सामयिक कुण्डलिनी छंद :
रावण लीला देख
--संजीव 'सलिल'
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
*********************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot. com
रावण लीला देख
--संजीव 'सलिल'
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
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खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
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फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.
17 टिप्पणियां:
सुंदर , सामयिक व सटीक कुण्डलियाँ ...बधाई..
Mukesh Srivastava ✆
सलिल जी ,
सुंदर भाव, सुंदर विचार, सुंदर कविता
मुकेश इलाहाबादी
आदरणीय सलिल जी
समसामयिक कुण्डलियों के लिए बहुत बधाई।
मनमोहन सिंह के लिए कुकर्मी शब्द कुछ ज्यादा ही कड़ा लगा।
सादर
सन्तोष कुमार सिंह
--- On Wed, 17/8/11
धन्य है आचार्य जी ,
सम सामयिक सटीक कुण्डलिनी- छन्द पढ़ कर मन मुग्ध हुआ |
विशेषकर अंतिम छन्द की रचना प्रतीकों के साथ खूब निखरी है |
इस ओजस्विनी कुण्डली छन्द को बार बार पढ़ने का मन किया |
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
आपकी लेखनी को नमन |
सादर
कमल
आ. आचार्य संजीव जी,
छंद -कुंडलियाँ बड़ी प्रभाव -पूर्ण, सुंदर भावों में सजीं ,
सामयिक बिषय के प्रवाह में लिखी गयीं, आपको नमन
और बधाई |
सादर- गौतम
आदरणीय आचार्य जी ,
बहुत अच्छी सामयिक रचना है ,नमन !!
सादर संतोष भाऊवाला
आदरणीय सलिल जी
इन कुण्डलियों के माध्यम से आपने मेरे और करोड़ों लोगों की भावनायें प्रेषित कर दीं।
मैं बहुत खुश हुआ। बधाई स्वीकारें।
सन्तोष कुमार सिंह
अगर सांसद जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं तो कवि भी जन मानस का प्रतिनिधित्व करता है. फ़र्क इतना है कि वोट बैंक खरीदे जा सकते हैं, कवि बैंक नहीं. सलिल जी की कविता यूँ ही नहीं बन गई. इसका सृजन पीड़ा से हुआ है--जन जन की पीड़ा.
गोरी चमड़ी क्या जाने जनता की पीड़ा
लाठी भांजे रामदेव पर, समझे क्रीड़ा
मनमोहन को बना दिया है निश्चल कीड़ा
भारत छोड़ो इटली, उठा लिया है बीड़ा.
--ख़लिश
आ० आचार्य जी,
अति सामयिक, सटीक और प्रभावपूर्ण कुण्डलियाँ
रची आपने जो आज के यथार्थ को उदभाषित करती हैं
साधुवाद,
कमल
यही पंक्ति सम्पूर्ण कुंडलियों का निचोड़ है आचार्य जी.
आप शब्दों के धनी हैं!
" आम आदमी खड़ा, वज्र कर अपनी छाती.." --- अति सुन्दर!
सादर शार्दुला
'सामयिक कुण्डलिनी छंद : रावण लीला देख --संजीव 'सलिल''
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर. नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
waah...
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वाह! वाह!
मजा आ गया।
कोटि-कोटि बधाई!
त्रेता और द्वापर की संज्ञाओं को बिम्ब का रूप दे आज के परिप्रेक्ष्य में रची गयी तीनों कुण्डलियाँ संदेशात्मकता का निर्वहन करती हैं. रचयिता के वैचारिक दृष्टिकोण से विलग शिल्प के मद्देनज़र रचनाएँ काव्य-सूत्रों और प्रयुक्त शब्दों को बखूबी उभारती हैं. सादर…
पौराणिक बिम्बों में वर्तमान.... बहुत सुन्दर कुंडलिया हैं सर... सादर बधाई...
wartmaan paripekshya men likhi gayi utkrisht rachana!
तीनों ही कुंडलिनियाँ बहुत सुंदर. बधाई गुरु जी.
अनूठे विचारों को पिरो दिया आपने इस कुण्डलिनी में
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कैसे हो पहचान कौन है कैसा
भेजा है हमने ही चुनकर ऐसा
जो संसद जाते ही रंग बदल देते हैं
परहित भूल स्वार्थ में ही रत वो होते हैं
काम नहीं धन आये जो आह से आता
सुख दो और धन आये तो टिक पाता ||
Yours ,
Achal Verma
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