पुस्तक चर्चा:
सूरज भी क्यों बंधक - शिवानंद सिंह सहयोगी
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
गीत का प्राणतत्व गेयता है, जिसमें लयात्मकता हो, ध्वन्यात्मकता हो और संगीतात्मकता हो – वही सार्थक शब्द रचना गीत कहलाती है। सृष्टि स्वयं लयात्मक है जिसमें एक लय है, एक स्पंदन है और एक सक्रियता का वेग है। जहाँ यह लय नहीं है वहाँ प्रलय का तांडव होने लगता है। यही कारण है कि आदि काल से गीति काव्य धारा लोक जीवन से सम्पृक्त सतत प्रवाहित होती चली आ रही है। आदिम मनोभावों की अभिव्यंजना गीतों में सहज सम्भाव्य है जिसमें भाव की तीव्रता और सौन्दर्यबोध की विलक्षणता निहित होती है। गीत प्रसूता नवगीत अद्यतन परिवेश में अपना स्वरूप निखार रहा है जिसे पूर्व में प्रगीत, जनगीत आदि नामों से पुकारा गया। सम्प्रति नवगीत गीत का परिष्कृत और परिमार्जित संस्करण है जिसमें रचनाकारों ने सहजता, सरलता एवं सुगमता के आधार पर उन्मुक्तता को अंगीकार किया है।
उपभोक्तावादी प्रवृत्ति, बाजारवादी संस्कृति एवं प्रतियोगितावादी वृत्ति से किसी न किसी रूप में रचनाकार प्रभावित हुआ है। वैश्विक स्तर पर द्रुतगति से परिवर्तन हो रहे हैं। साहित्य और साहित्यकार भी सम्प्रति भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में अपने को अछूता नहीं रख सका है जिसके परिणाम स्वरूप शार्टकट और द्रुतगति से लेखन हो रहा है। रचनाधर्मिता का निर्वहन प्रतियोगिता-जगत में उत्पादन पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए किया जा रहा है। कोई भी रचनाकार किसी भी विधा या किसी भी काव्य रूप में पीछे रहना नहीं चाहता। यही कारण है कि गीतकारों ने भी नवगीत के प्रति अपनी काव्य-प्रतिभा का दिग्दर्शन किया है जिसकी परिणति में शिवानन्द सिंह “सहयोगी” का नवगीत संग्रह “सूरज भी क्यों बन्धक” प्रकाशित है।
समीक्ष्य कृति में एक सौ छ: रचनायें हैं, जिनमें बहुविषयक भावानुभूति की अभिव्यंजना काम्य सिद्ध है। गूँगी गरम हवायें आवाजाही करती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि नल की लापरवाही से पियास की छीना झपटी हुई है। गरीबी के कारण चाँदी की सिकड़ी भी कई साल से गिरवी रखी है। ग्राम्य संस्कृति से प्रभावित रचनाकार पाकड़, पीपल एवं नीम की छाँव में ही विश्राम लेता है तथा ढोल की थाप गाँव में सुनकर रसानुभूति करता है क्योंकि,
गीत गाँव के रहनेवाले
शहर ठिकाना है
धूप-छाँह का आना-जाना
एक बहाना है (पृष्ठ-२५)
भोजन के टेबल की थाली को रोटी माँगते हुये रचनाकार ने खुली आँखों से देखा है। सामाजिक विषमताओं, अस्त-व्यस्त व्यवस्थाओं एवं जीर्ण-शीर्ण अवधारणाओं को आनुभूतिक धरातल पर अभिव्यंजित किया गया है जिसमें राष्ट्रीय ज्वलंत समस्याओं को भी वर्ण्य-विषय बनाया गया है। संवेदनशील रचनाकार साम्प्रतिक वातावरण और परिवेश से क्षुब्ध है, दुखी है, देखें-
