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शनिवार, 29 अगस्त 2020

दोहा छंद अनूप :

दोहा छंद अनूप : 
संजीव 
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जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है१। संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है। दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है३। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी४। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा पला-बढ़ा और अनेक नामों से विभूषित हुआ। 

दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद. 
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद. 

द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम. 
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम. 

दोहा मुक्तक छंद है : 

संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। 

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं। 

इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है. 

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ. 
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई.. 

हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया। 

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस. 
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस. 

दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है- 

जो जिण सासण भाषियउ, सो मई कहियउ सारु. 
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु. 

८ वीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गये अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा. 

पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज. 
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज. 

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह. 
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह. 

दोहा उतम काव्य है : 

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय. 
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय. 

हिन्दी ही नहीं विश्व की समस्त भाषाओँ के इतिहास में केवल दोहा ही ऐसा छंद है जिसने युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, पराजित और बंदी राजा को अरि-मर्दन का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन भी करानेये। यह दोहे की अतिरेकी प्रशंसा नहीं, सच है। कुछ कालजयी दोहों से साक्षात कीजिये। 

दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत. 
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत. 

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद. 
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद. 
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र) 

दोहा है इतिहास: 

दसवीं सदी में पवन कवि द्वारा हरिवंश पुराण में कउवों के अंत में प्रयुक्त 'दत्ता' छंद दोहा ही है. 

जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु. 
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु. 

११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि(अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है. 

कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ. 
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ 

मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है । एक दोहा देखें- 

वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु. 
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु 

दोहा उलटे सोरठा : 

सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) को नतमस्तक प्रणाम करता दोहा अपने विषम-सम अर्धांश को आपस में बदलकर सोरठा हो गया । कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया । मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किये पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। दोहा गत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठा बनकर गा रहा है- 

वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं. 
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या. 

दोहा घणां पुराणां छंद: 

११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया। 

सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात. 
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात. 

आतंकवा दी कुछ लोगों को बंदी बना लें तो संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की बंधक बना ली जाए तो भी आतंकवादी छोड़े जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए। 

भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु. 
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु. 

अर्थात - भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग. 
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग. 

अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति. 
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति. 

भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय. 
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय. 

दोहा दिल का आइना: 

दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य. 
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य. 

दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है- 

पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण 
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण. 

अर्थात् 

अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह. 
चम्पकवर्णी कुंवारी, कन्या देती दाह. 

प्रियतम की बेव फाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है- 

सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु. 
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु 

यदि प्रिय घर आता नहीं. दूती क्यों नत मुख. 
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख. 

हर प्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ पीया के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही। 

जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण. 
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण. 

जाते हुए प्रवास पर, प्रिय ने कहे जो दिन. 
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन. 

परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आए तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी। 

पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब? 
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव. 

प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद. 
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद. 

मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है अथवा मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी? 

रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु. 
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू. 

एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात. 
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात. 

इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा हेतु उकसाया। परीक्षण के समय कवि मित्र ने एक दोहा पढ़ा। दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम कर लक्ष्य पर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। वह कालजयी दोहा है- 

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण. 
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण. 

दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है- 

श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय. 
आल्हखंड बरण करत, आल्हा छंद बनाय. 

इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है- 

पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल. 
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ. 

चल पानी पिला: 
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात अमीर खुसरो (संवत् १३१२-१३८२)एक दिन घूमते हुए दूर निकल गये, जोर से प्यास लगी.. गाँव के बाहर कुँए पर औरतों को पानी भरते देख खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। उनमें से एक ने कहा पानी तभी पिलायेंगी जब खुसरो उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गये कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर उनकी झुंझलाहट का आनंद ले रही हैं। कोई और उपाय न देख खुसरो ने विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया खीर... चरखा... कुत्ता... और ढोल... खुसरो की प्यास के मरे जान निकली जा रही थी, इन बेढब विषयों पर कविता करें तो क्या? पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप, सबसे छोटे छंद दोहा का दमन थमा और एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली. खुसरो का वह दोहा है: 

खीर पकाई जतन से,चरखा दिया चलाय 
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय 
ला पानी पिला 
खुसरो पानी तो मिला ही, पहला दुमदार दोहा रचने का श्रेय भी मिला। 

कवि को नम्र प्रणाम: 

राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया- 

भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान. 
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान. 

बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है- 

जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त. 
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त. 

खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार. 
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार. 

वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार. 
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार. 

गृहस्थ संत कबीर (सं. १४५५-१५७५) के लिये 'यह दुनिया माया की गठरी'थी। कबीर जुलाहा थे, जो कपड़ा बुनते उसे बेचकर परिवार पलता पर कबीर वह धन साधुओं पर खर्च कर कहते 'आना खाली हाथ है, जाना खाली हाथ'। उनकी पत्नी लोई नाराज होती पर कबीर तो कबीर... लोई ने पुत्र कमाल को कपड़ा बेचने भेजा, कमाल कपड़ा बेच पूरा धन घर ले आया, कबीर को पता चला तो नाराज हुए। दोहा ही कबीर की नाराजगी का माध्यम बना- 

'बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल. 
हरि का सुमिरन छोड़ के, भरि लै आया माल. 

कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा- 

चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय. 
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय. 

कमाल था तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था। दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था। कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भी निरुत्तर रह गये। यह उत्तर भी दोहे में हैं: 

चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय 
जो कीली से लग रहा, मार सका नहिं कोय 

नीर गया मुल्तान: 

सतसंगति की चाह में कबीर गुरुभाई रैदास के घर गये। रैदास कुटिया के बाहर चमड़ा पका रहे थे। कबीर को प्यास लगी तो रैदास ने चमड़ा पकाने की हंडी में से लोटा भर पानी दे दिया। कबीर को वह पानी पीने में हिचक हुई तो उन्होंने अँजुरी होंठ से न लगाकर ठुड्डी से लगायी, पानी मुँह में न जाकर कुर्ते की बाँह में चला गया। घर लौटकर कबीर ने कुरता बेटी कमाली को धोने के लिये दिया। कमाली ने कुर्ते की बाँह का का लाल रंग छूटने पर चूस-चूसकर छुड़ाया जिससे उसका गला लाल हो गया। कुछ दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गयी। 

सद्गुरु रामानंद शिष्य कबीर के साथ पराविद्या (उड़ने की सिद्धि) से काबुल-पेशावर गये।बीच में कमाली का ससुराल आया तो मिलने पहुँच गये। कबीर यह देख चकित हुए पूर्व सूचना पहुँचने पर भी कमाली ने हाथ-मुँह धोने के लिये द्वार पर बाल्टी में पानी, अँगोछा लिये खड़ी थी। कमरे में २ बाजोट-गद्दी, २ लोटों में पीने के लिये पानी था। उनके बैठते ही कमाली गरम भोजन ले आयी मानो उसे पूर्व सूचना हो। कमाली से पूछा उसने बताया कि राँगा लगा अँगरखा से चूसकर रंग निकालने के बाद से उसे भावी का आभास हो जाता है। अब कबीर समझे कि रैदास बिना बताये कितनी बड़ी सिद्धि दे रहे थे। 

लौटने के कुछ समय बाद कबीर फिर रैदास के पास गये। प्यास लगी तो पानी माँगा। रैदास ने स्वच्छ लोटे में लाकर जल दिया। कबीर बोले: पानी तो यहीं कुण्डी में भरा है, वही दे देते। रैदास ने दोहा कहा: 
जब पाया पीया नहीं, मन में था अभिमान 
अब पछताए होत क्या, नीर गया मुल्तान 

कबीर ने भूल सुधारकर अहं से मुक्त हो अंतर्मन में छिपी प्रभु-प्रेम की कस्तूरी को पहचानकर कहा: 

कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माँहि 
ऐसे घट-घट राम है, दुखिया देखे नाँहि 

पिऊ देखन की आस 

सूफी संतों ने दोहा को प्रगाढ़ आध्यात्मिक रंग दिया: 

