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बुधवार, 12 अगस्त 2020

समीक्षा - रसरंगिनी मुकरी संग्रह - तारकेश्वरी सुधि

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, वह टेक्स्ट जिसमें 'रसरंगिनी (मुकरी संग्रह) तारकेश्वरी 'सुधि'' लिखा हैपुस्तक सलिला :
रसरंगिनी : मनसंगिनी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण : रसरंगिनी, मुकरी संग्रह, तारकेश्वरी यादव 'सुधि', प्रथम संस्करण, वर्ष २०२०, आकार २१ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ४८, मूल्य ६०रु., राजस्थानी ग्रंथागार प्रकाशन जोधपुर, रचनाकार संपर्क : truyadav44@gmailcom ]
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भारतीय लोक साहित्य में आदिकाल से प्रश्नोत्तर शैली में काव्य सृजन की परंपरा अटूट है। नगरों की तुलना में कम शिक्षित और नासमझ समझे जानेवाले ग्रामीण मजदूर-किसानों ने काम की एकरसता और थकान को दूर करने के लिए मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ स्वस्थ्य छेड़-छाड़ कर ते हुए प्रश्नोत्तरी गायन के शैली विकसित की। इस शैली को समय-समय पर दिग्गज साहित्यकारों ने भी अपनाया। कबीर और खुसरो इस क्षेत्र में सर्वाधिक पुराने कवि हैं जिनकी रचनाएँ प्राप्त हैं। इन दोनों की प्रश्नोत्तरी रचनाएँ अध्यात्म से जुडी हैं। कबीर की रचनाओं में गूढ़ता है तो खुसरों की रचनाओं में लोक रंजकता। कबीर की रचनाएँ साखी हैं तो खुसरो की मुकरी। साखी में सीख देने का भाव है तो मुकरी में कुछ कहना और उससे मुकरने का भाव निहित है।

कबीर ने कहा -

चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबित बचो न कोय

कबीर के पुत्र कमाल ने उत्तर दिया-

चलती चाकी देखकर दिया कमाल ठिठोय
जो तीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय

ये दोनों दोहे द्विअर्थी हैं। कबीर के दोहे का सामान्य अर्थ है चक्की के दो पाटों के बीच में जो दाना पड़ा वह पिस जायेगा उसे कोई बचा नहीं सकता जबकि गूढ़ार्थ है ब्रह्म और माया के दो पाटों में पीसने से जीव की रक्षा कोई नहीं कर सकता। कमाल के दोहे का सामान्य अर्थ है कि दोनों पाटों से बचकर,चलती हुई चक्की की कीली (धुरी) से जो दाना चिपक गया वह नहीं पिसा, बच गया जबकि विशेषार्थ है संसार की चक्की में जो जीव ब्रह्म से प्रेम कर उससे अभिन्न हो गया उसका यम भी बाल-बाँका नहीं कर सकता।

शब्द कोष के अनुसार मुक़री, संज्ञा स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसका अर्थ है एक पद्य जिसमें पहले कथन किया जाए फिर उसका खंडन किया जाए। वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। यह कविता प्रायः चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण ऐसे होते हैं; जिनका आशय दो जगह घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ या व्यक्ति का आशय निकलता है, चौथे चरण में किसी और पदार्थ का नाम लेकर, उससे इनकार कर दिया जाता है । इस प्रकार मानो कही हुई बात से मुकरते हुए कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है।

मुकरी लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा लेना होता है। इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती, कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है। मुकरी और पहेली में साम्य और वैषम्य दोनों है। पहेली में भी प्रश्न और उत्तर होता है किन्तु पहेली का उत्तर उसके पद्य का अंग नहीं होता अपितु पतंग की पूंछ की तरह उससे जुड़ा होकर भी अलग रहता है।

हिन्दी में अमीर खुसरो ने इस लोककाव्य-रूप को साहित्यिक रूप दिया। अलंकार की दृष्टि से इसे छेकापह्नुति कह सकते हैं, क्योंकि इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है। इसे ‘कह-मुकरी’ अर्थात पहले कहना और फिर मुकर जाना भी कहते हैं। हिन्दी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। खुसरो इसके अंत में प्राय: 'सखी' या 'सखिया' भी कहते हैं । एक जीवंत उदाहरण देखें -

सगरि रैन वह मो संग जागा।
भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया। क्यों सखि साजन? ना सखि दिया।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र रचित एक मुकरी का आनंद लें -

भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै। जाहिर बातन मैं अति तेज, क्यों सखि सज्जन? नहिं अँगरेज।

इस सदी के आरंभ में मैंने भी कुछ मुकरियाँ कहीं। एक उदाहरण देखें -

इससे उसको जोड़ मिलाता झटपट दूरी दूर भगाता कोई स्वार्थ न कोई हेतु क्या सखि साजन, ना सखि सेतु।

२०११ में प्रकाशित योगराज प्रभाकर रचित एक मुकरी देखें -

इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,

ए सखि साजन ? ना सखि मोर !

अगस्त २०१७ में मंतव्य पत्रिका ने डॉ. प्रदीप शुक्ल की ४८० मुकरियों को एक १६७ पृष्ठीय विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया। एक मुकरी का अवलोकन करें -

जब आये वो धूम मचाये,
मुझको रातों रात जगाये,
जाने उससे कौन लगाव,

ए सखि साजन ? नहीं चुनाव!

