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सोमवार, 15 अगस्त 2011

गीत : मैं अकेली लड़ रही थी - संजीव 'सलिल'

गीत :
मैं अकेली लड़ रही थी
- संजीव 'सलिल'

*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनायी है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसायी है..
सामने तो द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह उनने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

11 टिप्‍पणियां:

- drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

आदरणीय कविवर,
एक अति सारगर्भित रचना........!

साधुवाद
दीप्ति
--- On Mon, 15/8/11

Dr. Tripti Singh ने कहा…

Tripti

woh kya baat hai

shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,,
अति सार्थक एवं सुंदर रचना | पहिला और अंतिम भाग विशेष रूप से मनोहारी लगा |
अनेकानेक बधाईयां
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

shar_j_n ✆ ekavita ने कहा…

उफ्फ्फ ये कितना सुन्दर!
"मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये....."

आचार्य जी, पहले बंद में ये पंक्ति समझायेंगे कृपया जब भी समय हो आपके पास:

"डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?"

सादर शार्दुला

- santosh.bhauwala@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी ,
अति उत्तम !!!शब्द छोटे पड़ रहे है ......
सादर संतोष भाऊवाला

sanjiv 'salil' ने कहा…

आत्मीय श्री प्रकाश जी,शार्दुला जी, संतोष जी!
वन्दे मातरम.
रचना का प्रथम पद श्री राम से संबंधित है.
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
सीता-हरण के बाद एकाकी राम इतने कमजोर हो गये थे कि सागर तट पर जाकर रुक गये थे और नल-नील की सहायता के बाद ही पार हो सके जबकि हनुमान और अंगद आपने बल-बूते पार हो गये थे. रजक के आरोप को मानकर श्री राम ने अपनी भाग्य लक्ष्मी (सर्वस्व) को वन भेजकर खो दिया और इस आत्म ग्लानि में अंतत: लक्ष्मण सहित सरयू नदी में डूब कर आत्महत्या कर ली जिसे पंडित जी लोग जल समाधि कहते हैं.यदि वे अपनी जीवन संगिनी और खुद की मर्यादा रजक द्वारा भंग किये जाने का अनुमान कर पाते तो राजा होने के नाते रजक को दण्डित करते, सीता को वन नहीं भिजवाते.

shyam gupta ने कहा…

--आचार्य जी वस्तुतः आप (लोग) ..राम कथा के मर्म को नहीं जान पाए हैं ( व कृष्ण कथा का भी)....क्या सीता होती तो राम अकेले ही समुद्र पार कर जाते ?...अनर्गल बात है...अकेले समुद्र पार करना ही नहीं था...उन्हें रावण नहीं रावणत्व का विनाश करना था, जन समर्थन की महत्ता स्थापित करनी थी...
...यह आत्मग्लानि व आत्महत्या नहीं थी ..उन दिनों कर्तव्य समाप्ति पर राजा (व अधिकाँश मनुष्यों के भी ) वन जाने या जल समाधि लेने का प्रचलन था....
....वैसे यह सिर्फ एक अफवाह है..अन्यथा बाल्मीकि रामायण में राम के सपरिवार सशरीर स्वर्ग जाने का वर्णन है ..मानस में सिर्फ लक्ष्मण द्वारा सरयू में जल समाधि लेने का वर्णन है .

'मैं ब्रह्म हूँ' इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। ---बाल्मीकि रामायण ।
अन्य रामायणों में....दुर्वासा-राम संवाद, राम का सशरीर स्वर्गगमन, राम के भ्राताओं का स्वर्गगमन, तथा देवताओं का राम का पूजन विशेष आदि वर्णित है। तथा..यह भी ...
--जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्यभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने।..
----अंतिम दो भाग आजकल के नेताओं आदि व सभी जन के लिए हैं जो सत्य वर्णन ही है ...परन्तु उसका स्त्री मर्यादा आदि से कोई सम्बन्ध नहीं ...अतः अंतिम भाग मूल मुखडे व भाव- विषय से असंबद्ध है....

sanjiv 'salil' ने कहा…

आपने गंभीरतापूर्वक रचना का वचन कर आपने अभिमत व्यक्त किया, मैं धन्य हुआ. आपका आभार शत-शत.

बेनामी ने कहा…

shar_j_n
२० अगस्त २०११ १२:११ अपराह्न


आदरणीय आचार्य जी,
आपका ख़त पढ़, थोड़ा असमंजस में हूँ.
ये बात कभी पहले नहीं सुनी. पर मेरा पठन और ज्ञान तो बहुत सीमित है सो कोई आश्चर्य नहीं.
हाँ, अब कविता की पंक्ति का अर्थ समझ आया, सो यही समाधान काफी है इस समय.
आपका आभार!
सादर शार्दुला

बेनामी ने कहा…

Rakesh Khandelwal

२१ अगस्त २०११ ७:०० पूर्वाह्न

मान्य सलिलजी,

इस रचना की प्रशंसा के लिये शब्दों का अभाव है लेकिन अंतिम चरण को जन्म देने वाली लेखनी को शत कोटि नमन

मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..

सादर

राकेश

ana ने कहा…

ana :

adbhut rachana......
shabd nahi hai tarif ke liye....
kash main aap jaisa likh pati!!!!! !