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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

फटे पाँवों में महावर - संजय शुक्ल

जगदीश पंकज 
नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर संजय शुक्ल यों तो पिछले कई वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा अनेक समवेत संकलनों में प्रकाशित अपने समीक्षा तथा मौलिक लेखन विशेषतः नवगीतों के द्वारा साहित्यिक परिवेश में स्थान बना चुके हैं। 'फटे पाँवों में महावर' उनका प्रथम नवगीत संग्रह, चाहे देर से ही सही, अनुभव प्रकाशन से प्रकाशित होकर आ चुका है। संजय शुक्ल के नवगीतों से मेरा पहला परिचय श्रद्धेय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी द्वारा सम्पादित समवेत संकलन, 'हरियर धान-रुपहले चावल' के माध्यम से हुआ।

प्रकाशित गीतों में कथ्य और शिल्प की नव्यता ने स्वतः आकर्षित कर लिया तथा मैं परिचय में दिए मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क करने से स्वयं को नहीं रोक पाया। प्रत्युत्तर में आयी आवाज ने मुझसे तुरन्त राजेन्द्र नगर, ग़ाज़ियाबाद स्थित 'वरिष्ठायन' में मिलने की इच्छा व्यक्त की। तब तक एक ही कॉलोनी में रहते हुए हमारा परिचय भी नहीं था। मिलने पर एक सहज-सरल व्यक्तित्व से सामना हुआ जो अपने लेखन की तरह ही आडम्बरहीन, विनीत एवं गंभीरता से पूर्ण था। इस परिचय के बाद मिलना होता रहा तथा नवगीत लेखन में उनके अनुभव, अध्ययन और वैचारिकी की जानकारी होती रही और संजय शुक्ल की साहित्यिक प्रतिभा की परतें खुलती रहीं। अनेक मित्रों द्वारा प्रोत्साहन के फलस्वरूप संकोची स्वभाव के संजय अपना यह संग्रह प्रकाशित करने का मन बना पाए जिसकी भूमिका नवगीत के शिखर पुरुष आद. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी ने तथा नवगीत दशक-३ के ख्यातिलब्ध नवगीतकार श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा लिखी गयी है। प्रस्तुत संग्रह में संजय शुक्ल ने अपने अड़सठ गीतों को स्थान दिया है।

'फटे पाँवों में महावर' के गीतों को पढ़ते हुए संजय शुक्ल की विषयगत विविधता का पता चलता है। रचनाएँ दैनिक जीवन से विषय लेकर बड़ी सहजता से नवगीत में ढल गयी लगती हैं जो कवि के सूक्ष्म-प्रेक्षण और घटनाओं के गहन विश्लेषण को दर्शाती हैं। किसी वाद अथवा खेमे से दूर कवि का अनुभवजन्य यथार्थ और सामान्य-जन के प्रति स्वाभाविक प्रतिबद्धता का सत्य, रचनाओं में स्वतः और अनायास अभिव्यक्त हुआ है। समसामयिक परिदृश्य और उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप सर्जना ही संग्रह की केन्द्रीय वैचारिकी है। पारिवारिक रिश्ते, बदलते सामाजिक मूल्य, वैश्वीकरण की संस्कृति, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद, निम्न और मध्यमवर्गीय व्यक्ति की इस दौर की विवशताएँ, राजनीति और अर्थनीति के जाल में जकड़े सामान्य-जन का कष्टमय जीवन जैसे विषय संग्रह के गीतों में संजय की सरल और सहज संप्रेषणीय शैली में व्यक्त हुए हैं। संग्रह का शीर्षक-गीत भी निर्माण कार्य से जुड़ी मजदूरिन की व्यथा की अभिव्यक्ति है जो श्रमशील रहते हुए और अपने दुःखों को भूलते हुए रुँधे कंठ से मंगल गाकर फटे हुए पाँवों में महावर रच रही है।

