प्राण बूँद को तरसें
संजीव 'सलिल'
*
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
कृपासिंधु है याद न हमको, तुम जग-जीवनदाता.
अहं वहम का पाले समझें,हम खुद को ही त्राता..
कंकर में शंकर न देखते, आँख मूँद बैठे है-
स्वहित साध्य हो गया, सर्वहित किंचित नहीं सुहाता..
तृषा न होती तृप्त थक रहे, स्वप्न न क्यों कुछ सरसें?
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
प्रश्न पूछते लेकिन उत्तर, कोई नहीं मिल पाता.
जिस पथ से बढ़ते, वह पग को और अधिक भटकाता..
मरुथल की मृगतृष्णा में फँस, आकुल-व्याकुल लुंठित-
सिर्फ आज में जीते, कल का ज्ञात न कल से नाता..
आशा बादल उमड़ें-घुमड़ें, गरजें मगर न बरसें...
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
माया महाठगिनी सब जानें, मोह न लेकिन जाता.
ढाई आखर को दिमाग, सुनता पर समझ न पाता..
दिल की दिल में ही रह जाती, हिल जाता आधार-
मिली न चादर ज्यों की त्यों, बोलो कैसे रख गाता?
चरखा साँसें आस वसन बुन, चुकीं न पल भर हरसें.
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
4 टिप्पणियां:
सलिल जी,
मन से आवाज़ आ रही है--
अगर तुम्हें आचार्य कहें हम पर आशीषें बरसें
ऐसी रचना पढ़ने को हम विमुख हुए भी तरसें
कितना मनोहारी लिखा है आपने--
माया महाठगिनी सब जानें, मोह न लेकिन जाता.
ढाई आखर को दिमाग, सुनता पर समझ न पाता..
दिल की दिल में ही रह जाती, हिल जाता आधार-
मिली न चादर ज्यों की त्यों, बोलो कैसे रख गाता?
चरखा साँसें आस वसन बुन, चुकीं न पल भर हरसें.
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’
http://groups.yahoo.com/group/Hindienglishpoetry
www.writing.com/authors/mcgupta44
आ० आचार्य जी ,
कितने सशक्त, सजीव और सहीं संकेत हैं आपकीं इस रचना में ?
निस्तब्ध हूँ | लेखनी को नमन |
सादर
कमल
अनुपम कृति |
Achal Verma
--- On Mon, 8/1/11
आदरणीय आचार्य जी,
अति सुन्दर रचना | आपकी रचनाएं एक प्रेरणा स्रोत होतीं हैं और सृजन कार्य में सहायक | आशा है आप स्वस्थ और सानंद होंगे |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
Web:http://bikhreswar.blogspot.com/
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