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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

दुष्यंत कुमार को समर्पित एक ग़ज़ल - नवीन सी. चतुर्वेदी


सलीक़ेदार कहन के नशे में चूर था वो|
दिलोदिमाग़ पे तारी अजब सुरूर था वो|१|

वो एक दौर की पहिचान बन गया खुद ही|
न मीर, जोश न तुलसी, कबीर, सूर था वो|२|

तमाम लोगों ने अपने क़रीब पाया उसे|
तो क्या हुआ कि ज़रा क़ायदों से दूर था वो|३|

लबेख़मोश की ताक़त का इल्म था उस को|
कोई न बोल सका यूं कि बे-श'ऊर था वो|४|

फ़िज़ा के रंग में शामिल है ख़ुशबू-ए-दुष्यंत|
ज़हेनसीब, हमारे फ़लक का नूर था वो|५|
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

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