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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                
गले मिले दोहा-यमक...
-- संजीव 'सलिल'
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गले मिले दोहा-यमक, गले भेद का बर्फ.
नये अर्थ बतला रहा, 'सलिल' एक ही हर्फ़..
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ताना तो नभ में उड़ी, ऊपर 'सलिल' पतंग.
ताना सुन वह भड़ककर, उठी छेड़ने जंग..
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ताना-बाना बुना पर, ताना अधिक न तार.
बाना धारण किया फिर, करने लगे सिंगार..
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मनमाना जी भर किया, हो पायें संतुष्ट.
मन माना फिर भी नहीं, खुद ही खुदसे रुष्ट..
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दधि भाना आता नहीं, पर भाना नंदलाल.
'भा ना', मैया भा रही, आ कर धूम-धमाल..
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दही बिलोना था मगर, भाग कर रही खेल.                                             
गेंद बिलोना तू नहीं, होगा व्यर्थ झमेल..
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गुणा-भाग क्या कर रही?, भाग हो रही देर.
गुणा-भाग के फेर में, हो न कहीं अंधेर..
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दाम न दामन का लगा, होता पाक-पवित्र.
सुर नर असुर सभी पले, इसमें सत्य विचित्र..
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लड़के लड़ के माँगते, हक न करें कर्त्तव्य.
माता-पिता मना रहे, उज्जवल हो भवितव्य..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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