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शनिवार, 8 सितंबर 2018

दोहा सलिला

गीत जन्म के गा रहा, हूँ मरघट में बैठ।
यम में दम हो तो करे, सुख-सपनों में पैठ।।
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रात अमावस की मिली अंबर से उपहार।
दीप जला मैंने दिया,  उसका रूप सँवार।।
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मरुथल मृगतृष्णा लिए, चाहे लेना भींच।
श्रम-सीकर मैंने बहा,  दिया मरुस्थल सींच।।
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याद किसी की मन-बसी,  करती जब बेचैन।
विरह-मिलन के विषम-सम,  चरण रचूँ दिन-रैन।।
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मन-मंदिर में जलाकर, माँ ने ममता-दीप।
जगा-किया संजीव झट,  मुस्का आँगन लीप।।
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पापा को पा यूँ लगा, है सिर पर आकाश।
अँगुली सकता थाम फिर, गिर-उठकर मैं काश।।
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जी में जी आया तभी,  जब जीजी के साथ।
पथ पर पग रख हँस चला, थाम हाथ में हाथ।।
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चक्की से गेहूँ पिसा, लाया पहली बार।
माँ से सुन करते रहे, पापा प्यार-दुलार।।
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गाय न घर में जब रही,  हुआ दूध बेस्वाद।
गोबर गुम अब यूरिया, फसल करे बरबाद।।
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संध्या-वंदन कर हँसा, चंदा बोले रैन।
नैन मटक्का छोड़कर, घर आ जा; हो चैन।।
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निशा-निशापति ने किया, छिप जी भरकर प्यार।
नटखट तारों से हुआ,  घर-अंबर गुलजार।।
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8.9.2017

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