दोहा सलिला
•
पौष धूप के रूप को, देख भर रहा आह।
कुछ शीतल कुछ तप्त है, मधुर मिलन की चाह।।
•
गीत भोर रवि साँझ नित, ग़ज़ल कहे हँस झूम।
कथा दुपहरी रात में, उपन्यास रच घूम।
•
उषा लजीली कोहरा, घूंँघट मुख पर डाल।
मादक चितवन से करे, सूरज को बेहाल।।
•
तक्षशिला में हो रहा, रोज परीक्षा भोज।
कौन प्रश्न तीखी मिरच, कौन खीर हो खोज।।
•
शुद्ध न लिखते वाक्य जो, हुए जा रहे पास।
क्या भविष्य होगा कहें, है क्या कुछ आभास।।
•
१५.१.२०२४
नवग्रहों के पौधे
*
सूर्य- मदार/आक,
चंद्र-पलाश/किंशुक/ ढाक/छेवला/,
मंगल- खैर/खदिर,
बुध- अपामार्ग/लटजीरा,
बृहस्पति- अश्वत्थ/पीपल,
शुक्र- ओडम्बर/गूलर,
शनि- शमी/छयोकर,
राहु- दूर्वा/दूब,
केतु- कुश
***
सॉनेट
शंखनाद सुन काँपता है अन्यायी पक्ष
नाश दिख रहा सन्निकट, कोई नहीं उपाय
काल करे आखेट, मर रहे आप निरुपाय
जान रहे हरि पार्थ हैं, कर्मयोग में दक्ष
नर-नारायण रच रहे, मिल नूतन अध्याय
अंधे दंभी चाहते, सत्ता अपने हाथ
साथ न जनगण, पीटते खुद अपने हाथों माथ
मानवता का हो भला, विजयी होगा न्याय
जब जब हो संक्रांति तब होता है बदलाव
साथ नहीं अपने रहें अपनों के, भटकाव
काया-छाया में हुआ हो जैसे अलगाव
केर-बेर के संग से दुनिया हो बदरंग
चाहे अनचाहे छिड़े सत्य असत में जंग
असत मिटे सत जी हो यही प्रकृति का ढंग
१५-१-२०२२
*
सॉनेट
थल सेना दिवस
*
वीर बहादुर पराक्रमी है, भारत की थल सेना। २८
जान हथेली पर ले लड़ती, शत्रु देख थर्राता।
देश भक्ति है इनकी रग में, कुछ न चाहते लेना।।
एक एक सैनिक सौ सौ से, टकराकर जय पाता।।
फील्ड मार्शल करियप्पा थे, पहले सेनानायक।
जिनका जन्म हुआ भारत में, पहला युद्ध लड़ा था।
दुश्मन के छक्के छुड़वाए थे, वे सब विधि लायक।।
उनन्चास में प्रमुख बने थे, नव इतिहास लिखा था।।
त्रेपन में हो गए रिटायर, नव इतिहास बनाकर।
जिस दिन प्रमुख बने वह दिन ही, सेना दिवस कहाता।।
याद उन्हें करते हैं हम सब, सेना दिवस मनाकर।।
देश समूचा बलिदानी से, नित्य प्रेरणा पाता।।
युवा जुड़ें हँस सेनाओं से, बनें देश का गौरव।
वीर कथाओं से ही बढ़ता, सदा देश का वैभव।।
१५-१-२०२२
***
सॉनेट
आशा
*
गाओ मंगल गीत, सूर्य उत्तरायण हुआ।
नवल सृजन की रीत, नव आशा ले धर्म कर।
तनिक न हो भयभीत, कभी न निष्फल कर्म कर।।
काम करो निष्काम, हर निर्मल मन दे दुआ।।
उड़ा उमंग पतंग, आशा के आकाश में।
सीकर में अवगाह, नेह नर्मदा स्नान कर।
तिल-गुड़ पौष्टिक-मिष्ठ, दे-ले सबका मान कर।।
करो साधना सफल, बँधो-बाँध भुजपाश में।।
अग्नि जलाकर नाच, ईर्ष्या-क्रोध सभी जले।
बीहू से सोल्लास, बैसाखी पोंगल मिले।
दे संक्रांति उजास, शतदल सम हर मन खिले।।
निकट रहो या दूर, नेह डोर टूटे नहीं।
मन में बस बन याद, संग कभी छूटे नहीं।
करो सदा संतोष, काल इसे लूटे नहीं।।
१५-१-२०२२
***
अभिनन्दन
डॉ. रविशंकर शर्मा, कुलपति मेडिकल यूनिवर्सिटी जबलपुर
सेवानिवृत्ति पर
*
नदी सनातन नर्मदा, सकल जगत विख्यात
जबलपुर नगरी अमित, सिद्धि भूमि प्रख्यात
विद्यालय मॉडल यहाँ, गुरुकुल भाँति पवित्र
ऋषियों सम गुरुजन सतत, शोभित ज्यों मुनि चित्र