पाल रही है अपना बच्चा
ठटरी महुआ बीन
कुरसी-कुरसी बैठ गया है
वंशवाद का जीन
खुला हुआ आतंकवाद का
टोला-टोला जीम (पृष्ठ-२८)
राजनीतिक परिवेश और राजनीतिक प्रदूषण पर भी चिंता व्यक्त की गई है। सड़क से संसद तक यह प्रदूषण सर्वत्र व्याप्त है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं फिर भी राजनेता कुरसी पर आज भी काबिज हैं। प्रजातन्त्र माखौल बनकर रह गया है। शासन-प्रशासन मौन हैं। राजनेता स्वार्थपरता की रीति-नीति में रत हैं। व्यंग्योक्ति द्रष्टव्य है,
भूख-प्यास का कैसा अंतर
कैसी दिल्ली जंतर-मंतर
कैसा गँवई कैसा शहरी
अर्थनीति की खिंचड़ी-तहरी
साँस-साँस है आहत-आहत
अवगत नहीं प्रशासन आला
गीत कहानी कविता मौन
इनकी बिजली काटे कौन? (पृष्ठ-३१)
रोजी-रोटी के लिए लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं और शहर में भीड़ कर रहे हैं तथा मजबूरी में शहर में बने हुये हैं। चमक-दमक का गिरवी होना, सूरज तक का बन्धक होना, भौतिकता में सभी का लिप्त होना, सुन्दरता की अँगूठी में काँटों का नग होना, अव्यवस्था, असमानता एवं अस्त-व्यस्तता का प्रतीक है। मनचली हवायें, खेतों की हरियाली की गह गह, गाती घटायें, कमर हिलाती भदई आदि ने मनमोहक वातावरण उत्पन्न कर दिया है। व्यंजना से आपूरित शब्दावली प्रयोग करनेवाले, वर्णमाला को सुघर रूप में पिरोनेवाले तथा वेदना से काव्यविधा को विधा हुआ देखनेवाले रचनाकार की स्पष्टोक्ति है-
खिलखिलाहट भरी जिन्दगी
छंद शबनम लिए चल पड़ी
हलचलों की छिड़ी रागिनी
वर्तनी की कली खिल पड़ी
भावना का मुखर अवतरण
शब्द का संकलन हो गया (पृष्ठ-३९)
जातिवाद, क्षेत्रवाद, राजनीतिक प्रपंच, धर्म भेद, भीड़ भाड़, वादों का बाजार, आपाधापी, छीना झपटी आदि के कारण रचनाकार अफसोस जाहिर करता है। गंगासागर भी खारा-खारा लगता है तथा आजादी के बाद भी आजतक राशन कंगाल दिखता है क्योंकि-
सड़क किनारे जहाँ खड़ा है
लफड़ा रोटी का
रोज-रोज का एक झमेला
रगड़ा रोटी का (पृष्ठ-४५)
उसे आत्मानुभूति को अभिव्यंजित करने के लिये बाध्य करते हैं। कागज के टुकड़े वाद के प्रतीक हैं जबकि नदी की देह विरहाग्नि का द्योतन करती है। ग्रामीण आँचल में जन्मा, पला-बढ़ा रचनाकार प्रौढ़ावस्था में भी उसी खाटी माटी की गंध में अपने को सुवासित करना चाहता है क्योंकि उसका संस्कार पुन: उसी पुरातन परिवेश में, स्वर्णिम अतीत में लौटने को विवश करते हैं। अभिव्यंजना साक्ष्य है-
माटी की वह धूल भुरभुरी
मेरा खेल-खिलौना होती
लंगड़ी-बिछिया छीना-झपटी
मेरी माया मेरा मोती
धूल रगड़कर हाथ-पैर में
बचपन ढोया और बढ़ा हूँ (पृष्ठ-४८)