कागा करंग ढढ़ोलिया, सगल खाइया मासु 
ए दुइ नैना मत छुहउ, पिऊ देखन की आस -बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५ई.) 
प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख मोहिदी के शागिर्द, पद्मावत, अखरावट तथा आख़िरी कलाम रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी ने आज के भाषा विवाद के हल पारदर्शी दृष्टि से ५०० वर्ष पहले ही जानकर दोहा के माध्यम से कह दिया: 

तुरकी अरबी हिंदवी, भाषा जेती आहि 
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि 

प्रेमपथ के पथिक नानक ने भी दोहा को गले से लगाये रखा: 

इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस 
लखु-लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस - गुरु नानक (१५२६-१५९६) 

सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य लहरी रचयिता चक्षुहीन संत सूरदास (सं. १५३५-१६२०) ने दोहे को प्रगल्भता, रस परिपाक, नाद सौंदर्य आलंकारिकता, रमणीयता, लालित्य तथा स्वाभाविकता की सतरंगी किरणों से सार्थकता दी। सूर एक बार कुँए में पड़े, ६ दिन तक पड़े रहे। ७ दिन बाँकेबिहारी को पुकारा तो भक्तवत्सल भगवान ने आकर उन्हें बाहर निकाला। भगवन जाने लगे तो सूर की अंतर्व्यथा लेकर एक दोहा प्रगट हुआ जिसे सुन भगवान भी अवाक् रह गये: 

बाँह छुड़ाकर जात हो, निबल जानि के मोहि 
हिरदै से जब जाहिगौ, मरद बदूंगौ तोहि 

दोहा आदि से अब तक संतों का प्रिय छंद है: 

रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर 
साध मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनंद मूर - दादूदयाल (सं. १६०१-१६६०) 

बाजन जीवन अमर है, मोवा कह्यो न कोय 
जो कोई मोवा कहे, वो ही सौदा होय - बाजन 

उसका मुख इक जोत है, घूँघट है संसार 
घूँघट में वो छिप गया, मुख पर आँचर डार - बुल्लेशाह 

काला हंसा निर्मला, बसे समंदर तीर 
पंख पसारे बकह हरे, निर्मल करे सरीर - शेख शर्फुद्दीन याहिया मनेरी 

साबुन साजी साँच की, घर-घर प्रेम डुबोय 
हाजी ऐसा धोइये, जन्म न मैला होय - हाजी अली 

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय 
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय - बू अली कलंदर 

कागा सब तन खाइयो, चुन खइयो मास 
दू नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस -केशवदास, नागमती 

महाकवि तुलसी (सं.१५५४-१६८०) के जन्म, पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कार, श्रीराम-दर्शन, राम-कृष्ण अद्वैत, साकेतगमन तथा स्थान निर्धारण पर दोहा ही साथ निभा रहा था: 

पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर 
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर 

अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीत? 
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति 

चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर 
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर 

कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ 
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष-बाण लो हाथ 

संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर 
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर 

सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास 
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास 

सूर ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से निकलने की चुनौती दी तो रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) ने तुलसी को, माध्यम इस बार भी दोहा ही बना: 

जदपि गये घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं 
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं 

देनहार कोई और है: 

मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना (संवत १६१० - संवत १६८२) श्रृंगार बृज एवं अवधी से किया । प्रश्नोत्तरी दोहे उनका वैशिष्ट्य है - 

नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन? 

मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन। 

असि (अस्त्र)-मसि (कलम) को समान दक्षता से चलानेवाले अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) अपने इष्टदेव श्री कृष्ण की तरह रणभेरी और वेणुवादन का आनंद उठाते थे। रहीम दानी थे। महाकवि गंग के एक छप्पय पर प्रसन्न होकर उन्होंने एक लाख रुपयों का ईनाम दे दिया था। रहीम को संपत्ति का घमंड नहीं था। उनकी नम्रता देख गंग कवि ने पूछा: 

सीखे कहाँ नवाबजू, देनी ऐसी देन? 
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करें, त्यों-त्यों नीचे नैन 

रहीम ने तुरंत उत्तर दिया: 

देनहार कोई और है, देत रहत दिन-रैन 
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन 

उन्होंने दोहा को नट तरह कलाओं से संपन्न कहा: 

देहा दीरघ अरथ के, आखर थोड़े आहिं 
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि कूदि चढ़ि जाहिं 

दोहा एक दोहाकार दो: 

दोहा केवल दो पंक्तियों का छोटा सा छंद है. छंद को दो निपुण दोहाकारों ने पूर्ण किया। 

तुलसी की कुटिया में एक दिन एक याचक आया। प्रणाम कर कहा कि बिटिया के हाथ पीले करने हैं, धन चाहिए। रमापति राम में मन रमाये तुलसी की कुटिया में रमा कैसे रहतीं? विप्र समझ गया कि इन तिलों में तेल नहीं है सो निवेदन किया कि बाबा एक कविता लिख दें, तो काम बन जायेगा। तुलसी ने पूछा कविता से बिटिया का ब्याह कैसे होगा? याचक ने बताया कि समीप ही मुग़ल सेना का पड़ाव है, सेनापति सवेरे श्रेष्ठ कविता लानेवाले को एक मुहर ईनाम देते हैं। याचक की चतुराई पर मन ही मन मुस्कुराते बाबा ने कागज़ पर एक पंक्ति घसीट कर दी और पीछा छुड़ाकर पूजन-पाठ में रम गये याचक ने मुग़ल सेनापति के शिविर की ओर दौड़ लगा दी। हाँफते हुए पहुँचा ही था कि सेनापति तशरीफ़ ले आये, उसकी घिघ्घी बँध गयी। किसी तरह हिम्मत कर सलाम किया और कागज़ बढ़ा दिया। सेनापति ने कागज़ लेते हुए उसे पैनी नज़र से देखा, पढ़ा और पूछा तुमने लिखा है? याचक ने सहमति में सर हिलाया तो सेनापति ने कड़ककर पूछा सच कहो नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा। मन मन ही मन बाबा को कोसते याचक ने सचाई बता दी। सेनापति हँस पड़े, कागज़ पर नीचे कुछ लिखा और बोले यह कागज़ बाबा को दे आओ तो तुम्हें दो मुहरें ईनाम में मिलेंगी। सेनापति थे अब्दुर्रहीम खानखाना । कागज़ पर था एक दोहा जिसकी पहली पंक्ति तुलसी ने लिखी थी दूसरी रहीम ने: 

सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय 
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय 

प्रीत करो मत कोय: 

गिरिधर गोपाल की बावरी आराधिका मीरांबाई (१५०३ई.-१५४६ई.) के दोहे देश-काल की सीमा के परे व्याप्त हैं: 

जो मैं ऐसा जाणती, प्रीत किये दुःख होय 
नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न कीज्यो कोय 

दोहा रक्षक लाज का: 

महाकवि केशवदास की शिष्या, ओरछा नरेश इंद्रजीत की प्रेयसी प्रवीण विदुषी-सुन्दरी थीं। नृत्य, गायन, काव्य लेखन तथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर को दरबारियों ने उकसाया कि ऐसा नारी रत्न बादशाह के दामन में होना चाहिए। अकबर ने ओरछा नरेश को संदेश भेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर करें।नरेश धर्म संकट में पड़े, प्रेयसी को भेजें तो आन-मान नष्ट होने के साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में न भेजें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतरा।राज्य बचायें या प्रतिष्ठा? राज्य को बचाने लिये अकबर के दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए। अकबर ने महाकवि का सम्मान कर राय प्रवीण को तलब हरम में रहने को कहा। राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करते हुए एक दोहा कहा लौटने की अनुमति चाही। दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। बादशाह ने राय प्रवीण को न केवल सम्मान सहित वापिस जाने दिया अपितु कई बेशकीमती नजराने भी दिये। राय अस्मिता बचानेवाला दोहा है: 
बिनत रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान। 
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥ 
दोहा साक्षी समय का: 
मुग़ल सम्राट अकबर हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने के लिये बेक़रार रहता था। 
गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। महारानी का चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में काँटे की तरह गड़ रहे थे। अधारसिंग के कारण सुव्यवस्था तथा सफ़ेद हाथी कारण समृद्धि होने का बात सुन अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा- 
अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान. 
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान. 

मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। दरबार में अधारसिंह ने सिंहासन खाली देख दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की।चमत्कृत अकबर ने अधार से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधारसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर न दिखने पर अन्य जानवर उस पर निगाह रखते हैं वैसे दरबारी उन पर नज़र रखे थे इससे अनुमान किया। अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और दरबार में रहने को कहा। अधारसिंहने चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर ने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है- 
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान? 
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान? 

इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान. 
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान. 

असाधारण बहादुरी से लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती देश पर शहीद हुईं। मुग़ल सेना ने राज्य लूटा, भागते हुए लोगों और औरतों तक को । महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता दुर्गावती को श्रद्धांजलि देने के लिये समाधि के समीप सफ़ेद पत्थर एकत्र किये, जो भी वहाँ से गुजरता एक सफ़ेद कंकर समाधि पर चढा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय इस परंपरा का पालनकर आजादी के लिये संघर्ष का संकल्प लिया गया। दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है- 
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर. 
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर. 
अर्थात बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा से प्रेरित हो आपकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं। 
महाकवि गंग का अंतिम दोहा: 
'तुलसी-गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार' प्रसिद्ध महाकवि गंग (सं. १५३८-१६१७) मुग़ल दरबारियों के षड्यंत्र के शिकार हुए, उन्हें क्षमायाचना का हुक्म मिला किन्तु स्वाभिमानी कवि स्वीकार नहीं हुआ. हाथी के पैर तले कुचलवाने का आदेश मिलने पर उन्होंने गज में गणेश-दर्शन कर कर बिदा ली: 
कबहुँ न भडुआ रन चढ़ै, कबहुँ न बाजी बंब 
सकल सभहिं प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग 
माई एहणा पूत जन: 
दुर्गावती के बाद अकबर की नज़र में चित्तौरगढ़ महाराणा प्रताप (१५४० ई.-१५९७ई.) खटकते रहे। प्रताप की मौत पर कवि पृथ्वीराज राठौड़ रचित दोहा अकबर को उसकी औकात बताने में नहीं चूका: 
माई! एहणा पूत जण, जेहणा वीर प्रताप 
अकबर सुतो ओझके, जाण सिराणे साँप 
तानसेन के तान: 
अकबर के नवरत्नों में से एक महान गायक तानसेन नमन करता दोहा की गुणग्राहकता देखिए: 
विधना यह जिय जानिकै, शेषहिं दिये न कान 
धरा-मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान 
दोहा रोके युद्ध भी: 
मुग़ल दरबारियों ने अकबर के साले और नवरत्नों में अग्रगण्य पराक्रमी मानसिंह को चुनौती दी कि उन्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो श्रीलंका को जीतकर मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिखाएँ। मानसिंह से समक्ष इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआं ही धुआँ' की हालत पैदा हो गयी। दूर सेना ले जाकर, समुद्र पार युद्ध अति खर्चीला, सैनिक जाने को तैयार नहीं, जीत की सम्भावना नगण्य, बिना कारण युद्ध हेतु न जाएँ तो सम्मान गँवाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में राजगुरु द्वारा कहा गया निम्न दोहा संकटमोचन सिद्ध हुआ: 
विप्र विभीषण जानी कै, रघुपति कीन्हों दान 
दिया दान किमि लीजियो, महामहीपति मान 
सूर्यवंशी मानसिंह अपने पूर्वज श्रीराम द्वारा बाद विप्र विभीषण को दाम में दी गयी लंका कैसे वापिस लें? दोहे ने युद्ध टालकर असंख्य जान-धन की हानि रोक दी। 
मतिराम के अलंकारिक दोहा की रूप छटा मन मोहती है: 
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ 
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास 
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल 
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक 
अजगर करे न चाकरी 
सुखवादियों सिद्धांत सूफियों से बिलकुल उलट होने पर भी दोनों में दोहा-प्रेम समान है।रत्नखान और ज्ञानबोधकार मलूकदास (सं. १६३२-१७३९) ने डूबते शाही जहाज को पानी से निकालकर बचाया और रुपयों का तोड़ा उफनाती गंगा में तैराकर कड़ा से इलाहाबाद भेजा। 

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम 
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम 

सुखवादियों को चड़वांक / चार्वाक कहकर लोक ने उन पर व्यंग्य किया। उसका वाहक दोहा ही हुआ: 

परे पराई पौर में, बनी बनाई खाँय 
रिन-धन कौ खटका नहीं, काए खें दुबराँय 

दोहा आँखें खोलता: 

जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह जब कमसिन नवोढ़ा रानी के रूपजाल में बँधकर कर्तव्य भूल बैठे तो राजगुरु महाकवि बिहारी (सं.१६६०-१७२०) ने मारक दोहा पढ़कर उन्हें दायित्व बोध कराया: 

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल 
अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल? 

महाराज एक दोहा सुनते और एक अशर्फी समर्पित करते। ऐसे ७०० दोहों से बिहारी की दोहा सतसई बनी। श्लेष, वक्रोक्ति, श्रृंगार की त्रिवेणी बिहारी के दोहों में सर्वत्र प्रवाहित है। 

मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय 
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय 

कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलअत लजियात 
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात 

मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने कुटिलतापूर्वक राजा जयसिंह को मु ग़ल सेना के साथ शिवजी से युद्ध का आदेश दिया। विजय हो तो श्रेय सेना को मिलता, पराजय का ठीकरा जयसिंह फोड़ा जाता। एक बार फिर महाकवि बिहारी ने दोहा को हथियार बनाया और जयसिंह को आत्मघाती युद्ध पर जाने से रोका: 

स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देख विहंग विचार 
बाज पराये पानि पर, तू पंछीन न मार 

दोहा रसनिधि अमर है: 

ठाकुर पृथ्वीसिंह 'रसनिधि' (सं. १६६०-१७१७) ने सतसई हजारा तक पहुँचाया।रसनिधि का वैशिष्ट्य परिमार्जित बृज भाषा में फारसी के तत्सम शब्दों का प्रयोग, तथा प्रसाद गुण प्रधान शैली है: 

हिन्दू मैं क्या और है, मुसलमान मैं और? 
साहिब सबका एक है, व्याप रहा सब ठौर. 

लोक-प्राण दोहा बसे: 

दोहा विद्वज्जनों और जनसामान्य दोनों के कंठ में वास करता है। वृंद (१६४३ई.-१७२३ई.) रचकर जनमानस को आत्मानुशासन का पाठ पढ़ाया। उनके दोहे कहावत बनकर अमर हो गये: 
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौरि 
तेते पाँव पसारिये, जेती लाम्बी सौरि 
मतिराम (सं.१६७४-१७४५) के अलंकारिक दोहों की रूप छटा मन मोहती है: 
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ 
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास 
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल 
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक 
धीरे-धीरे रे मना: 
बुंदेलखंड में संतों ने दोहा की नर्मदा को सतत प्रवहमान बनाये रखा. विस्मय है कि आज साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और भाषिक मतभेद के जिन विवादों से राष्ट्रीय एकता संकट है, उनके समाधान संतों ने सुझाये हैं। महामति प्राणनाथ (१६५८-१७०४ ई.) ने औरंगज़ेब की दमनकारी नीतियों का विरोधकर राष्ट्रीय गौरव के पर्याय छत्रसाल को समर्थन और सर्व धर्म समभाव का उपदेश दोहा माध्यम से दिया: 
बाम्हन कहे हमहि उत्तम, यवन कहे हम पाक 
दोउ मिट्टी इक ठौर की, एक राख इक खाक 
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय 
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय 
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय 
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय 
छत्रसाल औरंगजेबी दमन विरुद्ध जननायक तरह लोकप्रिय हुए 
चौंकि-चौंकि सब दिस उठै, सूबा खान सुभान 
अब धौं धावै कौन पर, छत्रसाल बलवान 
छत्रसाल खुद भी निपुण दोहाकार थे: 
निज स्वारथ सौं पाप नहिं, परस्वारथ सौं पुन्न 
दिए इकाई सुन्न ज्यों, हो छत्ता दसगुन्न 
छत्रसाल (१६८८-१७३१ ई.) की वृद्धावस्था में पर मुग़ल सिपहसालार मुहम्मद खां बंगश ने भारी भरकम लाव लश्कर के साथ हमला कर दिया। डूबते को तिनके का सहारा, काम आया दोहा जो छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को लिख भेजा: 
जो बीती गजराज पे, सो बीती अब आय 
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज 
दोहा ने पेशवा का मर्म छुआ, उनकी ताकतवर फ़ौज ने बंगश की मुग़ल फ़ौज को धूल चटा दी। 
प्राणनाथ के शिष्य देवचंद कायस्थ दोहा को धार्मिक सहिष्णुता का संदेशवाहक बनाया: 
ए जो मोहरे खेल के, धरते भेख विवाद 
एक भान पूजा धरें, कहते होत सबाब 
महाकवि देव (सं. १७३०-१८३२) ने प्रेम के संयोग पक्ष तथा मानवर्णन को सांगीतिक उल्लास सहित दोहों का कथ्य बनाया। प्रथमतः शब्द शक्तियों पर दोहे कहे: 
अमिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन 
अधम व्यंजना रस बिरस, उल्टी कहत नवीन 
प्रतापगढ़ निवासी भिखारीदास श्रीवास्तव (सं. ) श्रीवास्तव ने नायिका वर्णन कर दोहा को समृद्ध किया: 
श्रीमानन के भौन में, भोग्य भामिनि और 
तिनहूँ को सुकियाह में, गनें सुकवि सिरमौर 
घनानंद कायस्थ (सं. १७४६-१७४६) के काव्य में शुद्धता,लाक्षणिक वक्रता, शैल्पिक सौष्ठव तथा माधुर्य अन्तर्निहित है: 
मो से अनपहचान को, पहचाने हरि कौन? 
कृपा कान मद नैन ज्यों, त्यों पुकार मति मौन 
गिरधर कविराय (सं.१७७०- ) ने दोहा को कुंडलियों का शीश मुकुट बनाया: 
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय 
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय 
सैयद नबी बिलग्रामी "रसलीन"(सं. १७७१-१८३२) ने दोहों को रचना चातुर्य, उक्ति वैचित्र्य तथा चमत्कारिकता से समृद्ध किया: 
अमिय हलाहल मदभरे, स्वेत-स्याम रतनार 
जियत मरत झुक-झुक परत, जेहि चितवत इक बार 

रीतिकालीन दोहाकारों की मणिमाला के अप्रतिम रत्न पद्माकर (सं. १८१०- १८९०) मधुर कल्पना को रस, भाव तथा अलंकार की त्रिवेणी से अलंकृत कर दोहा रचते रहे: 

मनमोहन तन सघन घन, रमन राधिका मोर 
श्री राधा मुखचंद को, गोकुल चंद चकोर 

दोहा देता दिल मिला... 
सिद्धहस्त दोहाकार आलम (जन्म से ब्राम्हण) दोहे का पहला पद लिखने के बाद पूरा सके तो संकल्प किया जो दोहा पूरा करेगा उसकी एक इच्छा पूरी करेंगे। वे दोहे की पर्ची पगड़ी में खोंसकर सो गये। शेख नामक रंगरेजिन धोने के लिये ले गयी, अधूरा दोहा पढ़ा, पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगड़ी में रख कर दे आयी। कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी। पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया, खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा था। चिंता हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने संकल्प के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी। आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया। शेख ने दोहा पूरा करना कुबूल किया, वह आलम को चाहती थी। मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... शेख कोई दूसरी इच्छा बताने को राजी न हुई, न आलम अपनी बात से पीछे हटाने को। आलम ने मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली। दो दिलों को जोड़नेवाला वह अमर दोहा है - 
कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन? -आलम 
कटि को कंचन काढ़ विधि, कुचन माँहि धरि दीन -शेख 
राधापति हिय मैं धरौं: 
अनेक कवियों के आश्रयदाता चरखारी नरेश विक्रम सिंह (१८३९-१८८६) के दोहे हृदयग्राही हैं: 
राधापति हिय मैं धरौं, राधपति मुख-बैन 
राधापति नैनन लहौं, राधापति सुखदैन 
पंकज के धोखे मधुप, कियो केतकी संग 
अंध भयो कंटक बिधौ, भयो मनोरथ भंग राम सतसई, वाणीभूषण, वृत्त तरंगिणी आदि ग्रंथों के रचयिता रामसहाय अष्ठाना 'राम' ( रचनाकाल १८६०-१८८०) दोहे भाषिक सौष्ठव, मनोरम व्यञ्जनाविधान तथा वाग्वैदग्धता के लिये उल्लेख्य हैं: 
हरितन हरितन कत तकै, हरितन हरित निहारि 
चरित न तो तन लखि परै, कित चित हित न बिसारि 
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रूचि जोरि 
छूटे बाँधत हैं बँधे, लेत ललन मन छोरि 
बुंदेली के महाकवि ईसुरी (सं.१८९५-१९६६) श्रृंगार और आध्यात्मजड़ित दोहे और फागें रचकर अमर हैं: 
आसमान में गरजना, कीको आय सुनाय 
रिमझिम बरसत नीर है, बिजुरी खों चमकाय 
लोकगीत राई ने दोहे को दिल में बसा रखा है: 
बजाई आधी रात, बैरन मुरलिया सौत भई 
पोर-पोर सब तन कटे, हरे न औगुन तोर 
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित्त बटोर 
बैरन मुरलिया तू सौत भई.… 
विरह व्यथा का ह्रदय विदारक वर्णन हो या घोर श्रृंगार, ईश वंदना से ही गायन आरंभ होता है: 
गिरिजसुत को सुमिरै कैं, धर सुरसती को ध्यान 
आदिशक्ति जगजननि जू, कण्ठ बिराजो आन 
आधुनिक हिंदीभवन के नींव के पत्थर भारतेंदु हरिश्चंद्र रचित दोहा नेता कंठस्थ कर सके होते हिंदी की दुर्दशा का कारण न बनते: 
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल 
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल 
रीतिकालीन दोहायुग की कीर्ति पताका थामकर गिरिधर दास ( गोपालचन्द्र सं. १८९०-१९१७) मात्र २७ वर्ष की आयु में ४० ग्रंथ रचकर हिंदी को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने पुत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र के माध्यम से नव संस्कार भी किया: 
सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय 
नैन बान नैनन लग्यो, भरे करेजे धाय 
निज भाषा उन्नति अहै: 
प्राण-प्रण से हिंदी हेतु समर्पित भारतेंदु हरिश्चंद्र (१८५०-१८८५ई.) ने दोहा के साथ अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया: 
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल 
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल 
महाप्राण निराला जी (१८९६-१९६१ ई.) महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। असत्य, भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। उनके प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव के दोहा संकलन का विमोचन समारोह था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते॰खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कहा, निराला जी चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खडे होकर बडी॰बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया। वह दोहा है: 
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल? 
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल? 
दोहा लगभग २००० वर्ष की यात्रा कर वर्तमान आधुनिक हिंदी के द्वार पर आ खड़ा हुआ। छंदहीनता के पक्षधर तथाकथित प्रगतिशील तत्वों की चुनौती झेलकर दोहा को नवस्फूर्ति के साथ सामायिक और प्रासंगिक बनाये रखने में अनेक समर्थ कलमों के योगदान पर चर्चा फिर कभी। नव पीढ़ी में हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित भाषा को ग्रहण करता दोहा नव प्रतीकों, बिम्बो, उपमानों से खुद को समृद्ध कर संजीवनी पा रहा है: 
पल भर भी लगता नहीं, सपने हों अपलोड 
निकल गयी सब ज़िंदगी, हुए न डाउनलोड 
रैम-रॉम के फेर में, मॉनीटर संसार 
कुछ भूले कुछ याद रख, कर दे बड़ा पार 
हिंग्लिश की खिचड़ी पकी, वैलेंटाइन नाम 
भूल वसन्तोसव रहे, साध्य न मन, है चाम 
*** 
संदर्भ:१. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४, २. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७, ३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ४. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०.

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