कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

राहत इंदौरी

विमर्श :
राहत इंदौरी : क्या महान शायर था?

सच तो यह है कि किसी व्यक्ति की महानता को परिभाषित करना इस संसार का सर्वाधिक विवादास्पद विषय है। सिर्फ उर्दू शायरी की बात करें, तो न जाने कितने ही शायर ऐसे रहे जिनकी रचनाओं को उनके जीवित रहते पहचान तक न मिली, जिन शायरों को जीते जी दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा आज उनकी गिनती महान शायरों में होती है। राहत इंदौरी इसमें अपवाद रहे क्योंकि उनके जीवनकाल में ही लोकप्रियता के साथ-साथ उन पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा रही।  राहत इंदौरी में खास बात यह थी कि उन्होंने आम जनता की पसंदगी की नब्ज पकड़ ली थी। राहत  ने उर्दू शायरी को न सिर्फ आम आदमी तक पहुँचाया बल्कि उर्दू शायरी को लोकप्रियता की अभूतपूर्व ऊँचाइयों पर ले जाकर खड़ा कर दिया। राहत इंदौरी का नाम न सिर्फ उर्दू मुशायरों बल्कि हिंदी काव्य सम्मेलनों में भी सफलता की गारंटी समझा जाता था। 
राहत इंदौरी ने शायरों के साथ जुड़ी , गरीब, बेचारा, असहाय, बर्बाद ,टूटे दिल वाले और दीन दु:खी जैसी न जाने कितनी धारणाओं को समाप्त किया। राहत इंदौरी की अहंकार से भरपूर अदायगी और अंदाज इस कदर अनोखा और सम्मोहक था कि उनके साधारण शेर भी सिर्फ उनकी अदायगी के कारण अपने मूल्य से कई गुना ज्यादा दाद लेे जाते थे। राहत किसी पॉप स्टार की तरह सुनने वाली भीड़ में जुनून तारी कर देने वाला शायर था। स्टेज से शायरी करते हुए राहत ने सत्ता पक्ष और विरोध पक्ष के नेताओं और मीडिया और यहाँ तक कि मुल्ला और मौलवियों की बखिया उधेड़ने का काम बख़ूबी और बेख़ौफ होकर किया। एक बार एक मुशायरे में सामने बैठे तथाकथित माननीय नेताओं के सामने ही ये शेर पेश करने की हिम्मत की…
बनके एक हादसा बाजार में आ जाएगा                                                                                              जो नहीं होगा, वो अखबार में आ जाएगा                                                                                          चोर, उचक्कों की करो कद्र कि मालूम नहीं…                                                                                          कौन कब कौन सी सरकार में आ जाएगा
भविष्य में जब भी उर्दू के लेेजेंडरी शायरों का नाम लिया जाएगा राहत इंदौरी का नाम उस फेहरिस्त में जरूर होगा। 
अब इस शायर का एक दूसरा पहलू…
इसी के साथ साथ करीब पंद्रह साल पुरानी घटना मेरे जहन में यूँ ताजा हो गई जैसे कल ही हुई हो… दरअसल मेरे पिता कहते थे कि पुराने ज़माने में लोग अपने बच्चों को तहजीब सीखने के लिए मुशायरों में भेजा करते थे। मेरे पिता उर्दू भाषा का जानकार होने के कारण उर्दू शेरो शायरी का शौक मुझे उनसे विरासत में मिला। सूरत में स्थापित होने के बाद मेरे पिता के मित्र जनाब आज़म भाई घड़ियाली हमारे पड़ोसी थे उनसे भी परिचय हुआ, आज़म भाई की भी शेर ओ शायरी में गहरी रुचि थी। उर्दू अदब और शेर ओ शायरी की समझ रखने वालों में आज भी सूरत शहर में आज़म भाई का नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है। कुछ ही समय में शेरो शायरी के शौक के कारण मेरे पिता की आजम भाई से गहरी मित्रता हो गई।  उन्हीं दिनों सूरत शहर के नामी और मशहूर डॉक्टर दंपत्ति से मेरा परिचय हुआ।जल्दी हमारी जान पहचान मित्रता में बदल गई। धीरे-धीरे उन डॉक्टर पति पत्नी को भी उर्दू शायरी का चस्का लग गया। इस बीच सूरत शहर के अंदरूनी इलाके में एक भव्य मुशायरे का निमंत्रण मिला जिसमें जनाब राहत इंदौरी भी हिस्सा ले रहे थे। डॉक्टर दंपति ने उस मुशायरे में हमारे साथ चलने की इच्छा जताई। मैं और मेरी पत्नी ,डॉक्टर दंपति के साथ मुशायरे में पहुँचे। मुशायरा सूरत शहर के अंदरूनी मुस्लिम बहुल इलाके में एक बड़े हॉल में रखा गया था। 