गीतों में तुकान्त शब्दावली का प्रयोगधर्मी रचनाकार नवगीतों में भी उसी लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं संगीतात्मकता का आग्रही दिखाई पड़ता है तथा स्वस्थ परम्परानुमोदन का पक्षधर भी है। वह नव्य प्रयोग उसी सीमा तक करना चाहता है जहाँ तक भारतीय संस्कृति, मानवीय मूल्य और स्वस्थ परम्पराओं पर प्रहार न होता हो। उसका लकीर का फकीर बनने में विश्वास नहीं है। यही कारण है कि उसके अधिकांश नवगीत गेयता, लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं संगीतात्मकता से आपूरित हैं, समन्वित हैं एवं मंडित हैं। शब्दानुशासन को सतर्कतापूर्ण कायम बनाये रखने में रचनाकार दक्ष हैं, कुशल हैं एवं सक्षम हैं। लोकमानस की रागात्मकता और बौद्धिकता को संतुष्ट करनेवाली ये रचनायें निश्चय ही नव्य-चिंतन की परिणति हैं। साम्प्रतिक परिप्रेक्ष्य में रचनाकारों का पुनीत दायित्व है कि वे अपने जीवन की अभिव्यक्ति करते हुये राष्ट्रीय समकालीन ज्वलन्त समस्याओं पर विचार करें तथा जनमानस को जागरित करें।
“सहयोगीजी” ने इस पर चलने का प्रयास किया है और उन्हें सफलता भी मिली है। सावन की नशीली घूप, खुशियों की पिअरी, नव वसंत का कोमल कोंपल, गजल गाती खंजनों की टोलियाँ, बहकती हुई शाम की हवा, उगता हुआ खिला-खिला सूरज आदि प्राकृतिक तथ्यों और तत्वों ने रचनाकार के मानस को काव्य-सर्जना के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। जीवन को एक लहर की संज्ञा से अभिहित करनेवाले रचनाकार ने सुख-दुःख, आरोह-अवरोह, मधुर-तिक्त, राग-विराग आदि के परिप्रेक्ष्य में अपनी अभिव्यंजना की है। देखें-
मर्त्यलोक का एक निवासी
सपनों का जंगल है
मानवता का एक प्रवासी
चंदा है मंगल है
गीत गाँव का एक फरिश्ता
उजड़ा हुआ शहर है (पृष्ठ-५७)
विकास के नाम पर मात्र आदमकद विश्वास दिया गया है। नवयुग का स्वप्न साकार नहीं हो सका है। प्रगतिवाद विनाश लीला में व्यस्त है। मनुस्मृतियों की कथा-कहानी बया सुनाती है तथा सुषमा गायब है। संकल्पों की खाट खड़ी होना, आस का कटोरा लिये घूमना, ऊसर में आश्वासन मिलना, सामाजिकता का आँख मूँदकर सोना, प्रजातंत्र का रोना तथा दुराचार के कारटून का रोना आदि ऐसे कथ्य और तथ्य हैं जिनसे रचनाकार की कारयित्री प्रतिभा प्रभावित हुई है फिर भी वह जीवन यापन कर रहा है। कारण है-
हिंदी की नौका पर चढ़कर
गीतों का संसार बसाता
पीड़ा की घनघोर गली में
भावाकुल बाजार लगाता
हार निरंतर हाथ लगी है
जीत नहीं पर जीता हूँ मैं (पृष्ठ-७०)
बहरा शासन, दानवी मानवता, लांछन का सैलाब, संवादों का गहन विभाजन, अनुबंधों का अनमन रहना, विषयी अत्याचार, संबंधों के नये गठजोड़, दुरभिसंधि की डाँट-डपट का डंका बजना, नगर की सड़कों की दुर्दशा, नगरवधुओं की सोचनीय स्थिति, स्नेह के दरिया का सूखना आदि की दयनीय स्थिति और परिस्थिति को देखकर संवेदनशील रचनाकार का हृदय व्यथित हो उठा है। यही कारण है कि वह कह उठता है-
भीड़ भरी सडकों पर बाईक
तेज चलाते हैं
और नशा का सेवन करते
पान चबाते हैं
छेड़-छाड़ कलियों से करते
