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सोमवार, 24 अगस्त 2020

निमाड़ी सलिला हमारा निमाड़

निमाड़ी सलिला 
हमारा निमाड़ 
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निमाड़ (Nimar) मध्य प्रदेश के पश्चिमी ओर स्थित है। इसके भौगोलिक सीमाओं में निमाड़ के एक तरफ़ विन्ध्य पर्वत और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा हैं, जबकि मध्य में नर्मदा नदी है। पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था। बाद में इसे निमाड़ की संज्ञा दी गयी। फिर इसे पूर्वी और पश्चिमी निमाड़ के रूप में जाना जाने लगा। निमाड़ीमध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की बोली है। यह क्षेत्र मालवा के दक्षिण में महाराष्ट्र से सटा समीवर्ती क्षेत्र है। निमाड़ी बोलने वाले जिले हैं - बड़वानीखंडवापूर्वी निमाड़पश्चिमी निमाड़धार जिले के कुछ भाग तथा कई गाँव ऐसे है जिनमे निमाड़ी बोली जाती है। निमाड़ी शब्दकोष में 30 हजार शब्द है। ६ जिलों में लगभग एक करोड़ लोग निमाड़ी समझते हैं। 
जलवायु, संस्कृति, इतिहास 
निमाड़ में हज़ारों वर्षों से उष्म जलवायु रही है। निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास अत्यन्त समृद्ध और गौरवशाली है। विश्व की प्राचीनतम नदियों में एक नदी नर्मदा का विकास निमाड़ में ही हुआ। नर्मदा-घाटी-सभ्यता का समय महेश्वर नावड़ाटौली में मिले पुरा साक्ष्यों के आधार पर लगभग ढ़ाई लाख वर्ष माना गया है। विन्ध्य और सतपुड़ा अति प्राचीन पर्वत हैं। प्रागैतिहासिक काल के आदि मानव की शरणस्थली सतपुड़ा और विन्ध्य की उपत्यिकायें रही हैं। आज भी विन्ध्य और सतपुड़ा के वन-प्रान्तों में आदिवासी समूह निवास करते हैं। नर्मदा तट पर आदि अरण्यवासियों का निमाड़ पुराणों में वर्णित है। उनमें गौण्ड, बैगा, कोरकू, भील, शबर आदि प्रमुख हैं। निमाड़ का जनजीवन कला और संस्कृति से सम्पन्न रहा है, जहाँ जीवन का एक दिन भी ऐसा नहीं जाता, जब गीत न गाये जाते हों, या व्रत-उपवास कथावार्ता न कही-सुनी जाती हो।
निमाड़ की पौराणिक संस्कृति के केन्द्र में ओंकारेश्वर, मांधाता और महेश्वर है। वर्तमान महेश्वर प्राचीन माहिष्मति ही है। कालीदास ने नर्मदा और महेश्वर का वर्णन किया है। निमाड़ की अस्मिता के बारे में पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय लिखते है- "जब मैं निमाड़ की बात सोचता हूँ तो मेरी आँखों में ऊँची-नीची घाटियों के बीच बसे छोटे-छोटे गाँव से लगा जुवार और तूअर के खेतों की मस्तानी खुशबू और उन सबके बीच घुटने तक धोती पर महज कुरता और अंगरखा लटकाकर भोले-भाले किसान का चेहरा तैरने लगता है। कठोर दिखने वाले ये जनपद जन अपने हृदय में लोक साहित्य की अक्षय परम्परा को जीवित रखे हुए हैं। निमाड़ का, जिले के रूप में गठन ब्रिटिशराज में नरबुड्डा (नरबद्दा) डिवीजन में हुआ, जिसका प्रशासनिक मुख्यालय खण्डवा (मुस्लिम शासनकाल में बुरहानपुर) में था। निमाड़ के जिले बड़वानी, बुरहानपुर,खंडवा, खरगौन हैं। निमाड़ के प्रमुख शहर बड़वाह, बड़वानी, बुरहानपुर, हरसूद, खंडवा, खरगोन, जुलवानिया, बमनाला, भीकनगाँव, मूँदी, सनावद, बैड़िया, सेंधवा, महेश्वर, करही, राजपुर, मंडलेश्वर, गोगांवा व ठीकरी हैं। 
निमाड़ की होली
  • होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का पारम्परिक त्योहार है। रंगों का यह त्यौहार जहाँ सम्पूर्ण भारत और पड़ोसी राज्य नेपाल में बड़ी धूमधाम एवम उत्साह के साथ मनाया जाता है वही भारत के मध्य बसा मध्य  प्रदेश  के निमाड़  और मालवा अंचल में भी प्रेम और सौहार्द के साथ  मनाया जाता है।  होली पर्व को   पौराणिक प्रचलित  कथा  के अनुसार  होलिका द्वारा भक्त प्रह्लाद को गोद में बैठाकर आत्मदाह करने व् प्रह्लाद के जीवित रहने के कथानक से जोड़ा गया है  यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस त्यौहार का प्रचलन था। अनेक धार्मिक ग्रंथो हस्तलिपियों नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।
  • होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। होली के एक माह पूर्व गांव व् नगर का सरपंच अथवा कोई जनप्रिय नागरिक द्वारा होली का दण्ड निर्धारित होली दहन स्थल पर स्थापित किया जाता है। परम्परा अनुसार ग्राम के नागरिक महिलाये बालक बालिकाएं गोबर के कण्डे,गोबर से हाथ के बनाये नारियल,पीपल पान,षटकोण और विभिन्न प्रकार की मालाएं बनाकर होली दहन स्थल पर पूजन के साथ रखते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। रोजाना दहन स्थल पर लकड़िया काटकर अथवा एकत्रित कर डाली जाती है। इस परम्परा में हरे भरे पेड़ पौधों को भी काटकर होली स्थल पर डाला जाता है। इससे हमारे आसपास की वनस्पति को नुकसान भी पहुचता है.
  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रो में ग्राम प्रधान द्वारा लकड़ियों व उपलों से तैयार होली का विधिवत पूजन किया जाता है। इस दिन गृहणियों द्वारा अपने अपने घरों में अनेक प्रकार के पकवान बनाये जाते है. मालवा और निमाड़ अंचल के अधिकतर घरो में इस दिन पूरनपोली, भजिये, दाल,चावल, कड़ी, पकोड़े बनाये जाते है। इन पकवानों का होली को भोग लगाया जाता है। दिन ढलने के पश्चात ज्योतिषियों द्वारा निकाले गए मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है।
  • निमाड़ी साहित्य 
  • जोरू गोरू गोखरू, तूप तुअर की दाल                                                                                                                        ऐतरी चीज निमाड़ की, बोली मिसरी समान 
  • संस्कृतियों की जितनी विभिन्नता भारत में देखने को मिलती है, वह दुनिया में और कहीं भी संभव नहीं। हमारा देश इस मामले में आकूत संपदा का मालिक है। यहाँ के विभिन्न अंचलों की सांस्कृतिक विरासत और मीठी बोलियाँ इस संपन्नता का बखान करती हैं। ऐसा ही एक अंचल है निमाड़। जो गन्नों और केले के साथ ही मिर्ची के लिए भी प्रसिद्ध है और इसका यही तीखा-मीठा स्वाद इसके साहित्य में भी झलकता है। निमाड़ी बोली में रचे लोकगीत तथा कहावतें और कहानियाँ एक अनोखे सौंधेपन का एहसास कराते हैं। निमाड़ी साहित्य ने पिछले वर्षों में कई पड़ाव पार किए और कई प्रयोगों को भी अपने में समोया। आज इस बोली में व्यंग्य तथा कविताओं से लेकर निबंध तथा कहानियाँ रचने वाले कई नाम राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। लोककथाओं और गीतों के जरिए प्राचीन समय से कहा और सुना चला आ रहा साहित्य निमाड़ का असली रूप प्रस्तुत करता है। इसके जरिए न केवल प्राचीन समय के लोगों तथा जीवनशैली का परिचय प्राप्त होता है बल्कि साहित्य में हुए नए-पुराने आविष्कारों-प्रयोगों को भी करीब से जानने का मौका मिलता है।
  • मराठी एवं गुजराती भाषा तथा राजस्थानी बोली का मिश्रण निमाड़ी में ध्वनित होता है। इसके लोकगीतों में भी उक्त तीनों ही की अद्भुत मिठास प्रतिध्वनित होती है। निमाड़ी साहित्य वैसे भी खासतौर पर लोकगीतों के लिए ही जाना जाता है।
    परंपरागत गीत इसकी पहली पहचान हैं। इनमें संतों द्वारा गाए जाने वाले भक्ति गीत तथा जनसाधारण द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों तथा महत्वपूर्ण अवसरों के लिए रचे गए गीत मुख्य तौर पर शामिल हैं। निमाड़ में हुए कई संतों के रचे दोहे-चौपाइयाँ सामान्य होते हुए भी जीवन-दर्शन की गहरी झलक दे जाते हैं। इसका एक उदाहरण देखिए-
  •  "हेत प्रीत की राबड़ी, मिलकर पीजे वीर।हेत बिना काळू कहे, कड़वी लागे खीर ॥"
    यह संत सिंगाजी के पुत्र संत काळूजी का कहा दोहा है। जिसका मतलब है- प्रेम से पिलाई गई राबड़ी (एक प्रकार का मक्के तथा छाछ का व्यंजन) भी मिल-जुलकर पीने से स्वादिष्ट लगती है लेकिन बिना स्नेह के परोसी गई खीर भी कड़वी लगती है। इसके अलावा बच्चों के मनोरंजन तथा नीति-कथाओं का भी समृद्ध भंडार निमाड़ी साहित्य अपने अंक में समेटे हुए है।