संग्रह के गीतों के माध्यम से संजय शुक्ल के रचना-कर्म पर प्रतिक्रिया करते हुए उनके कथ्य-वैविध्य का ध्यान रखना आवश्यक है। यों तो मैंने एक ही नज़र में संग्रह के गीतों को पढ़ लिया था किन्तु प्रतिक्रिया लेखन के लिए अपनी सुविधा के लिए श्रेणीबद्ध करके पुनः पढ़ने का प्रयास किया है। पारिवारिक रिश्तों की उष्णता और भावुक बिंदुओं को व्यक्त करते हुए संजय ने पिता, माता, पत्नी और पुत्री आदि को गीतों का विषय बना कर मानवीय तंतुओं को बुनकर शब्दाङ्कित किया है। संग्रह का प्रथम गीत 'जगती आँखों का सपना' में संयुक्त परिवार की सौहार्दपूर्ण संरचना को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।

'निधि भविष्य की बचा पिता ने
वर्तमान निधिहीन बिताया
किया खंडहर खुद को पहले
तब यह छोटा घर बनवाया
बाँट दिया पूरा का पूरा
माँ ने खुद को पूरे घर में
उठें न आँगन में दीवारें
जीती है निशिदिन इस डर में
महल रहे या रहे मड़ैया
दूर न जाए छुटका भैया
जगती आँखों एक प्रवासी
यह सपना देखा करता है'

'एक नदी इस आँगन में' गीत के केंद्र में जहाँ पत्नी है वहीँ 'साँचे में ढली' में बेटी की बालसुलभ क्रियाओं को वात्सल्य पूर्ण ढंग से चित्रित किया है। 'पिता आपका हाथ' तथा 'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीतों में दिवंगत पिताश्री को याद करते हुए मार्मिक अनुभूतियों के चित्र उकेर दिए हैं। व्यक्तिगत होते हुए भी गीतों की पंक्तियाँ पाठक की संवेदनाओं को छू रही हैं। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं।

'मेरे संग-संग
एक नदी इस आँगन में
होकर बेआवाज़
निरंतर बहती है!

मेरे सुख-दुःख
सब उसने अपनाये हैं
बिना कहे वह
सब कुछ मुझसे कहती है!

डूबा उतराया मैं
उसकी धारा में
मेरी अंतर्ज्वाला
में वह दहती है!

हर अभाव में भी
चुप-चुप वह जी लेती
सब को सुख देकर
वह खुद दुःख सहती है!'

(एक नदी इस आँगन में)

'फूलों-से हाथों से नन्हीं कली
चोकर से, चून से खेलने चली' (साँचे में ढली)

'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीत में पिता के चले जाने पर पारिवारिक संबंधों को भावुकता को बड़ी ही मार्मिकता से उकेरा है कि एक घटना सगे-सम्बन्धियों के मन-मस्तिष्क को किस प्रकार प्रभावित करती है और सबसे अधिक माँ की मनस्थिति किस तरह हो जाती है।

'पिता! नहीं हो अब तुम घर में
घर भी कहाँ रहा अब घर में
शेष न कुछ अब रहा पूर्व-सा
अंतरंग सब लगे अन्य से

'माँ जो थी कल तक पटरानी
लगती जीती बाजी हारी
देख रहे दो नयन अभागे
'सूखी एक नदी बिनु बारी
झर-झर पंजर होती जाती
असमय दुर्बल काया
टूट रहा कुछ ज्यों अंतर में!'

हर सजग साहित्यकार अपने समय की धड़कन को अपने लेखन में प्रतिक्रिया के तौर पर व्यक्त करता है। संजय शुक्ल ने भी अपने परिवेश के यथार्थ का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपने नवगीतों में चित्रित किया है। आधुनिकता और पश्चिम की अंधी नक़ल, वैश्विकता, बाजारीकरण, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध ने निम्न तथा मध्यम वर्ग को भागमभाग में डाल दिया है जहाँ वह अनावश्यक प्रतियोगिताओं में घिर गया है। परिस्थितियों के द्वन्द्व में मानवीय चेतना किस प्रकार निर्मित हो रही है, इस तथ्य को संजय ने अपने अनेक गीतों में अभिव्यक्ति दी है। 'कहाँ गया?' गीत में-

'अपनों से सब घिरे हुए हैं
पर अपनापन कहाँ गया?'