ऐसे लमहों को समझाऊँ
मन तो करता है (पृष्ठ-९२)
मानवीय मूल्यों के ह्रास और परिहास तथा उपहास ने रचनाकार की व्यथा बढ़ा दी है। आशावादी जीवन दृष्टि से रूपायित रचनाओं में प्रेमगीत, मौसम बदल रहा, जिन्दगी का भागवत, समय का हाथ आदि हैं जिनमें जीवन मूल्यों के प्रति आशा और विश्वास जागरित करने का रचनाकार ने अथक प्रयास किया है। आंचलिकता की चाशनी में पगे ये गीत-नवगीत मिश्रित वृत्ति का द्योतन करते हैं जिनमें गीत की गेयता सम्पूर्ण कृति में ध्वनित हुई है। भोजपुरी भाषा की शब्दावली को चुन-चुनकर यथेष्ट प्रयोग करने में रचनाकार को सफलता मिली है। धूप-छनौटा, कजरौटा, पियास, भूभल, भगई, टुटही-टटिया, सतुई, चिचियाहट, बिसुखी गाय, गड़ही, लेंढ़ा, जाँत-लोढ़ा, बेना, मसहरी, रसरी, सानी-पानी, डीह, सतुआन, ढेला, खपड़े की ओरी, भाखी, मकई, चिरइया मोड़, भभक, तिलंगी, छरहरी, लँगड़ी-बिछिया, छितराया, निहोरा, पिअरी, चुहानी, जिनिगी, ताक, बतियाता, लमहर, चिरई, रेहन, गमछी, चिखुर, हरिअर, ददरी मेला आदि शब्दों के प्रयोग ने एक ओर रचनाकार को भोजपुरी भाषा पर आधिपत्य को रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर आंचलिकता की प्रवृत्ति से भाषायी संप्रेषणीयता और समृद्धि का भी साक्ष्य प्रस्तुत हुआ है। पूर्वांचल का ददरी मेला जनपद बलिया की बलिदानीवृत्ति, भृगुनाथ मंदिर से जुड़ी संस्कृति एवं ऐतिहासिक क्षितिज की निर्मिति को आंचलिकता के धरातल पर अधिष्ठित और प्रतिष्ठित करता है जिसका वर्णन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने निबन्ध “भारतवर्षोन्नति” में किया है जो सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक सिद्ध हुआ है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि शीर्षक सटीक, उपयुक्त एवं अपनी सार्थकता स्वयं प्रमाणित करता है। संग्रह की रचनायें षड् रस का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनमें गीत, नवगीत, मुक्तक एवं गजल के शेअरों की अभिव्यंजना के स्वर ध्वनित होते हैं। आंचलिकता ग्राम्य परिवेश, प्रकृति-चित्रण, सांस्कृतिक-चैतन्यता, यथार्थवादी चित्रांकन, राजनीतिक परिवेश की अभिव्यक्ति आदि प्रवृत्तियों में कृति की वृत्ति अधिक रमी है। नवगीत के क्षेत्र में रचनाकार का यह ट्रायलबाल का नव प्रयोग काव्यानुरागियों को प्रीत करेगा ऐसा मेरा विश्वास है जिसके लिये शिवानन्द सिंह “सहयोगी” बधाई के पात्र हैं। कृति स्वागत योग्य है जिसमें काव्य-निकष रस का प्रतिमान ही काम्य सिद्ध है।
१.७.२०१७
------------------गीत नवगीत संग्रह- सूरज भी क्यों बंधक, रचनाकार- शिवानंद सहयोगी, प्रकाशक-कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य-२०० रुपये, पृष्ठ-१२८, समीक्षा- डा. पशुपतिनाथ उपाध्याय, ISBN-979-81-920238-7-8
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