  • महत्वपूर्ण पुस्तकें - १. निमाड़ी साहित्य का इतिहास,- डॉ. श्रीराम परिहार, २. निमाड़ी संस्कृति और साहित्य - वसंत निरगुणे, ३. निमाड़ी की लोक कथाएं - कृष्ण लाल हंस, ४. निमाड़ी लोकोक्ति कोश - डॉ. मंजुला जोशी, 
  • प्रमुख साहित्यकार - महादेव प्रसाद चतुर्वेदी 'माध्या' (अम्मर बोल -निमाड़ी में श्रीमद्भगवद्गीता) मंडलेश्वर, हरीश दुबे मंडलेश्वर, गजानन सिंह चौहान 'नम्र' मंडलेश्वर, शरद पगारे इंदौर, जगदीश जोशीला (सरग-नरग य्हांज् छे उपन्यास, क्रांति ज्योत व निमाड़ी मं कविता नं काव्य संग्रह, निमाड़ी लघुकथाएं ३ भाग, गाँव की पयचाण खंड काव्य, जननायक टंट्या मामा, कई हिंदी पुस्तकें) गोगांवा खरगोन, सहदेव सिंह 'मलय' गोगावां, सदाशिव कौतुक इंदौर (असो क्यऊँ हुइ रयोज्, माटी नs मखs बुलायो), स्व. ओमप्रकाश जोशी बड़वाह, शिशिर उपाध्याय बड़वाह, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' जबलपुर,  कुँअर उदय सिंह 'अनुज' महेश्वर, हेमंत उपाध्याय, अशोक गीते, महेश जोशी खरगोन (हाल-चाल सं अच्छा छे), दीपक पगारे सनावद, डॉ. शैलेंद्र चौकड़े सनावद,   अशोक गर्ग अग्र (बाजे बांसुरिया), सौरभ लाड़ (अगेड़ी मुक्तिधाम छे..), महेश साकल्ले काटकूर,  विष्णु फागना मंडलेश्वर, बाबूलाल सेन महेश्वर, मांगीलाल उपाध्याय खंडवा, डॉ. जगदीशचंद्र चौरे आदि।  
  • प्रमुख कलाकार साधना उपाध्याय, काठी नृत्यकार देवराम अबोले भाड़ली, निमाड़ी लोकाख्याकार चंद्रकांता बड़ोले, मांडणा कलाकार श्वेता शर्मा सेंधवा, कलगी गायक  राधेश्याम सोलंकी कोठा खुर्द, जयराम यादव व जगदीश यादव गवाड़ी बालीपुर, डॉ. मीना साकल्ले इंदौर,  दिनेश शर्मा बड़वानी, नंदराम पंवार लालपुरा, वैशाली सेन, मनीषा शास्त्री 
  • खंडवा जिला - राज्यों के पुनर्गठन से पहले, अर्थात 1 नवंबर 1956 को, जिले को आधिकारिक तौर पर निमाड़ जिले के रूप में जाना जाता था और तत्कालीन मध्य प्रदेश के महाकोशल क्षेत्र का हिस्सा था। पुराने प्रस्तर निमाड़ का पश्चिमी भाग जो मूल रूप से होल्कर के पास था, 1948 में मध्य भारत राज्य के गठन के समय उसका हिस्साज बन गया था। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के समय मध्य भारत क्षेत्र को कुछ बदलाव कर मध्य प्रदेश में बदल दिया गया और पश्चिमी भाग (पुराना निमाड़) अंतत: मध्य प्रदेश का एक हिस्सा बन गया । बाद में निमाड़ का पश्चिम भाग जो महाकौशल क्षेत्र का एक हिस्साक था पश्चिम निमाड़ के रूप में अलग हुआ जिसका मुख्या लय खरगोन था । 1 नवंबर, 1956 से निमाड़ (पूर्व) या पूर्वी निमाड़ के रूप मे जिला आस्तित्वख में आया । पूर्व निमाड़ जिला 15 अगस्त, 2003 को जिले को खंडवा और बुरहानपुर जिले में विभाजित किया गया।
    स्थान और सीमाएँ: खंडवा जिला मध्य प्रदेश राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। जिला मध्य प्रदेश के इंदौर संभाग में है। समुद्र तल से अधिकतम और न्यूनतम ऊँचाई क्रमशः 905.56 मीटर और 180.00 मीटर है। यह जिला पूर्व में होशंगाबाद संभाग के बैतूल और हरदा जिले और दक्षिण में इंदौर संभाग के बुरहानपुर जिले, पश्चिम में इंदौर संभाग के पश्चिम निमाड़ जिले और उत्तर में इंदौर संभाग के देवास जिले से घिरा हुआ है।
