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बुधवार, 26 अगस्त 2020

छंद

छंद
छाया है सब सृष्टि पर, निहित सभी में छंद।
हो प्रतीति जिसको नहीं, जानें वह मतिमंद।।
छंद अनाहद नाद है, करे सृष्टि उत्पन्न।
ध्वनि तरंग मिल बिछुड़ते, वर्तुल हों व्युत्पन्न।।
हो आकर्षण विकर्षण, संघर्षण भी नित्य।
संकर्षण ध्वनि-खंड का, हो कण सूक्ष्म अनित्य।।
मिल-टकराते-बिछुड़ते, कण गहते कुछ भार।
वर्तुल परिपथ हो बढ़े, सतत सृष्टि व्यापार।।
ध्वनि की लय; गति-यति सहज, करती कण संयुक्त।
ऋषि कणाद कण खोजकर, कहें यही अविभक्त।।
कण पदार्थ का सृजनकर, बनते गृह-नक्षत्र।
तल पर यही प्रतीत हो, आसमान है छत्र।।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व का मेल।
माटी माटी का मिलन, माटी करती खेल।।
जल-थल-नभचर प्रगट हों, जीव बने चैतन्य।
नियति नटी मति दे कहे, तुझ सा कहीं न अन्य।।
जीव बने संजीव मिल, बिछुड़ बने निर्जीव।
रुदन-हास समभाव से, देखें करुणासींव।।
समय पटल पर देव-दनु, प्रगटें करने युद्घ।
भिन्न असुर-सुर हैं-नहीं, बाँधव स्नेह न शुद्ध।।
निज प्रभुत्व का चाह ही, नाशक कहें प्रबुद्ध।
परिग्रह तज कर समन्वय, कहें संत जिन बुद्ध।।
'मोहन' 'मोह' 'न' कर तजें, राधा-गोकुल धाम।
मन स्थिर कर विरह सह, लीला करें ललाम।।
'मो' अर्थात घमंड को, 'हन' करते दें मात।
कौरव 'रव' कर-कर मिटे, हो जग में कुख्यात।।
'रव' कर रावण जन्म ले, मरे अहं से ग्रस्त।।
'रव' कर रेवा तार-तर, रहें आप संन्यस्त।।
तत्व एक 'रव' किंतु हैं, भिन्न-भिन्न परिणाम।
कर्म फले होता नहीं, विधि अनुकूल; न वाम।।
कृष्ण-कथा देती हमें, 'कर सुकर्म' संदेश।
मोह न कर परिणाम प्रति, लेश ईश आदेश।।
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संजीव
२६-८-२०१९
७९९९५५९६१८

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