इंजी. त्रिलोक सिंह ठकुरेला (मुकरी संग्रह आनंद मंजरी) ने भी मुकरी लेखन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी कहमुकरी विषय वैविध्य की दृष्टी से महत्वपूर्ण हैं। एक बानगी पेश है-


जैसे चाहे वह तन छूता। उसको रोके, किसका बूता। करता रहता अपनी मर्जी। क्या सखि, साजन ? ना सखि, दर्जी।

कह मुकरियाँ सृजन के क्रम की नवीनतम कड़ी हैं तारकेश्वरी यादव 'सुधि' जिन्होंने १२० मुकरियों का संग्रह 'रसरंगिनी' शीर्षक से प्रकाशित किया है। इन मुकरियों में शिल्प की दृष्टि से चार पंक्तियाँ हैं जिनमें १६-१६ मात्राएँ हैं। प्रथम दो पंक्तियों में सामान तुकांत है जबकि शेष दो पंक्तियों में भिन्न समान तुकांत है। अंतिम पंक्ति का आठ मात्रिक प्रथम चरण प्रश्न का उत्तर देते हुए पूर्ण होता है जबकि आठ मात्रिक दूसरे चरण में इसे नकार कर वैकल्पिक उत्तर दिया जाता है। पूर्ववर्ती कवियों ने भिन्न छंदों, पंक्ति संख्या तथा यति का प्रयोग किया है किंतु सुधि जी ने आजकल प्रचलि सोलह मात्रिक चार चरणों में ही मुकरी कही है। इस संग्रह में ईश्वर, डॉक्टर, डाकिया, मनिहार, मालिन, चौकीदार, आँगन, सपना, पायल, दर्पण, काजल, सागर, बसंत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बेलन, मंच्छर, आदि पारंपरिक विषयों के साथ-साथ गूगल, मोबाइल, डायरी, चाय, हलवा, टेलीविजन जैसी दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं पर भी मुकरियाँ कही गयीं हैं।

तारकेश्वरी की मुकरियों की 'कहन' सहज बोध गम्य है। उनकी भाषा सरल है। वे क्लिष्ट शब्दों का उपयोग न कर मुकरी के रसानंद में पाठक को निमग्न होने देती हैं।

जब भी बैठा थाम कलाई
मैं मन ही मन में इतराई
नहीं कर पाती मैं प्रतिकार
क्या सखि साजन? नहीं, मनिहार

प्रकृति के उपादान बादल सागर, अँधेरा, आदि उन्हें प्रिय हैं।

रात गए वह घर में आता
सुबह सदा ही जल्दी जाता
दिन में जाने किधर बसेरा
काया सखि साजन? नहीं अँधेरा

किसी वास्तु के लक्षणों के मध्यान से उसका शब्दांकन करना मुकरी की विशेषता है। तारकेश्वरी इस कला में दक्ष हैं -

जैसी हूँ वैसी बतलाये
सत्य बोलना उसे सुहाए
मेरा मुझको करता अर्पण
क्या सखि साजन? ना सखी दर्पण

सप्ताह के छह दिन काम करने के बाद इतवार की सब को प्रतीक्षा रहती है। तारकेश्वरी की मुकरी भी अपवाद नहीं है -

जब वह आता देता खुशियाँ
बात जोहती मेरी अँखियाँ
फरमाइश का लगे अंबार
क्या सखि साजन? नहीं इतवार

सुगृहणी का काम छलनी के बिना नहीं चलता, 'सार सार को गहि रहे' जैसे गुण की धनी छलनी पर मुकरी में 'मनहरनी' शब्द का प्रयोग नवता लिए है-

सार-सार वह मुझको देती
अपशिष्टों को खुद रख लेती
इसीलिये है वह मनहरनी
क्या प्रिय सजनी? ना प्रिय छलनी

सुबह उठते ही चाय के तलब सबको लगती है। 'चाय' पर मुकरी अच्छी बन पड़ी है -

जब भी होठों को छू जाए
तन-मन की सब थकन मिटाए
उसका कोई नहीं पर्याय
क्या सखि साजन? ना सखि चाय

टेलीविजन आजकल जीवन की अनिवार्यता बन गया है। तारकेश्वरी का मुकरी लोक भला कैसे इससे दूर रह सकता है? इसमें अंतिम पंक्ति मात्राधिक्य की शिकार हो गयी है।

जब मैं चाहूँ तब वह बोले
अगर रोक दूँ मुँह ना खोले
अक्सर वह बहलाता है मन
क्या सखि साजन ? ना सखि टेलीविजन

बिखरते परिवार और घर-घर में उठी दीवार एक अप्रिय सत्य है। तारकेश्वरी मुकरी में इस स्थिति से आँखें चार करती हैं-

खंडित करती भाई चारा
पल में कर दे वह बँटवारा
बिखरा देती घर-परिवार
क्या सखी साजन? नहीं दीवार

मीरा पर मुकरी कहते समय तारकेश्वरी 'प्रेम दीवानी' विशेषण का प्रयोग करती हैं।

वह तो पगली प्रेम दीवानी
समझाया पर बात न मानी
उसे लुभाये ढोल मंजीरा
क्या प्रिय सजनी? नाप्रिय मीरा

मुकरी विधा को समृद्ध करने में तारकेश्वरी 'सुधि' का अवदान महत्वपूर्ण है। उन्हें बधाई। अपवाद स्वरूप मात्राधिक्य व लयभंग के बावजूद इन मुकरियों में पाठक को बाँधने की सामर्थ्य है।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१

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