिला, दोहा दर्पण, दोहा प्रसंग आदि फेसबुक पृष्ठ, वॉट्सऐप पर कई समूह दोहा को केंद्र में रखकर सक्रिय हैं। 
दोहा की विविधता पहेली दोहा, प्रश्नोत्तरी दोहा, एकाक्षरी दोहा, दोअक्षरी दोहा, चित्र दोहा, नीति दोहा, आदि में भी दृष्टव्य है। इन सभी प्रकार के दोहे मैंने रचे हैं। दोहा केवल छंद रूप में उपयोगी नहीं हैं। मैंने लगभग ३ दशक  पूर्व दोहा गीत, दोहा मुक्तक, दोहा ग़ज़ल आदि की रचना कर अभिनव प्रयोग प्रथमत: किये जिन्हें बाद में कई दोहाकारों ने अपनाया। दोहा की सर्वप्रियता का आलम यह है कि संस्कृत, अपभृंश, प्राकृत, अंगिका, अंग्रेजी, अवधी, कन्नौजी, गढ़वाली, गुजराती, छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी, पंजाबी, पछेली, बघेली, बज्जिका, बृज, बुंदेली, भोजपुरी, मगही, मराठी, मालवी, मैथली, राजस्थानी, सरायकी, सिंधी, हरयाणवी आदि भाषा-बोलियों में भी दोहा रचा गया है। दोहा हिंदी के दस रसों और ८० अलंकारों पर भी अपनी सत्ता स्थापित कर चुका है। साहित्यिक समस्या पूर्ति और चित्र पर रचना करने के लिए भी दोहे का उपयोग किया गया है।
साहित्य ही नहीं अभियांत्रिकी, वास्तु, आयुर्वेद, पर्यटन, पुरातत्व, वानिकी, सहकारिता, दर्शन शास्त्र, समाज शास्त्र आदि विविध साहित्येतर विषयों में भी दोहा पैठ गया है। दोहा लोकोक्तियों और कहावतों का भी हिस्सा है। चलचित्र जगत में भी दोहा-पताका खूब फहराई गयी है।  'अँखियों के झरोखे से' में सचिन-रंजीता की दोहा गायन प्रतियोगिता कौन भूल सकता है?
दोहा की प्रगल्भता, लाक्षणिकता, मार्मिकता और लोक प्रियता उसे उर्दू शेर के आगे ले जाती है। शेर की पहुँच अल्पशिक्षित श्रमिक वर्ग में कम है पर दोहा खास से लेकर आम तक सहजता से पहुँच सका है।
दोहा की उर्वर पृष्ठभूमि ने हर देश-काल में युवाओं को आकर्षित किया है। शाने-अवध लखनऊ में रचनाकर्म में निमग्न सुनीता सिंह उच्च पदस्थ शासकीय अधिकारी होते हुए भी गुरुतर दायित्व का यथाविधि निर्वहन करते हुए भी हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में अकुंठ सृजन-सलिला प्रवाहित कर रही हैं। गोमती-सरयू के तटों पर भारतीय सभ्यता, संस्कृति और साहित्य की अविकल प्रवाहित हो रही त्रिवेणी में अनगिन लहरें और अनेक पद्म पुष्प होना स्वाभाविक है। ऐसा ही एक कमल कुसुम हैं सुनीता। सुनीता की सृजन-सुरभि क्रमश: फ़ैल रही है।सीप के मोती में सुनीता का दोहाकार साहित्य सरोवर के रसिक भ्रमरों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है। इसके पूर्व ३ काव्य संग्रह सूर्य मंजरी , काल चक्र को चलने दो व् नवजीवन, बाल कविता संग्रह हम बच्चे नन्हें-मुन्ने। लघुकथा संग्रह अविरल तथा अंग्रेजी कविता संग्रह मिस्टिका के सृजन हेतु चर्चित रह चुकी सुनीता नवगीत तथा ऐतिहासिक कहानी के क्षेत्र में भी हाथ आजमा रही हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा 'सीप के मोती' शीर्षक से अपनी दोहा दुनिया में पाठकों को प्रवेश दे रही है। 
आस्थावादी दोहाकार ने सनातन परंपरा का अनुपालन करते हुए धार्मिक दोहे शीर्षक के अंतर्गत ईश वंदना के दोहे प्रस्तुत किये हैं। सुनीता परम शक्ति के प्रति शृद्ध रखती हैं, अंध श्रद्धा नहीं। वे परमशक्ति के साकार और निराकार दोनों रूपों की उपासक हैं। निर्गुण-सगुण के समन्वय की झलक आरंभिक दो दोहों में दृष्टव्य है- 
जिसको होकर मौन मन, देता है आवाज। 
सुन न रहा वह क्यों भला, उलझा है किस काज।।
दोहाकार ईश्वर का नाम न लेकर भी यह प्रतीति करा सकी है की वह किससे संबोधित है। परमपिता से संबोधित होती सुनीता का स्वर सूरदासी दीनता, या मीराई प्रार्थना का नहीं है। यह स्वर एक सुशिक्षित, आत्मनिर्भर, आत्म विश्वासी नारी का है। इसमें परमप्रभु से भी प्रश्न करने का साहस है। यह साहस कहाँ से उपजता है? इसका उत्तर देता है अगला दोहा- 