    प्रशासनिक प्रभाग: सामान्य और राजस्व प्रशासन के उद्देश्य के लिए जिला को चार अनुभागों , खंडवा, पंधाना, पुनासा, हरसूद में विभाजित किया गया है जो पाँच तहसील, जैसे, खंडवा, पंधाना, हरसूद, पुनासा और खालवा में विभाजित है । तहसीलों को राजस्व निरीक्षक के हलकों और राजस्व प्रशासन के लिए पटवारी हलकों में और उप-विभाजित किया गया है।
    हरसूद अनुभाग का मुख्याखलय और तहसील मुख्यालय को इंदिरा सागर परियोजना के तहत विस्थापन के कारण न्यू-हरसूद (छनेरा) में स्थानांतरित कर दिया गया है।
    पंधाना
    प्राकृतिक विभाजन: जिले का अधिकांश भाग, दो प्रमुख नदियों नर्मदा और ताप्ती के बीच की घाटियों में स्थित है । नर्मदा नदी जिले के मध्यव में पूर्व से पश्चिम तक एक दूसरे के समानांतर बह रही है। हात्तीथ रेंज जिले की दक्षिण सीमा को चिंहित करती है । जिले का प्रमुख प्राकृतिक विभाजन दो अलग-अलग भौगोलिक विभाजन के अनुरूप है, जैसे:
    • नर्मदा घाटी
    • मुख्य सतपुड़ा पर्वतमाला
    निमाड़ (पूर्व) भौगोलिक कण्टू र की समुद्र तल से सामान्य ऊंचाई लगभग 1,000 फीट(304.8 मीटर) है। लेकिन पूर्व निमाड़ का एलिवेशन पश्चिम में नर्मदा घाटी में 618 फीट (188.4 मीटर) से लेकर हट्टी रेंज के पीपरडोल शिखर पर 3,010 फीट (917.5 मीटर) तक असमान है। ।
    ड्रेनेज प्रणाली : जिले की जल निकासी नर्मदा और ताप्ती नदी प्रणालियों के अंतर्गत आती है। सतपुड़ा के उत्तरी श्रेणी दो नदी-प्रणालियों के बीच जल-विभाजन रेखा बनाती है। इस लाइन के उत्तर चांदगढ़ और सेलानी के निचले इलाकों को छोड़कर, लगभग सारा पानी छोटी तवा और कावेरी के साथ साथ कई छोटी छोटी नदियों से उत्तडर दिशा की ओर ही प्रवाहित होता है । नर्मदा के उत्तर तट तरफ दक्षिण की ओर ढलान है।
    नर्मदा नदी ओंकारेश्‍वर में
    भूगर्भीय हलचल: जिला एक भूकंपीय क्षेत्र में है जहां हल्के से मध्यम भूकंप संभव हैं, हालांकि यह भारत के स्थिर प्रायद्वीपीय शील्ड का एक हिस्सा है जिसे ‘हॉर्स्ट ब्लॉक’ के रूप में जाना जाता है और यह भारत के मुख्य भूकंप बेल्ट, अर्थात हिमालयन आर्क के बाहर है। 14 मार्च, 1938 के प्रसिद्ध सतपुड़ा भूकंप का केंद्र (21O 32 ‘एन -75O50′ ई) जिले के पश्चिम भाग के नजदीक ही था । जिले का पश्चिमी एम एम तीव्रता VII में और पूर्वी भाग एम एम तीव्रता VI में आता है । 11 दिसंबर 1998 और 5 अप्रेल 1999 के मध्य पंधाना विकासखण्डं में आवाज और कंपन के साथ हल्की तीव्रता (माइक्रो अर्थक्‍वेक) के भूकंप का अनुभव किया गया था ।
    जलवायु: जिला भारत के सूखे हिस्से में पड़ता है। जिले में औसत वार्षिक वर्षा 808 मिमी है। जिले के उत्तरी भाग में दक्षिणी भाग की तुलना में अधिक वर्षा होती है। मानसून का मौसम हर साल 10 जून तक शुरू होता है और अक्टूबर के शुरू तक रहता है। दिन काफी उमस भरे होते हैं। मई के महीने में अधिकतम तापमान 45O सेण्‍टीग्रेड और दिसंबर के महीने में न्यूनतम 10सेण्‍टीग्रेड दर्ज किया गया है
    पेशा: कामकाजी जन का प्रमुख हिस्सा कृषि में है। प्रति परिवार औसत खेत का आकार कम है और कृषि के पारंपरिक रूप को अपनाते हुए, अधिकांश किसान केवल आजीविका के लिए कमा रहे हैं। कृषि श्रम भी कुल जनसंख्या का बड़ा हिस्सा है।
    गणगौर