वहीँ 'हाथ ही हिलने लगे' गीत में-

'क्या हुआ यह किस तरह अब
आप, हम मिलने लगे
देख कर केवल हवा में
हाथ ही हिलने लगे'

इसी के साथ 'हो रहे कुंठित भगीरथ' में इस समय की पंकिल होती मुख्य धारा को बताते हुए 'टीले हँसते हैं' रचना में आदमी के सस्ते होने की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-

'इस बस्ती में सब कुछ महँगा
बन्दे सस्ते हैं!
कंचनजंघा पर रेतीले
टीले हँसते हैं!
होकर हकले, बहरे, अंधे
बन्दे बसते हैं!'

हर व्यक्ति विशेषकर वेतनभोगी कर्मचारी का सपना होता है कि उसका अपना घर हो और इस लालसा में वह प्रॉपर्टी के दलालों के चंगुल में फँस जाता है। संजय ने ऐसे दलालों के हथकंडों का अपने गीत 'वेतन धारी तू चला किधर' में बड़ी कुशलता से वर्णन किया है-

'बैठे फैलाए मोह जाल
ये हैं प्रॉपर्टी के दलाल!
घर क्या, घर के सपने पर ही
चलवा देते हैं ये कुदाल'
.
दूर देश से जीविका के लिए शहरों में आये लोगों के अपने परिवार और उससे जुड़े भावुक अनुभव और सोच मन-मस्तिष्क में जब घुमड़ते हैं तब उस मनःस्थिति में आने वाले विचारों को बड़ी मार्मिकता से कई गीतों में व्यक्त करके संजय परकाया प्रवेश को सजीव कर देते हैं। 'उड़ते मेघों की निष्ठुरता' तथा 'ठीक बरस भर बाद सुखनवा' गीत इसी कथ्य पर आधारित हैं। इसी क्रम में 'भोग चले दो दिन की कारा' गीत में माता-पिता अपने बेटे के घर आकर भी स्वयं को अजनबीपन से घिरा पाते हैं जहाँ बेटे के पास माँ-बाप के लिए समय ही नहीं है।

'मात-पिता को बेटे के घर
आकर पड़ा बहुत पछताना
बैठे गुमसुम रहे 'ट्रेन' में
भोग चले दो दिन की कारा
लौट आये क्यों इतनी जल्दी
गाँव यही पूछेगा सारा
मुट्ठी बंद न पड़े खोलनी
ढूँढ रहे थे उचित बहाना'

जीवन को उसकी स्वाभाविकता में जीने के पक्षधर संजय अपने गीतों में इस तथ्य को पूरी सफलता से उकेरते हैं। 'पीर पयम्बर क्यों बनता है', 'बाहर से संसारी बनिए', ऐसी ही रचनाएँ हैं। महानगरीय जीवन की भागमभाग में जीविका के लिए निकलने वाले व्यक्ति का अनुभव शाम तक कितना थकानमय हो जाता है तथा उस जीवन की रसमयता किस प्रकार प्रभावित हो रही है, इस अनुभूति के कई गीत संग्रह की जान हैं। परिवेश की सच्चाई को सरलता से व्यक्त कर देना संजय की अपनी विशिष्ट शैली है। संग्रह के गीत, 'भीड़ से बचते-बचाते हम', 'चुभती रही सुई','काल करता है ठगी', आलापें विवश -राग','मुनाफे की खटपट' ऐसी ही रचनाएँ हैं।

'भीड़ से बचते बचाते हम
साँझ ढलते लौट आते घर!

रोज घर से निकलते जितना
लौट पाते हैं कहाँ उतना
छूट जाता है स्वतः ही कुछ
छोड़ आते हैं स्वयं कितना

रीढ़ से सधते -सधाते हम
पीठ पर ही शहर लाते धर.

