कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद:
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
संजीव 'सलिल'
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रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
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मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
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सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
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हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
संजीव 'सलिल'
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मूल रचना उद्धृत कर रहा हूं।
”जोदि ए आमार हृदोयदुआर
बोन्धो रोहे गो कोभु
द्वार भेंगे तुमि एशो मोर प्राणे
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन ए बीणार तारे
तोबो प्रियनाम नाहि झोंकारे
दोया कोरे तुमि क्षणेक दाँडाओ
फिरिया जेओ ना प्रभु!
तोबो आह्वाने जोदि कोभु मोर
नाहि भेंगे जाय शुप्तिर घोर
बोज्रोबेदोने जागाओ आमाय
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन तोमार आशोने
आर-काहारेओ बोशाई जोतोने
चिरोदिबोशेर हे राजा आमार
फिरिया जेओ ना प्रभु!"
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रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
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