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बुधवार, 26 अगस्त 2020

नवगीत - लेकिन संध्या खिन्न न होती

नवगीत -
लेकिन संध्या खिन्न न होती
*
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
जन-मन परवश होकर
खुद ही जब निज घर में
आग लगाता।
कुटिल शकुनि-संचालित
सत्तातंत्र नाश देख
हँसता-मुस्काता।
विवश भीष्म
अन्याय-न्याय की
परिभाषा दे रहे कागज़ी-
अपराधी बनकर महंत,
हा! दैव
रँगीला भी पुज जाता ,
नारी की इज्जत खुद नारी
लूट जाए, परवाह न करती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
गुरुघंटालों ने गुरु बनकर
शिष्याओं को
जब-जब लूटा।
वक्र हो गया भाग्य तभी
दुष्कर्मों का घट
भरकर फूटा।
मौन भले पर
मूक न जनगण
आज नहीं तो कल जागेगा।
समय क्षमा किसको कब करता?
युग-युग तक
हिसाब माँगेगा।
समय हताशा का जब तब भी
धरती धैर्य न तजती, धरती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
२६-८-२०१७
salil.sanjiv @gmail.com
http ://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

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