गौरा गणपति पूजिए, मन से निकले गीत। 
बल जब मिलता भक्ति का, तब जाता तम बीत।। 
भक्ति का बल भक्त को आराध्य से पूछने की शक्ति देता है। तुलसी कहते हैं 'राम ते अधिक राम कर दासा' यह भक्त की नहीं भक्ति की शक्ति है जो तुलसी से कहलवाती है 'तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष-बाण लो हाथ'। भक्ति की शक्ति का स्रोत वह प्रभु ही है- 
मन में पावन भाव से, होता बल संचार। 
शुभाशीष तब मातु का, बरसे बारंबार।। 
शिवा का आशीष साथ हो तो शिव को सदय होना ही होगा। प्रभु के धाम की राज मस्तक पर लगाकर भक्त धन्य हो जाता है- 
मंदिर अद्भुत प्रेम का, संग राधिका-श्याम। 
वृन्दावन-रज माथ रख, ह्रदय हुआ प्रभुधाम।। 
सुनीता का शब्द भंडार समृद्ध है। वे अल्पप्रचलित शब्दों को सही अर्थ में इस तरह प्रयोग करती हैं कि पाठक उसका अर्थ शब्दकोष में देखे बिना अनुमान लगा ले- 
गिरिधन्वा गिरिप्रिय करो, शूल समूल विनाश। 
भुजंगभूषण सर्व हरि, काटो माया-पाश।।
चंचल चितवन चाँदनी, चुलबुल चंद्र चकोर।  
चुन-चुन चीनी चाशनी, चहके चित-चितचोर।।
मधुर-मधुर मधुमालती, मंद-मंद मकरंद। 
मूक मौन मन मोहते, गुल गुलाब गुलकंद।।   
यहाँ अनुप्रास अलंकार और श्रृंगार रस का सौंदर्य भी दर्शनीय है। 
सुनीता शब्दों का नवप्रयोग भी कर सकी हैं। 'कवच' सर्वश्रुत शब्द है, वे कवचधारी के स्थान पर 'कवची' का प्रयोग करती हैं -
सुरसूदन कवची कहो, कहाँ तुम्हारा धाम। 
बहुत दूर कैलाश प्रभु, मुश्किल राह तमाम।। 
लोकोक्तियाँ और मुहावरे चिरकाल से प्रचलित साहित्यिक-सामाजिक विरासत है। जहाँ नई पीढ़ी इनसे दूर जा रही हैं, वहीं सुनीता अपनी लीक आप बनाते हुए मुअहवरों को गले लगा रही हैं। मुहावरों को उनकी अर्थवत्ता बनाये रखते हुए दोहे में प्रयोग करना आसान नहीं है। सुनीता एक नहीं दो-दो मुहावरों को एक ही दोहे में खूबसूरती से प्रयोग कर सकी हैं- 
इक अनार बीमार सौ, एक पंथ दो काज। 
एक सहारा ईश का, रख दे कब सर ताज।।
प्रेरणात्मक दोहे अध्याय में नीति परक दोहे अपनी सुषमा बिखेर रहे हैं। एक दोहा देखें- 
लीक तोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत। 
लीक लीक तीनों चलें, कायर स्यार कपूत।। 
सुनीता अपनी राह आप बनाने का संकल्प व्यक्त करती हैं-
मन लेता संकल्प यह, देख जगत-व्यवहार। 
गढ़ना निज पथ आप ही, चाहे जो प्रतिकार।। 
शैली की काव्य पंक्ति है- ''अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर डोज विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.'' शैलेन्द्र इसी भाव को अपने तरीके से कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के स्वर में गाते हैं''। सुनीता पीड़ा को वीणा बनाकर दर्द के गीत छेड़ने हेतु तत्पर हैं- 
पीड़ा को वीणा बना, छेड़ दर्द के गीत। 
कर आँसू की बारिशें, मन रच दे संगीत।।
लोकोक्ति है 'जैसी करनी, वैसी भरनी', जैसा बोया, वैसा काटो' इसी को अंग्रेजी में 'As you sowso shall you reap' कह कर व्यक्त किया गया है। सुनीता ने 'साधना' और 'प्रारब्ध' के साथ सम्बद्ध कर इस भाव को अधिक उदात्त बनाया है -
जैसी होती साधना, वैसा ही प्रारब्ध। 
शुभ मिलता शुभ कर्म से, विपरीत करे स्तब्ध।। 
एक पारम्परिक दोहा देखिए-
होनी तो होकर रहें अनहोनी ना होय। 
जाको राखे साइयाँ, मार सके नहिं कोय।। 
इस भाव को सुनीता ने वर्तमान के साथ जोड़ते हुए 'माँगन मरन समान है, मत माँगों कोइ भीख' के भाव के साथ सफलतापूर्वक संबद्ध किया है- 
जो होना होकर रहे, उदय या कि अवसान। 
मिलता माँगे से नहीं, सदा रहे यह ध्यान।। 
