
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा माँगता है.
कलियों से काँटा
डरा-काँपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
****************
3 टिप्पणियां:
आ० आचार्य जी ,
जीव,जन्तु और प्रकृति के मध्यम से संवाद और सन्देश की पद्य-प्रस्तुति
आपके काव्य-कला-कौशल का नायाब नमूना है | बधाई | कविता रुचिकर लगी |
सादर
कमल
कविवर संजीव जी,
आपकी यह कविता हमें अब तक की कविताओं में सबसे अच्छी लगी. इसकी एक अलग ही खुशबू, अलग ही रंग है....! मछली, तितली, कलियाँ, बिजली, चांदनी, बदली सभी नारी-विमर्श की प्रतीक बन कर, दुर्धर्ष रूप से अपने अपने क्षेत्र में छाई हुई हैं - ऐसा इस रचना ने आभास दिया. 'अबला नहीं, हम हैं सबला दुधारी', तितलियों ने डेरा जमाया, ज़माने समझना न हमको बिचारी, कलियों से काँटा डरा-काँपता है, सड़क पर बदलियों ने घेरा बनाया, न आँसू बहा चीर, अपना भीगा री ! इन सबके माध्यम से आपने बड़ी सशक्त बातों की ओर इंगित किया है.
साधुवाद !
दीप्ति
आदरणीय कमल जी!
यह रचना सड़क (जिसे सदा पददलित किया जाता है) के एक अनदेखे योगदान को इंगित करती है कि वह जनाक्रोश की अभिव्यक्ति (नारा, डेरा, गुस्सा, घेरा) अर्थात क्रांति या बदलाव के लिये आधार भी बनती है. आपने 'जीव,जन्तु और प्रकृति के माँध्यम से संवाद और सन्देश' की सही पहचान की है किन्तु दीप्ति जी ने जीवों की प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुरूप 'नारी-विमर्श' के तत्व को ठीक आँका है. आप दोनों की हार्दिक आभार.
अन्य काव्य मर्मज्ञों की टिप्पणी की प्रतीक्षा है. वे अन्य अछूते पहलुओं पर प्रकाश डाल सकेंगी. कविता का यह मंच कवित्तों के तात्विक विवेचन के कारण ही अन्यों से अलग और अधिक महत्वपूर्ण है.
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