रचना : डॉ. दीप्ति गुप्ता, कमल, संजीव 'सलिल', डॉ. एम्. सी. गुप्ता 'खलिश'
2011/8/1 deepti gupta <drdeepti25@yahoo.co.in>
मैं गैर लगूं तो
दीप्ति
मैं गैर लगूं तो अपने अंदर झाँक लेना
समझ ना आए तो मुझसे जान लेना
सताए ज़माने की गरम हवा तो
मेरे प्यार के शजर के नीचे बैठ रहना
कोई भूली दासतां जब याद आए, तो
आँखें मूँद मुझसे बात करना
जब घेरे अवसाद औ निराशा तो
मुझे याद कर कोई गीत गुनगुनाना
यूँ ही आँख कभी भर आए तो
मेरा खिल - खिल हंसना याद करना
जब उदास दोपहर दिल पे छाये तो
मेरी नटखट बातें सोच कर, दिल बहलाना
कभी सुरमई शाम बेचैन करे तो
ख्यालों में साथ मेरे,दूर तक सैर को जाना
जीवन में उष्मा राख होती लगे तो
मेरी निष्ठा को ध्यान में ला, ऊर्जित होना
जब मैं रह- रह कर याद आऊँ तो
मेरी उसी तस्वीर से मौन बातें करना
बस एक बात हमेशा याद रखना
दूर हो कर भी, हर पल तुम्हारे पास हूँ मैं
इस रिश्ते का सुरूर और तुम्हारा गुरूर हूँ मैं
प्रति रचना: १
प्रिय दीप्ति ,
यह क्या लिख डाला ? कितना ममत्व और अपनत्व भर दिया तुमने इन पंक्तियों में !
मन इन्हीं को बार बार पढता, डूबता, उतराता रह गया और प्रतिक्रिया में अनायास ही
ये छन्द उछल आये -
कभी गैर लगोगी क्यों ?
हर घड़ी हर पल पास तुम
अवसाद-औषधि ख़ास तुम
विश्वास तुम अहसास तुम
पतझार में मधुमास तुम
अमृत हो गरल भरोगी क्यों
कभी गैर लगोगी क्यों
सदा खिलखिला हँसती रहना
तुम तो सबकी प्यारी बहना
शब्द तुम्हारे जादू हैं ना ,
अंदाज़ तुम्हारा क्या कहना
कभी उदासी दोगी क्यों
कभी गैर लगोगी क्यों
ऐसा कुछ जो मन भरमाये
अंतस में संताप जगाये
बरबस जो आंसू भर लाये
सोखे सलिल कमल मुरझाये
ऐसा कभी करोगी क्यों
कभी गैर लगोगी क्यों
व्यत्युत्पन्न मति से अभी इतना ही , शेष फिर !
सस्नेह,
कमल दादा
*
प्रति रचना: २
गीत
तुमको क्यों...
संजीव 'सलिल'
*
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अपनेपन के नपने बेढब
उससे ज्यादा अपने बेढब.
मौका पाकर कौन धकेले?
कौन टाँग खींचे जाने कब??
किस पल में किस जनम का
जाने कौन भंजा ले बैर?
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
हर अपना सपना होता है,
बगिया में काँटे बोता है.
छुरा भोंकता प्रथम पीठ में -
भोज तेरहीं खा रोता है.
तुमसे यह सब हो न सकेगा
इसीलिये है खैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
इतने पर ही ख़त्म न होता
अपनेपन का नाता.
लड़के लड़ के हक लेते
ठग लेता जामाता.
दूर बुढ़ापे में कर कहते
जा मरुथल में तैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
सुख-संतोष गैरियत में है,
तनिक सोचकर लेखो.
अनचाहे मत टाँग अड़ाओ,
झाँक न पर्दा देखो.
दूरी में नैकट्य 'सलिल'
पल पाता है निर्वैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अजनबियों-अनजानों को दे-
पाता रहा सहारा.
उपकृत किया, पलटकर लेकिन
देखा नहीं दुबारा.
जिसको पैरों-खड़ा किया
उससे घायल हैं पैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.कॉम
प्रति रचना: ३
तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर—१ अगस्त २०११
तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर
अब तो ऐसा लगता है कि दूर रहें तो ख़ैर
मैंने जब जब भी दी है तुमको कोई आवाज़
तुमने मुझको थाने तक की करवाई है सैर
प्रेम सहित मैंने तो अपना हाथ बढ़ाया था
लगता है जैसे था तुमको जनम-जनम का बैर
घोर बली हो मन में जो भी धारण तुम कर लो
हटा न पाए कोई जैसे अंगद का हो पैर
अब तो तनहा ही बीतेगा जीवन ख़लिश सकल
पार नहीं कर पाए मिल कर भव सागर हम तैर.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
१ अगस्त २०११
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डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’
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