मुक्तिका:
सड़कों पे दीनो-धर्म के दंगे जो कर रहे.
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
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ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इसमें बसी है खुशबू जिगर के उफान की..
महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश.
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..
उनको है फ़िक्र कलश की, हमको है नींव की.
हम रोटियों की चाह में वो पानदान की..
क्या फ़िक्र है उन्हें तनिक भी आसमान की?
नेता को पाठ एक सियासत ने यह दिया.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की.
इंसान की गुहार करें 'सलिल' अनसुनी.
क्यों कर उन्हें है याद आरती-अजान की..
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1 टिप्पणी:
महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश.
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..
बहुत खूब श्रीमान
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