लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
मालवी दोहा:
पग लागां आखो जगत, श्री गनपत महाराज.
हमरा काज सुदारने, तम दोड़ा तज काज..
*
निमाड़ी गीत:
हरा लीम की ठंडी छाँव,
काठी-कवली छोटा गाँव.
गणपत जी की घुग्गर माल
गरबी का संग मिरधिंग ताल.
मात-पिता परकम्मा तार
रिद्धि-सिद्धि को उरस पुकार.
'सलिल' कल-कल गीत गायो
माटी नs मखs बुलायो...
*
छत्तीसगढ़ी सोरठा:संगी कइस बखान, गणपति के महिमा करों.
गाथें जेकर गान, चंदा-सुरुज झोरखी..
*
भोजपुरी:
गिरिजा के ममता अउर, सिव के आसिरबाद.
गणपति जी संग मिलेला, रउआ मोदक-स्वाद..
*
बृज दोहा :हिय भरोस ले शिव-तनय,चहौं मिटैं दुःख-पीर.
विघन असंगति कम करौ, रिधि-सिधि-पति मतिधीर..
*
हाडौती मुक्तिका:
काम न्है आवै सगा पीर में, गणपत जी.
नाम न्है आवै कदा धीर में, गणपत जी.
कुण जाणे कुण हाँसे-रोवै या जग में-
सब बूडै हैं मोह नीर में, गणपत जी.
म्हां की रातां टाट सरीखी ओरां की
हो जा मखमल-मलमल रातां, गणपत जी.
यारी तो करबो छावै छै पाक कहे.
सच सूरज सूं सरमावै छै, गणपत जी.
सुख सू साल, सबर से बीतै दया करौ.
मीठां खातां 'सलिल' खिलातां, गणपत जी.
*
मारवाड़ी घनाक्षरी:
जद-जद भारत पै भीर पडी बड़ी-बड़ी.
गणदेव आया अवतार लेय भाज कै.
फिरंगी नैं मार गेर्यो अधनंगा भारतीय
शस्त्र बिना बींद-बीन्दणी री सेन साज कै.
हार दिल कारगिल पाकिस्तान भाग गयौ
तिरंगा फहराय रयो छाती पै विराज कै.
फल्या कोनी आतंकी भारत नैं तोड़-फोड़
'सलिल बढ़ैगो देस दुस्मनां नैं गाज कै..
*
संजीव 'सलिल'
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पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
मालवी दोहा:
पग लागां आखो जगत, श्री गनपत महाराज.
हमरा काज सुदारने, तम दोड़ा तज काज..
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निमाड़ी गीत:
हरा लीम की ठंडी छाँव,
काठी-कवली छोटा गाँव.
गणपत जी की घुग्गर माल
गरबी का संग मिरधिंग ताल.
मात-पिता परकम्मा तार
रिद्धि-सिद्धि को उरस पुकार.
'सलिल' कल-कल गीत गायो
माटी नs मखs बुलायो...
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छत्तीसगढ़ी सोरठा:संगी कइस बखान, गणपति के महिमा करों.
गाथें जेकर गान, चंदा-सुरुज झोरखी..
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भोजपुरी:
गिरिजा के ममता अउर, सिव के आसिरबाद.
गणपति जी संग मिलेला, रउआ मोदक-स्वाद..
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बृज दोहा :हिय भरोस ले शिव-तनय,चहौं मिटैं दुःख-पीर.
विघन असंगति कम करौ, रिधि-सिधि-पति मतिधीर..
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हाडौती मुक्तिका:
काम न्है आवै सगा पीर में, गणपत जी.
नाम न्है आवै कदा धीर में, गणपत जी.
कुण जाणे कुण हाँसे-रोवै या जग में-
सब बूडै हैं मोह नीर में, गणपत जी.
म्हां की रातां टाट सरीखी ओरां की
हो जा मखमल-मलमल रातां, गणपत जी.
यारी तो करबो छावै छै पाक कहे.
सच सूरज सूं सरमावै छै, गणपत जी.
सुख सू साल, सबर से बीतै दया करौ.
मीठां खातां 'सलिल' खिलातां, गणपत जी.
*
मारवाड़ी घनाक्षरी:
जद-जद भारत पै भीर पडी बड़ी-बड़ी.
गणदेव आया अवतार लेय भाज कै.
फिरंगी नैं मार गेर्यो अधनंगा भारतीय
शस्त्र बिना बींद-बीन्दणी री सेन साज कै.
हार दिल कारगिल पाकिस्तान भाग गयौ
तिरंगा फहराय रयो छाती पै विराज कै.
फल्या कोनी आतंकी भारत नैं तोड़-फोड़
'सलिल बढ़ैगो देस दुस्मनां नैं गाज कै..
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5 टिप्पणियां:
आदरणीय सलिल जी
साहित्य के पुरोधा हैं आप
dks poet ✆ ekavita २ अगस्त
आदरणीय आचार्य जी,
नमन है आपके ज्ञान को।
इन सुंदर रचनाओं के लिए बधाई स्वीकार करें।
सादर
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
आ. आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी,
प्रणाम:
आपको इतनी सारी लोक भाषाओँ के ज्ञान की रचनाओं के
लिए कुछ कह पाना मुश्किल है | मुझे एक- दो शब्द बुन्देल-
खंडी भाषा के आते हैं | बहुत ही सुंदर- आपको नमन और
बधाई स्वीकार हो |
सादर - गौतम
आदरणीय आचार्य जी ,
आपको कितनी भाषायें आती हैI
मै मारवाड़ी हूँ,मारवाड़ी में भी आपने बहुत अच्छा लिखा है पढ़ कर मन खुश हो गया
सादर
संतोष भाऊवाला
२ अगस्त
आ० आचार्य जी,
आपकी लेखनी तो स्वयं सिद्ध-गणेश और माता सरस्वती का अवतार लगती है |
सादर
कमल
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