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शनिवार, 13 अगस्त 2011

छंद सलिला: बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद -- संजीव 'सलिल'

छंद सलिला:      
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बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद
                                                                  संजीव 'सलिल'
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                     आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६  मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है.                                                                                  
छंद विधान:
   
सोलह-पंद्रह यति रखे, आल्हा मात्रिक छंद
ओज-शौर्य युत सवैया, दे असीम आनंद
गुरु-गुरु लघु हो विषम-सम, चरण-अंत दें ध्यान
जगनिक आल्हा छंद के, रचनाकार महान 

आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.     
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.
    
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
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                    महाकवि जगनिक रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे. महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:   

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    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ..  ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
                        
        *
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    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार..  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल. ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
                                      *
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
                                      *
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान. ('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
                                      *
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चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

   



2 टिप्‍पणियां:

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com eChintan ने कहा…

आ० आचार्य जी,
आल्हा या वीर-छन्द की व्याकरणीय व्याख्या भी छन्द में पढ़ कर आनंद मिला |
उदाहरण में प्रस्तुत ऐसे छंदों को पढ़ कर
मुझे अपना बचपन याद आ गया जब मामा के गाँव में सावन में आल्हा की चौपालों में नगाड़े के साथ इसका वीर रस उत्तेजित करता था और मैं मगन सुनता था |
अब तो गाँव ही बदल गये हैं आल्हा गायक भी कहीं कहीं ही मिलते होगे |
आल्हा गायकी की कला अब लुप्तप्राय है | आपका इस पर प्रकाश डालना स्वागत योग्य है | साधुवाद |
सादर
कमल

Ambarish Srivastava ने कहा…

Ambarish Srivastava commented on your post in Kavya Dhara (काव्य धारा).
//बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय. अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय.. bahut sahee ....:)//
8:55am Aug 15