समकालीन राजनीति और राजनेताओं का आम जनता के साथ व्यवहार, लुभावने नारे देना और फिर उनसे मुकर जाना, आम जन का स्वयं को ठगा सा महसूस करना इस दौर का अघोषित सत्य बन गया है। संजय ने अपने गीतों में इस खुरदरे यथार्थ का अनेक स्थानों पर वर्णन किया है। केवल राजनेता ही नहीं बल्कि सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों का आचरण भी मोहभंग कर रहा है। फिर भी आशावादिता को गीतों में शब्दाङ्कित करते हुए संजय कह रहे हैं-

'आप बिगाड़ रहे मुँह जितना
पानी उतना हुआ न खारा ' (कीच उछाली अपने घर पर)

और फिर कहते हैं-

'पल-पल रंग बदलते युग में
साथी तुम्हें बदलना होगा
नेपथ्यों की ओर मंच से
साथी, तुम्हें खिसकना होगा ' (साथी तुम्हें बदलना होगा)

क्योंकि अभी अग्नि की सब लपटों का रंग लाल नहीं हुआ है। 'ऐसा भी होगा' गीत की पंक्तियाँ कह रहीं हैं-

चकाचौंध सत्ता की आँखें
देख नहीं पातीं अँधियारा
इस अँधियारे से निकलेगा
कभी दहकता सा अंगारा
मलबा बन जाएगा पल में
रत्नजड़ित, स्वर्णिम मुकुटों का'

अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए 'घोष क्रांतियों का बन जाता' गीत में कहा-

'धर्म तुला पर आज बंधुवर
हमको तुमको तुलना होगा।
मंतव्यों से वक्तव्यों के
मध्य अनकहा जो रह जाता
होकर एक दिवस वह मुखरित
घोष क्रांतियों का बन जाता
कहना होगा उसे समय पर
उसे समय पर सुनना होगा'

और फिर स्वीकारोक्ति का गीत 'मैं स्वर में गाया जाता हूँ'-

साथ रहा मैं सदा सत्य के
फिर भी झुठलाया जाता हूँ

चुप रहता हूँ पर मुझको
मत समझो गूँगा
दिल की सब बातों का उत्तर
दिल से दूँगा

बाँचो मत तुम मुझे गद्य-सा
मैं स्वर में गाया जाता हूँ'

और आगे जाकर 'सूफियों की गाह' में अपनी चुनी राह पर किसी संशय का निषेध करते हुए संजय शुक्ल कह देते हैं-

'संशय नहीं उस राह पर
जो राह है हमने चुनी
हम भीड़ से कुछ हैं अलग
जिद्दी कहो या फिर धुनी'

संग्रह के गीतों को पढ़ते हुए अपनेपन का अनुभव होना संजय की सर्जना की विशेषता है। प्रस्तुत गीत संग्रह अपनी भाषा, कथ्य और शिल्प की नव्यता तथा सम्प्रेषणीयता के द्वारा संजय शुक्ल के परिपक्व लेखन का सार्थक साक्ष्य है जो पाठक के मन मस्तिष्क को सहलाता हुआ हृदय तक उतर कर मर्म को छू रहा है तथा मानवीय ज्ञानात्मक संवेदना की सफल कलात्मक अभिव्यक्ति का गीतात्मक आलेख बन गया है। आशा है संग्रह विस्तृत साहित्य प्रेमी पाठकों में विमर्श और सराहना प्राप्त करेगा। अपने इस प्रथम संचयन के माध्यम से जिस तरह संजय शुक्ल ने उपस्थिति दर्ज की है वह उनसे भावी उत्कृष्ट लेखन के लिए आश्वस्त करता है। संग्रह हर तरह से पठनीय, उद्धरणीय और संग्रहणीय है।
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गीत- नवगीत संग्रह - फटे पाँवों में महावर, रचनाकार- संजय शुक्ल, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- पेपर बैक १८० एवं सजिल्द- २५०  रुपये, पृष्ठ-१०४, समीक्षा- जगदीश पंकज।

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