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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

विमर्श : रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकार

विमर्श : रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकार                                                                                                      यह उदाहरण के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास रचित कवितावली से उद्धृत है। 1श्री राम के वनगमन के मार्ग में ग्राम बधूटियाँ श्रीराम के रूप और वेश को निरखने के बाद सीता जी से पूछती हैं कि हे सखी ये सावलें रंग वाले तुम्हारे कौन हैं।
पूछति ग्राम बधू सिय सों, 'कहो साँवरे, सो सखि रावरे को हैं।                                                                              सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।                                                                              तिरछे करि नैन, दे सैन, तिन्हैं, समुझाइ कछू मुसुकाइ चली॥                                                                            तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहु अली।                                                                            अनुराग तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंजकली॥
 स्त्रियों की अमृत रस से संपृक्त वाणी सुनकर जानकी जी अच्छी तरह समझ गई हैं कि ये स्त्रियाँ बहुत चतुर हैं। सीता जी ने अपने नेत्र को तिरछे करके,इशारा करके, उन्हें कुछ समझा कर, मुस्कुरा करके (आगे) चलीं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वह अवसर (क्षण) सभी को बहुत अच्छा लगा और उसे देखते ही सखियों के नेत्रों को उसी प्रकार लाभ हुआ मानो अनुराग के सरोवर में सूर्य उदय होते ही मनोहर कमल की पंखुड़ियाँ खिल उठी हों। सीता जी का उत्तर ग्राम बधूटियों को इतना अच्छा लगा मानो वह दृश्य देखकर वहाँ अनुराग (प्रेम) व्याप्त हो गया, उनके नेत्र इसी प्रकार प्रफुल्लित हो गये जैसे प्रेम के सरोवर में कमल की पंखुड़ियाँ खिल उठी हों। उदयकाल में सूर्य लाल ( अनुराग=लाल=प्रेम) रंग के किरणों को प्रसारित करता है और सरोवर का जल लाल हो जाता है, और ऐसे सरोवर में सूर्य के प्रथम किरण के स्पर्श से कमल की पंखुड़ियाँ खुलने लगती हैं। यहाँ तालाब अनुराग का है। ग्राम बधूटियों के नेत्र कमल हैं। सीता जी के जबाब देने का अवसर सूर्य है। यहाँ अनुप्रास, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकार साथ-साथ है।

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