    भाषा: हिंदी जिले के शहरी भाग में संचार का एक सामान्य माध्यम है। निमाड़ी जिले के उत्तर-पश्चिम भाग के ग्रामीण क्षेत्र में बोली जाती है जबकि कोरकू, भीली क्रमशः जनजातीय क्षेत्र में संचार के साधन के रूप में। उत्तरी भाग में क्रमशः मालवी और कोरकू बोली जाने वाली जनजातियाँ शामिल हैं। गुजराती, राजस्थानी आदि भी कई सामाजिक वर्गों में बोली जाती है, जैसे बोहरा आदि।
    धार्मिक जीवन – तीर्थ केंद्र और जात्रा: ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग (ओंकारेश्वर मांधाता) प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। पूरे वर्ष, देश से तीर्थयात्री यात्रा करते हैं। कार्तिक के महीने में इस स्थान पर एक मेला लगता है, जिसमें कई तीर्थयात्री शामिल होते हैं। जिले में लगभग 40 मेले लगते हैं। पिपलिया में सिंगाजी महाराज का मेला, मलगांव में दाता-साहेब का मेला,छनेरा में बाबा बुखारदास का मेला, सिवना में बृह्मगीर महाराज का मेला,रूस्तंमपुर में महाशिवरात्रि का मेला, बोरगाँव में बागेश्वरी देवी का मेला, पुनासा में काजल देवी का मेला, श्रीरामजी के नाम पर जामनिया में,हनुमानजी के नाम पर बड़झिरी में, नर्मदा जयंति पर ओंकारेश्वर और नर्मदा नदी के किनारों के गांवो में उत्सव इत्यादि । मुस्लिम समुदाय का गुराडि़या में उर्स, रहीमपुरा में ख्वाजा साहेब का उर्स, पोखरकला में नवगज पीर का उर्स इत्यादि प्रमुख हैं
    काठी नृत्‍य

    लोक नृत्य: धर्म से जुडे नृत्यों की समृद्ध विरासत अभी भी राजपूतों, गुर्जरों, कोरकू, नागर ब्राह्मणों और बंजारों द्वारा संरक्षित है। राजपूत पुरुष के नृत्य को गेर और किमाड़ी के रूप में जाना जाता है, जबकि उनकी महिला-लोक नृत्य को खड़ा कहा जाता है। गुर्जरों के बीच, पुरुष लोक, दीप नृत्य करते हैं। कोरकु समाज का पसंदीदा नर नृत्य सुसुर है, जबकि गदोलिया उसी का महिला-लोक है। गुजराती समुदाय की महिला लोक गरबा है। काठी निमाड़ का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। गम्मत (नाटक) ग्रामीण जन के पसंदीदा शगल हैं।
  • संत सिंगा जी 
  • संत कवि सिंगाजी को निमाड़ के कबीर कहा जाता है। उन्होंने निर्गुणी भक्तिधारा की अनोखी निर्झर बहायी। वास्तव में वे नर्मदांचल की महान् विभूति थे। आज भी निमाड़ में उनके जन्म स्थान व समाधि स्थल पर उनके पगल्यों (पद्चिन्हों) की पूजा की जाती है। पशुपालक उन्हें पशु दूध और घी अर्पण करते हैं। इन स्थानों पर घी की अखण्ड ज्योत भी प्रज्वलित रहती है।सन्त शिरोमणि सिंगाजी महाराज का जन्म मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के एक छोटे से गांव खजूरी में हुआ था। पिता श्री भीमाजी गवली और माता गवराबाई कीतीन सन्तान थी। बड़े भाई लिम्बाजी और बहिन का नाम किसनाबाई था। सिंगाजी काजसोदाबाई के साथ विवाह हुआ था। इनके चार पुत्र—कालू, भोलू, सदू और दीप थे। सिंगाजी के जन्म और समाधिस्थ होने के बारे में विद्वान मतैक्य नहीं हैं। डा. कृष्णदास हंस ने उनका जन्म विक्रम संवत् 1574 बताया है। पंडित रामनारायण उपाध्याय ने वि.स. 1576 की वैशाख शुक्ल एकादशी (बुधवार) बताया है। इसी प्रकार समाधिस्थ होने की तिथि डा. हंस श्रावण शुक्ल नवमी सवंत् 1664 व पं. उपाध्याय वि.स. 1616 श्रावण बदी नवमी निश्चित करते हैं।ऐसी लोकमान्यता है कि श्रृगी ऋषि ने ही सिंगाजी के रूप में जन्म लिया। संस्कृत में ‘श्रृग’ का अर्थ सींग होता है और ‘सिंगा’ भी ‘सिंग’ का अर्थ लिए हुए है। फिर सिंगाजी की उच्च आध्यात्मिकता उनके भजनों से भी स्पष्टï होती है। लोकजीवन से जुड़े होने के कारण उनके काव्यगत उदाहरण भी उसी परिवेश से हैं, जो सीधे मन पर प्रभाव डालते हैं। एक भजन से यह बात स्पष्ट एवं प्रमाणित हो जाती है।