भारतीय संविधान नागरिक अधिकार के रूप में  विधि के समक्ष सबको समान मानता है। उच्च संवैधानिक पद पर कार्यरत सुनीता की इन मूल्यों में अगाध आस्था होना स्वाभाविक है -
धर्म-कर्म के नाम पर, नफरत को मत तोल।
रचा ईश ने सब जगत, हर मानव अनमोल।।
हर मानव अनमोल है, ऊँच न कोई नीच। 
चाह कमल को तू अगर, भूल न उद्गम कीच।।
मैथिलीशरण गुप्त पंचवटी में लिखते हैं- 
जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला।  
गौरव गंध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।।
सुनीता की अनुभूति है-
जब घेरे तम तब जला, दैविक अंतर-दीप। 
मिल जाएगी राह मन, बन जायेगा सीप।। 
बढ़ते पग यदि धुंध में, मिल जाती है राह। 
बाधा मुश्किल आपदा, लें हिम्मत की थाह।। 
तुलसी कहते हैं - 'कर्म प्रधान बिस्व करि रखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा'। कृष्ण गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' का मर उपदेश देते हैं। सुनीता की रग-रग में कर्म के प्रति अगाध श्रद्धा है।'सीख तैरना यत्न कर' -१८६,  'कर्म करें रह मौन' -२१७, 'बन निज जीवन सारथी'- २२१ आदि में सुनीता कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित करती हैं। 
'एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय' की विरासत को सुनीता ने बखूबी गहा और कहा है - 'मन साधे सब सध चले' - २१८, 'होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय' की अनुभूति की सुनीता के अंदाज में अदायगी देखें - 'अनहोनी कब हो भला, बस होनी हो मीत' - १७४। 
'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात /  मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' सुभाषित को सुनीता ने आत्मसात कर बयां किया है-
कब कैसे क्या बोलना?, रहे कला यह पास। 
मीठी वाणी से मिले पतझड़ में मधुमास।। 
'धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपत काल परिखहहिं चारी' तुलसीदास की इस पंक्ति में छिपा अर्थ सुनीता ने आत्मसात किया है। वह कहती हैं- 'धीरज से ही पार हो कठिन काल का चक्र।'
'रहिमन बिपदा हूँ भली, जो थोड़े दिन होय' से भिन्न प्रतीति है सुनीता की -
मुश्किल जितनी अधिक हो, उतना निखरे आज। 
सुनीता के दोहों में यत्र-तत्र दामिनी सी चमकती है जो उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है- 
जीवन मूरत गढ़ रही, कुदरत संगतराश। 
टूटन-फूटन पीर से, होना नहीं निराश।।'
तबला ढोलक बाँसुरी, वीणा झांझ सितार। 
सारंगी या शंख सब, भर दें हिय झंकार।।
प्रकृति पर दोहे शीर्षक के अंतर्गत सुनीता का दोहाकार अपनी कुशलता की छाप छोड़ता है। प्रकृति को भारतीय दर्शन माता कहकर पूजता है, उसका शोषण नहीं करता। 
हारा मन जा बैठता, जब कुदरत के पास। 
पता वापस जोश फिर, भर लाता है आस।।
मंद-मंद मकरंद की, मोहक मधुर मिठास।                 
श्रृंगारिक मधुमास में, घोल रही उल्लास।।
पर्यावरण प्रदूषण की विकराल समस्या से चेताती हैं सुनीता- 
चेत अभी भी जाइये, बचा रहे संसार। 
भावी पीढ़ी को मिले संसाधन अभिसार।। 
'सीप के मोती' के दोहे अनेकता में एकता के प्रतीक हैं। इनमें अतीत से मिली साझा विरासत, संविधान प्रदत्त कर्त्व्याधिकार, मानव मन की विडंबना, श्रमिकों के प्रति सद्भाव, शृंगार और करुणा सभी कुछ है। इन दोहों में शल्प पर कथ्य को वरीयता दी गयी है। दोहों की भाषा कथ्यानुरूप अमिधा, व्यंजना व लक्षणा से युक्त है। शब्द -चयन कथ्यानुरूप है। यदा-कदा लोक रंग बिखरे हैं।  पाठकों को ये दोहे पसद आएंगे और सुधिजनों द्वारा भी सराहे जायेंगे। सुनीता की सृजन साधना भविष्य में कई पड़ाव पार करने की सामर्थ्य रखती है। 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   

   

  

  
   
 
  

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