उस जमाने में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और सूरत गुजरात के दंगों से उपजी नफरतों और कड़वाहटों से उबरने की कोशिश कर रहा था। आज़म भाई और उनके नजदीकी मित्रों ने हम चारों के अगवानी की और बेहद सम्मान से हमको वीआईपी सीटों पर बिठाया। थोड़ी देर बाद मैंने हॉल में चारों तरफ नजर घुमाई। पूरा हाल दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था, पूरे हॉल में आगे की सीटों पर आठ दस महिलाओं को छोड़ कर चारों तरफ दाढ़ी और टोपियों वाले पुरुषों के ही दर्शन हो रहे थे। पूरे हॉल में संभवत: हम चार लोग ही ऐसे थे जो गैर मुस्लिम थे। मुशायरा शुरू हुआ… एक के बाद एक शायर आने लगे। 
मैं बार-बार अपने डॉक्टर मित्र उसकी पत्नी की चेहरे की तरफ देखता कि उनको अच्छा लग रहा है या नहीं ?लेकिन मुझे देख कर अच्छा लगा कि उन दोनों को आनंद आ रहा था। हम चारों उस मुशायरे को खूब एंजॉय कर रहे थे। लंबी प्रतीक्षा के बाद रात को डेढ बजे सबसे आखिर में "जनाब राहत इंदौरी" का स्टेज पर किसी महान हस्ती की तरह आगमन हुआ… पूरे हॉल के श्रोताओं में उन्माद की लहर दौड़ गई… जनाब राहत इंदौरी ने माइक संभाला और चेतावनी के रूप में धीमी और गंभीर आवाज में उनके मुँह से पहला वाक्य प्रसारित हुआ…एक बात कान खोल कर सुन लो सूरतवालो… जब तक मैं स्टेज पर हूँ कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा… सबकी तवज्जो सिर्फ और सिर्फ मेरी तरफ होनी चाहिए… इतने में एक दर्शक ने उठकर बाहर जाने की कोशिश की… ए लाल कमीज !!!चुपचाप बैठ जा… बड़े आये मुशायरा सुनने वाले… बैठ जा… राहत ने स्टेज से खड़े-खड़े ही उस दर्शक को डाँट लगा दी। बेचारा दर्शक गहरी शर्मिंदगी के साथ सहम कर अपनी सीट पर वापस बैठ गया… लेकिन पब्लिक को राहत का यही अंदाज़ पसंद था… राहत ने अपना मुँह माइक के पास रखा… पूरे हॉल में पिन ड्रॉप साइलेंस हो गई… सन्नाटे में अचानक राहत की आवाज गूँजी….
सिर्फ खंजर ही नहीं, आँखों में पानी चाहिए…
राहत ने एक ही लाइन को दो तीन बार रिपीट किया… लोग दूसरी लाइन को सुनने के लिए बेताब हो रहे थे…
ऐ खुदा…. दुश्मन भी मुझको ख़ानदानी चाहिए
शेर सुनकर हॉल की पब्लिक अपनी सीटों से उछल पड़ी… बस इसके बाद तो पूरा हॉल राहत इंदौरी की गिरफ्त में आ गया… एक के बाद एक खूबसूरत शेर निकलने लगे…
मैं खोलता हूँ सीप मोतियों के चक्कर में                                                                                                तो वहां से भी समंदर निकलने लगते हैं 
अगर खयाल भी आए कि तुझको खत लिखूँ                                                                                        तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
किसने दस्तक दी, ये दिल पर कौन है???                                                                                         आप तो अंदर हैं बाहर कौन है???
