दोहा सलिला:
दोहा के सँग यमक का रंग
संजीव 'सलिल'
*
नागिन जैसी झूमतीं , श्यामल लट मुख गौर.
ना-गिन अनगिनती लटें, लगे आम्र में बौर..
*
खो-खोकर वे तंग हैं, खोज-खोज हम तंग.
खेल रुचा खो-खो उन्हें, देख-देख जग दंग..
*
खोना-पाना जिंदगी, खो-ना पा-ना खेल.
पाना ले कस बोल्ट-नट, सके कार्य तब झील..
*
नट करतब कर नट नहीं, झटपट दिखला खेल.
चित-पट की मत फ़िक्र कर, हो चित-पट का मेल..
*
गुजर-बसर सबकी हुई, सबने पाया ठौर.
गुजर गया जो ना मिला, कितना चाहा और..
*
बाला-बाली कर रहे, झूम-झूम गुणगान.
बाला बाली उमर की, रूप-रसों की खान..
*
खान-पान जी भर करो, हेल-मेल रख मीत.
पान-खान सीमित रहे, यही जगत की रीत..
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
दोहा के सँग यमक का रंग
संजीव 'सलिल'
*
नागिन जैसी झूमतीं , श्यामल लट मुख गौर.
ना-गिन अनगिनती लटें, लगे आम्र में बौर..
*
खो-खोकर वे तंग हैं, खोज-खोज हम तंग.
खेल रुचा खो-खो उन्हें, देख-देख जग दंग..
*
खोना-पाना जिंदगी, खो-ना पा-ना खेल.
पाना ले कस बोल्ट-नट, सके कार्य तब झील..
*
नट करतब कर नट नहीं, झटपट दिखला खेल.
चित-पट की मत फ़िक्र कर, हो चित-पट का मेल..
*
गुजर-बसर सबकी हुई, सबने पाया ठौर.
गुजर गया जो ना मिला, कितना चाहा और..
*
बाला-बाली कर रहे, झूम-झूम गुणगान.
बाला बाली उमर की, रूप-रसों की खान..
*
खान-पान जी भर करो, हेल-मेल रख मीत.
पान-खान सीमित रहे, यही जगत की रीत..
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
8 टिप्पणियां:
आ. आचार्य संजीव जी,
बहुत सुंदर यमक रंग के दोहे लगे -
कुछ तो बिल्कुल नयी शब्दावली के हैं -
आम के बौर से लटों की उपमा पहली बार
किसी ने लिखी वह आप हैं आपको और आपकी विचारशीलता को नमन |
निम्न बहुत ही मन भावन लगे -
नागिन जैसी झूमतीं, श्यामल लट मुख गौर.
ना-गिन अनगिनती लटें, लगे आम्र में बौर..
*
गुजर- बसर सबकी हुई, सबने पाया ठौर.
गुजर गया जो ना मिला, कितना चाहा और..
तीसरे दोहे में शायद लिखने में गल्ती हुयी है |
आपको वधाई स्वीकार हो |
सादर- गौतम
खो-खोकर वे तंग हैं, खोज-खोज हम तंग.
खेल रुचा खो-खो उन्हें, देख-देख जग दंग..
वाह सलिल जी,
आपके लेखन का जाबाव नहीं।
हृदय में गहरे तक उतर जाने वालासाहित्य लिखते है आप।
बहुत-बहुत बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
मथुरा
आ० आचार्य जी,
पुनः यमक अलंकार में बहुअर्थी शब्दों को दोहों में
सजाने के आपके कौशल को नमन |
' नागिन जैसी झूमती श्यामल लट मुख गौर ' पर एक परिहास पूर्ण किस्सा याद आ गया इसे एक दों दिन में इचिंतन पर दूंगा |
सादर
कमल
हा हा !
बहुत ही मज़ेदार हैं इस बार तो यमक वाले दोहे आचार्य जी! ...
पाना वाला, नट वाला और खो-खो वाले तो बहुत ही क्यूट हैं :)
सादर
शार्दुला
'झील' को कृपया, 'झेल' पढ़िये..
आदरणीय सलिल जी ,
आपकी सभी रचनाएं ध्यान पूर्वक पढता हूँ और भविष्य में जुगाली के लिए संजो कर रख लेता हूँ ताकि समय समय पर पुनः पढ़कर भरपूर आनंद ले सकूं |
सभी कृतियों में लबालब साहित्य समाहित होता है जो कि एक साहित्य प्रेमी के लिए अमूल्य सम्पति ही है |
आपकी रचनाओं को केवल सुन्दर हैं/उत्कृष्ट हैं, अद्वितीय हैं कहने मात्र से न तो पूर्ण संतुष्टि मिलती है और न ही उनके साथ न्याय होता है | उन सभी की सराहना के लिए शब्द चुन पाना असंभव होता है |
आप जो कार्य तन्मयता से निरंतर कर रहे हैं उस पर हम सब गौरवान्वित हैं |
इ-कविता को स्तरीय बनाने में आप का योग दान विशिष्ठ है |
कृपया, अपनी गति बनाये रखिये और मार्ग दर्शन भी करते रहिये |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
आ. आचार्य सलिल जी,
मैं भी- आ. श्रीप्रकाश शुक्ल जी से शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि आपने हम सब और
ई-कविता समूह का विशेष रूप से सम्माननीय स्तर बढ़ाया है |
आपके हम बहुत ही आभारी हैं जो हमें अपने साहित्य से, मन से दिशा-निदेशन दे रहे हैं | आशा है आप हमें इसी प्रकार मार्ग-दर्शन देते रहेंगे |
सादर- गौतम
खोना-पाना जिंदगी, खो-ना पा-ना खेल.
पाना ले कस बोल्ट-नट, सके कार्य तब झील..
............ शायद आपने झेल लिखना चाहा है
जो भी हो बहुत ही सुन्दर मुक्तिका, आपके दूसरे मुक्तिकाओं की भांति ही मनमोहक |
अचल वर्मा
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