    खेती खेड़ो रे हरिनाम की, जामंऽ मुक्तो लाभ।
    पाप का ‘पालवा’ कटाव जो, काठी बाहर राल,
    कर्म की कासी एचावजो, खेती चोखी थाय।
    ‘वास’ ‘श्वास’ दो बैल हैं, ‘सुर्ती’ रास लगाव,
    प्रेम-पिराणो कर धरो, ‘ज्ञान’ आर लगाव।
    ‘ओहं’ वक्खर जूपजो, ‘सोहं’ सरतो चलाव,
    ’मूलमंत्र’ बीज बावजो,खेती लटलुम थाय।
    ’सत’ को मांडो रोप जो, ‘धरम’ पैड़ी लगाव,
    ‘ज्ञान’ का गोला चलावजो, सूवो उड़ी-उड़ी जाय।
    ‘दया’ की दावण राल जो, बहुरि फेरा नहीं होय,
    कहे सिंगा पहिचाण लेवो, आवागमन नहीं होय।
    वैसे भीमाजी का घर-परिवार काफी सम्पन्न था। उनके आंगन सैकड़ों भैंसें बंधी रहती थीं। लेकिन विषम परिस्थितियों के कारण उन्हें गांव छोड़कर पूर्वी निमाड़ में ग्राम हरसूद जाना पड़ा। यह घटना वि.सं. 1581-82 की मानी जाती है। उस समय सिंगाजी की उम्र मात्र पांच वर्ष की थी। सिंगाजी जब 22 वर्ष के हुए तो भामगढ़ के राव साहब के यहां हरकारे (डाकिये) की नौकरी की। इन्हीं दिनों स्वामी ब्रह्मïगिर के मुख से भजनरूपी अमृत का पान किया और मन में वैराग्य उपजा। बाद में मनरंग स्वामी से दीक्षा ग्रहण की जो ब्रह्मïगिरजी के शिष्य थे।सिंगाजी के जीवन से जुड़ी अनेक चमत्कारिक घटनाएं आज भी प्रचलित हैं। जनमानस में पैंठी इन घटनाओं में कुछेक इस प्रकार हैं :-एक बार सिंगाजी की भैंसों की चोरी हो गई। घर के सभी सदस्य चिंतित होकर भैंसों की खोज में निकल पड़े। लेकिन सिंगाजी घर बैठे-बैठे मुस्कराते रहे।यह देखकर मां बहुत नाराज हुई। तब सिंगाजी ने कहा,’माय तू चिंता मत कर। भगवान अपणी भैंस न को रखवालों छे। तू तो पाड़ा-पाड़ी छोड़। भैंसी न आवतीऽ होयगऽ।’ (मां तू चिंता मत कर। भगवान अपनी भैंसों का रखवाला है। तू तो पाड़ा-पाड़ी छोड़, भैंसें आती ही होंगी)। सचमुच तभी भैंसें आ गईं। ढूंढऩे वाले चकित थे कि आखिर भैंसें किस मार्ग से आयीं। इसी प्रकार एक बार गांव के लोगों ने सिंगाजी से ओंकारेश्वर चलने का आग्रह किया। तो उन्होंने कहा-तम चलो, हव अऊऽज(तुम चलो मैं आता हूं)। तीन दिनों की पैदल यात्रा के बाद लोग वहां पहुंचे तो देखा कि सिंगाजी नाव में बैठे हैं। जबलोग गांव वापस आये तो पता चला कि सिंगाजी गांव छोड़कर कहीं गये ही नहीं। तब से लोगों में उनके प्रति सिद्ध पुरुष होने की मान्यता और दृढ़ हो गई।वैसे उनके भजनों में झाबुआ के राजा बहादुरसिंह के डूबते जहाज को उबारने व कुंवारी भैंस का दूध दुहने की घटनाएं भी आती हैं। इनके अलावा एक उल्लेख यहभी मिलता है कि सिंगाजी ने अपने गुरु को समाधिस्थ होने के बाद दर्शन दिए थे। इसकी भी एक रोचक कथा प्रचलित है— एक बार जन्माष्टïमी पर उनके गुरु मनरंगगिर को नींद आने लगी। उन्होंने सिंगाजी से कहा कि आरती के समय उन्हेंजगा देना। जब आरती का समय हुआ तो सिंगाजी ने उन्हें गहरी नींद से जगाना ठीक नहीं समझा और खुद ही आरती कर दी। थोड़ी देर बाद गुरु की नींद खुली। यह देखकर कि सिंगा ने आरती कर दी और जगाया नहीं, क्रोध में सिंगाजी को कहा, ‘जा दुष्टï! मुझे अपना मरा मुंह दिखाना।’ उन्हें यह बात तीखे तीर-सी चुभ गई। परंतु सिंगाजी ने गुरु के कोप-वचन को वरदान की तरह ग्रहण किया और ग्यारह माह की समाधि ले ली। कहते हैं मृत्यु के बाद जब मनरंगजी उनके घर आए तो सिंगाजी उन्हें रास्ते में हीमिले। इस प्रकार गुरु का वचन ‘मरा मुंह दिखाना’ सत्य और पूरा किया।सिंगाजी के जन्म स्थान खजूरी की पहाडिय़ों पर आज भी सफेद निशान मौजूद हैं। कहा जाता है कि यहां सिंगाजी अपने पशुओं को चराते थे और दूध दुहते थे। उनके बारे में और भी अनेक चमत्कारिक घटनाएं प्रचलित हैं। इसी कारण निमाड़-मालवा के पशु-पालक आज भी सिंगाजी को देवता की तरह पूजते हैं। पदचिन्ह (पगल्ये) के मंदिर स्थापित हैं। जहां अखण्ड ज्योति और भजन-पूजन के साथ मेलों का आयोजन भी होता है। रोज शाम को मंदिरों में सिंगाजी के भजनमिरदिंग (मृदंग) के साथ गाये जाते हैं। गुरु-गादी की परम्परानुसार इस पदपर आसीन गुरु का आज भी पूरा सम्मान किया जाता है।
  • निमाड़ी क्रांतिकारी बिरजू नायक

  • सन् 1857 की क्रांति के दौर के वीर क्रांतिकारी, एक महान योद्धा, सतपुड़ा के सुदूर पहाड़ियों में रहने वाले निमाड़ के आदिवासी वीर योद्धा रहे बिरजू नायक। जिनकी कहानी से बहुत ही कम लोग वाकिफ है, अंग्रेज शासनकाल में कई क्रांतिकारी योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। उनमें से कई वीर ऐसे भी है जिनका जिक्र इतिहास में एक लाइन से ज्यादा नही किया गया है। ऐसे ही आदिवासी वीर योद्धा रहे बिरजू नायक, जिनका शहीदी दिवस 2 मई को मनाया जाता है।
    मध्य्प्रदेश के बड़वानी जिले की राजपुर तहसील के नगर पलसूद के निकट ग्राम मटली एवं सावरदा के बीच स्थित एक पहाड़ी पर स्तिथ प्रसिद्ध "बांडी हवेली" है। जो वीर बिरजू नायक का कर्मघर है, जो आज भी मौजूद है, हालांकि अब वह अब खण्डहर में तब्दील हो चुका है। इसको संरक्षित करने की आवश्यकता है। स्थानीय समाजनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ऐसी मान्यता है, कि वीर बिरजू नायक इसी बांडी हवेली से अपने साथियों के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध अपनी योजना बना कर उन्हें अंजाम देते थे।
    वहीं पलसूद के नजदीक ग्राम उपला में इनका समाधि स्थल है, जहां वर्तमान में भी क्षेत्र के समाजजन पहुँचकर वीर योद्धा को श्रधांजलि सुमन अर्पित करते है, वहीं समस्त मूलनिवासी संघटनों द्वारा प्रतिवर्ष 2 मई को वीर बिरजू नायक का शहीद दिवस भी मनाया जाता है। हमारे पूर्वजो एवं वरिष्ठ महानुभावो से प्राप्त जानकारी अनुसार बिरजू नायक हमेशा गरीब एवं किसान के हितों के लिए लड़ते थे।