मेरे मित्र डॉक्टर दंपत्ति के चेहरे पर खुशी झलक रही थी…
लेकिन अचानक राहत इंदौरी का मूड बदल गया… वह अचानक नाजुक असली शायरी से हटकर द्विअर्थी, घटिया और राजनीतिक शायरी पर उतर आए… और सत्ता पक्ष के विरुद्ध आग उगलती हुई शायरी करने लगे…
जवान आँखों में जुगनू चमक रहे होंगे                                                                                              अब अपने गाँव में अमरूद पक रहे होंगे
इस निर्दोष से दिखने वाले शेर को अपने भद्दे इशारों से बता दिया कि "अमरूद" ' से उनका क्या तात्पर्य है। यहाँ बैठा हरेक नौजवान समझ गया होगा कि "अमरूद" से मैं क्या कहना चाहता हूँ .. राहत ने समझाया। मेरे साथ आई दोनों महिलाएँ का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उन्होंने मेरी तरफ देख कर कहा, आप तो कह रहे थे 'बड़ा महान शायर है?' ये तो मदारी जैसी हरकतें कर रहा है ?
मैं निरुत्तर हो गया… लेकिन "राहत" शेरो शायरी में अदब और शालीनता की सभी सीमाएँ लाँघते गए…
अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूँ                                                                            वह मुझ को मुर्दा समझ रहा है, उसे कहो मैं मरा नहीं हूँ
इधर श्रोता राहत के समर्थन में पागल हुए पड़े थे …शोरगुल से उन्होंने पूरा हॉल सर पर उठा लिया था. दूसरी तरफ घबराहट के मारे हम चारों के चेहरे के रंग उड़ गए थे… हम चारों के मन में एक ही बात थी यदि यह भीड़ हिंसक हो गई तो??? पैनिक में हम चारों ने एक दूसरे के हाथ कसकर थाम लिए।  हमारी घबराहट को भाँपकर पिछली सीटों पर बैठे आज़म भाई और उनके मित्रों ने हमें सांत्वना देने की कोशिश की लेकिन हमारा डर और चिंता बढ़ती जा रही थी। हमने बीच में से उठने की कोशिश की लेकिन देखा तो उन्मादी श्रोता सीढ़ियों के बीच में भी बैठे हुए थे। ऐसे में बाहर निकलना नई मुसीबत को आमंत्रित करना हो सकता था… उधर "राहत इंदौरी" हमारी घबराहट से बेखबर और भी ज्यादा उत्तेजित करने वाली शायरी करने लगे -
जो आज साहिबे मसनद (राजगद्दी) हैं कल नहीं होंगे, किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है …
सभी का खून है शामिल यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है ???
एक तो राहत इंदौरी के तीखे अल्फाज ऊपर से उनका भयानक अंदाज… उस दिन मुझे एहसास हुआ की कलम में कितनी ताकत होती है… खैर जैसे-तैसे करके मुशायरा खत्म हुआ… आजम भाई और उनके मित्र हमें बाहर कार तक छोड़ने आए… डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी को तो मानों डर से चुप्पी लग गई… दस मिनट के बाद डॉक्टर साहब ने अपना मुँह खोला 'बबल भाई, आज के बाद शेरो शायरी को अपना दूर से नमस्कार…'              ★
मेरा आकलन - 
राहत इंदौरी एक औसत दर्जे के शायर थे जिन्हें कभी भी लीजेंड्री शायरों की फहरिस्त में जगह नहीं दी जा सकती। वे आम श्रोताओं को उत्तेजित करनेवाले विवादास्पद और साम्प्रदायिकता भड़कानेवाले शे'र पढ़ते थे बिना इस बात की फ़िक्र किए कि इससे सामाजिक सद्भाव बिगड़ेगा। राहत एक अहंकारी शायर थे जिनकी नज़रों में श्रोता का कोी सम्मान न था, वे श्रोता को जरखरीद गुलाम की तरह फटकारते थे।  आकाशवाणी जबलपुर के मुशायरे में राहत ने शिव जी पर एक भद्दी टिप्पणी करते हुए शेर पढ़ा। शब्द ठीक से याद नहीं हैं, भाव कुछ इस तरह थे -                      दोस्तों! आसान है शंकर बनना                                                                                                                 चार जामुन खा लिए और होंठ नीले कर लिए                                                                                              बहुतों को नागवार गुजरा, पर बोलने की हिम्मत किसी में न हुई। मैंने तुरंत आपत्ति दर्ज की और मुशायरा छोड़ दिया। उसके बाद आज तक आकाशवाणी ने मुझे प्रसारण के लिए नहीं बुलाया।                                                              राहत ने हिन्दुओं का तरह बार-बार अपमान किया जो नाकाबिले-बर्दाश्त था और है। ईसाई या इस्लाम के खिलाफ राहत कुछ न बोल सके।  

कोई टिप्पणी नहीं: