विश्ववाणी हिंदी में स्वर-व्यंजन
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हिंदी भाषा में ५२ वर्ण और १६ स्वर हैं, जबकि अंग्रेजी में इंग्लिश में केवल २६ वर्ण हैं जिनमें ७ स्वर हैं। हिंदी में लिंग केवल दो हैं स्त्रीलिंग और पुल्लिंग, संस्कृत में ३ लिंग हैं स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग जबकि अंग्रेजी में ४ लिंग हैं फेमिनिन जेंडर, मैसक्यूलाइन जेंडर, कॉमन जेंडर और न्यूट्रल जेंडर (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, उभय लिंग और नपुंसकलिंग)। हिंदी में दो वचन (एक वचन और बहु वचन), संस्कृत में ३ वचन (एक वचन, द्वि वचन और बहु वचन) तथा अंग्रेजी में दो वचन (सिंगुलर और प्लूरल) होते हैं। हर भाषा की सुदीर्घ परंपरा, विशेषता और कमियाँ होती हैं जो उसे बोले जाने वाले क्षेत्र के लोगों की आवश्यकता, सभ्यता, संस्कृति, मौसम, प्रकृति, पर्यावरण, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि से विकसित होती है। हर भाषा में उसका श्रेष्ठ साहित्य होता है। इसलिए किसी भाषा को हेय नहीं माना जाना चाहिए। हिंदी भाषा के तत्वों को समझें-
वर्ण - वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि। वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते। उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र + आ + म + अ = राम, ग + अ + य + आ = गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में ५२ वर्ण हैं।
वर्णमाला- किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै। प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है। हिंदी व संस्कृत - अ, आ, क, ख, ग आदि, अंग्रेजी- A, B, C, D, E आदि, फारसी व उर्दू अलिफ़ बे पे ते टे से जीम दाल सीम काफ नून आदि ।
वर्ण के भेद- हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (१) स्वर (vowel) (२) व्यंजन (Consonant)
(१) स्वर (vowel) :- वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है। इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं। हिंदी वर्णमाला में १६ स्वर हैं। जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।
स्वर के भेद- स्वर के दो भेद होते है- (१) मूल स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ (२) संयुक्त स्वर- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)
मूल स्वर के भेद- मूल स्वर के तीन भेद होते हैं- (१) ह्स्व स्वर (२) दीर्घ स्वर तथा (३) प्लुत स्वर।
(१) ह्रस्व, लघु या छोटा स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। ह्स्व स्वर पाँच होते है- अ इ उ ऋ। इनकी एक मात्रा गिनी जाती है। 'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।
(२) दीर्घ, गुरु या बड़ा स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जिन स्वरों केउच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। इनकी २ मात्रा गिनी जाती हैं। हिंदी में दीर्घ स्वर सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते हैं। जैसे- आ =(अ +अ ), ई =(इ +इ ), ऊ =(उ +उ ), ए =(अ +इ ), ऐ =(अ +ए ), ओ =(अ +उ ), औ =(अ +ओ)।
(३) प्लुत स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं। सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, राऽऽम, ओऽऽम्। हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक संस्कृत, निमाड़ी -मलवी बोलियों आदि में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं। हिंदी में ॐ/ओम् त्रिमात्रिक है।
अनुस्वार-विसर्ग- अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विसर्ग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं।
अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।
निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।
विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।
टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।
अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर
अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि। अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।
अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है ; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत। इसकी एक मात्रा गिनी जाती है।
अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि। इसकी २ मात्रा गिनी जाती हैं
(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते हैं। व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है। 'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- क् + अ = क, ख्+अ=ख, प्+अ =प आदि। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वर वर्ण स्वतंत्र और व्यंजन वर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजन वर्णो की संख्या ३३ है।
व्यंजनों के प्रकार - व्यंजन तीन प्रकार के होते है- (1)स्पर्श व्यंजन, (2)अन्तःस्थ व्यंजन तथा (3)उष्म व्यंजन ।
(1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है। ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन या 'वर्गीय व्यंजन' कहते हैं; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं। इनकी संख्या २५ है।
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