-- संजीव 'सलिल'
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मेले में बच्चे मचल गये- 'पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए.'
हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुँचे. मैंने देखा दुकान पर जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे. मैंने दुकानदार से पूछा- 'क्यों भाई! आप राम. कृष्ण, ईसा, पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, गाँधी, भगत सिंग, आजाद, नेताजी, आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?'
'कैसे बेचूं? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुणा, राधा का समर्पण, मीरा का प्रेम, गाँधी की समन्वय दृष्टि, भगतसिंह का देशप्रेम, आजाद की निडरता, नेताजी का शौर्य कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर पाऊँगा. आज-कल आदमी के चेहरे पर जो गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस का ही बनता है. आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बतायें ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूँ.' -दुकानदार बोला.
मैं कुछ कह पाता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ' अगर हम पर वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?' -मुखौटों ने पूछा.
मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया.
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5 टिप्पणियां:
सर्वोत्तम !!
Ajay
आदरणीय आचार्य जी !
आज की सच्चाई को उजागर कराती लघु परन्तु गूढ़ अर्थ लिए कहानी बहुत ही प्रभावशाली है बधाई !!!
सादर
संतोष भाऊवाला
Mukesh Srivastava ✆
बहुत खूब आचार्य जी
लेकिन एक बात और है,दुकानदार जिनके मुखौटे बेंच रहा था, वे लोग भी कागज़ के लिबास और कागज़ के ही मुखौटे लगाये रहते हैंअगर असली रूप में आजाये तो हो सकता है इन मुखौटों से भी ज्यादा वीभत्स और भयानक लगे.
मुकेश इलाहाबादी
आ० आचार्य जी ,
बड़ी सटीक और पैनी धार वाली लघु कथा |
साधुवाद
सादर
कमल
गागर में सागर भरने का काम अनोखा
हर्रे लगे न फिटकिरी रंग उतारे चोखा |
Achal Verma
--- On Fri, 9/9/11
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