    वीर योद्धा भीमा नायक, ख्वाजा नायक और टांट्या मामा भील के साथ कई विद्रोह में सहभागिता की। उन्होंने अंग्रेजो से कई लड़ाई लड़ कर उन्हें धूल चटा दी थी, कहा जाता है कि जब भी गांव में अंग्रेज आते थे, अंग्रेजो को गांव से मारकर भगाने पर मजबूर कर देते थे। उलेखनीय है कि स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के पश्चिम निमाड़ के आगमन पर राजपूर क्षेत्र के गुप्त रास्तों से नर्मदा नदी पार करवाकर मंजिल तक पंहुचाने में भीमा नायक, ख्वाजा नायक एवं बिरजू नायक तथा साथियो का अहम योगदान था, इसी योगदान के बदले उन्हें "वीर की उपाधि" दी गयी थी। जिससे पता चलता है कि सिंधु घाटी क्षेत्र में वीर के नाम से चर्चित थे। आज भी उनके नाम के आगे लोग वीर लिखना नही भूलते है । निवाली(सिंधु घाटी) राजपुर उनका गढ़ रहा है। ग्राम मटली में स्थित झरने (कुंडी) पर नहाने जाया करते थे, उन्हें धोखे के तहत रणनीति बनाकर मारने के लिए अंग्रेजो ने करीबी साथी का सहारा लिया, क्योकि बिरजू नायक को मारना आसान नही था, अंग्रेजो ने उन्हें मारने के लिए कई असफल प्रयास किये।
    वे युद्ध कला में निपुण थे, बिरजू नायक प्रतिदिन की तरह एक बार झरने (कुंडी) पर नहाने पँहुचे थे, तभी अंग्रेजो द्वारा भेजे गए किसी परिचित ने उनका सर धड़ सर से अलग कर दिया। ऐसा बताया जाता हैकि सर धड़ से अलग होने के बावजूद वे उपला स्थित समाधि तक दौड़ते हुए आ गए थे व उक्त स्थल पर प्राण त्यागे थे।
    आदिवासी समाज एवं विभिन्न संघटनो के कार्यकर्ता वर्तमान में भी उनकी गाथा का गायन करते है।
    कहा जाता है कि वीर बिरजू नायक अपने साथियों को सूचना देने हेतु वाद्य यंत्र का उपयोग करते थे, जिस स्थान से सूचनाओं का आदान प्रदान करते थे उस स्थान को अब ढोला बेड़ी के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान में ग्राम मटली में स्थित है।
  • निमाड़ी पर्व : संजा (छाबड़ी) 
  • गीतात्मक लोक पर्व संजा बाई (छाबड़ी)

  • निमाड़ की किशोरी बालिकाओ द्वारा भाद्र माह की पूर्णिमा से अश्विन माह की सर्वपितृ अमावस्या तक मनाया जाता है । इन 16 दिनों तक चलने वाले गीतात्मक मांडना पर्व को गीतों के माध्यम मनाया जाता है मांडना बनाए में 16 दिन पूनम का पाटला और चाँद ,तारे ,सूरज , पाँच कुँआरा, बंदनवार डोकरा डोकरी ,निसरणी, छाबड़ी, रुनझुन की गाड़ी, कोट किल्ला ,वान्या की हाटडी,मोर,बिजौरा, पंखा, कौवा,कुआ,बावड़ी,आदि बनाये जाते है। गीत गाये जाते है और आरती प्रसाद बांटा जाता है... संजा कौंन ?उनका सामाजिक आत्मिक और आद्यात्मिक स्वरूप क्या है संजा के गीतों में कहा जाता है-
    "संजा सहेलड़ि बाज़ार में खेले
    बजार में रमे
    वा कोणा जी नी बेटी
    वा खाय खाजा रोटी
    पठानी चाल चाले
    रजवाड़ी बोली बोले
    संजा एडो संजा का माथा बेड़ो "........
    गीत का भाव है कि संजा निडर,साहसी, राजसी वैभव को जीने वाली हमारी सखी है जो कोना जी की बेटी है खाजा खाती है पठानी चाल से चलती है परन्तु वो जल के प्रतीक जीवन में स्वभिमानी पनिहारिन की तरह कर्मशील है।
    दोस्तों निमाड़ की किशोरीय अंतरिक्षीय कल्पना पटल पर प्रारम्भ में चाँद और सूरज का प्रादुर्भाव होता है रात और दिन की तरह ,सुख और दुःख की तरह, संघर्ष की तपिश और सफलता की चांदनी की तरह वो जीवन के कर्मशीलता की साधना में सोलह संस्कारों से अभिसिंचित सोलह दिवसीय लोक महोत्सव में रूपांतरित हो जीवन को गीतात्मक से परिलक्षित और परिभाषित कर फिर जीवन की अनन्तता में विसर्जित हो जाता है।

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