लज्जा शंकर झा सदृश , गुरुवर श्रेष्ठ सुजान
शिवप्रसाद जी निगम सम, अन्य नहीं गुणवान
कानाडे जी समर्पित, शिक्षक लेखक आप्त
रहे गोंटिया जी कुशल, चिंतक कीर्ति सुव्याप्त
रविशंकर बालक हुआ, शिक्षा हेतु प्रविष्ट
गुरु-हाथों ने निखारा, रूप किशोर सुशिष्ट
रट्टू तोता बन नहीं, समझ विषय गह सार
सीख ह्रदय में बसाई, रवि को मिला दुलार
क्षेत्र चिकित्सा का चुना, ह्रदय रोग हो दूर
कैसे चिंता मन बसी, खोज करी भरपूर
एन एस सी बी मेडिकल, कॉलेज में पा काम
विषय चिकित्सा पढ़ाकर, पाई कीर्ति सुनाम
कलर डॉप्लर का किया, सर्व प्रथम उपयोग
एंजियोग्राफी दक्षता, से कुछ कम हो रोग
एंजियोप्लास्टी सीखकर, अपनाई तकनीक
मंत्रोच्चारण का असर, परख गढ़ी नव लीक
ओंs कार उच्चार से, हृद गति हो सामान्य
गायत्री जप शांति दे, पीर हरें आराध्य
सूर्य ग्रहण सँग मनुज तन, कैसे करे निभाव?
शंख नाद ध्वनि-तरंगों, का क्या पड़े प्रभाव?
कूल्हे - गर्दन संग क्या, ह्रदय रोग संबंध?
नवाचार कर शोध से, दी नव रीति प्रबंध
स्टेथो स्कोप नव खोजा, कर नव क्रांति
'ह्रदय मित्र' पत्रिका रही, मिटा निरंतर भ्रांति
'एक्वायर्ड ट्विंस' नाम से, उपन्यास लिख एक
रविशंकर ने दिखाया, कौशल बुद्धि विवेक
'ह्रदय चिकित्सा रीतियाँ', मौलिक ग्रंथ विशेष
लिखा आंग्ल में मिली है, तुमको कीर्ति अशेष
हिंदी में अनुवाद से, भाषा हो संपन्न
पढ़ें चिकित्सा शास्त्र हम, हिंदी में आसन्न
'रविशंकर' ने तलाशी, नयी राह रख चाह
रोग मिटे; रोगी हँसे, दुनिया करती वाह
मॉडेलियन मिल कर रहे, स्वागत आओ मीत
भुज भेंटो मिल गढ़ सकें, हम सब अभिनव रीत
'रविशंकर' ने तलाशे, नए-नए आयाम
हमें गर्व तुम पर बहुत, काम किया निष्काम
कुलपति पद शोभित हुआ, तुमको पाकर मित्र !
प्रमुदित यूनिवर्सिटी है, प्रसरित दस दिश इत्र
हाथ मिलकर हाथ से, रखें कदम हम साथ
श्रेष्ठ बनायें शहर को, रहें उठाकर माथ
शब्द सुमन : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर
९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
***सॉनेट
मनोरमा दोहा कली, खिले बिखेरे गंध।
रस लय भावों से करे, शब्द शब्द अनुबंध।।
१५-१-२०२०
***
शिव पर दोहे
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढँकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
...
लघुकथा-
पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
***
लघुकथा -
संक्रांति
*
- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१५.१.२०१६
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
***
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
१५-१-२०१५
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२)
***
हास्य सलिला:
चैलेन्ज
*
लाली ने चैलेन्ज दिया: 'ए जी लल्लू के पप्पा!
पल भर को गुस्साऊं अगले पल गुस्से से कुप्पा
बोलो ऐसे बोल बोलकर क्या तुम दिखला सकते?
सफल हुए तो पैर दबाने से छुट्टी पा सकते'
अक्ल लगाकर लालू बोले: 'हे प्राणों से प्यारी!'
लाली मुस्का, गुर्राई सुन: 'मेरी मति गयी मारी
ब्याही तुमको जीभ न देखी जो है तेज दोधारी'
रूठीं तुम, मैं सुखी हुआ, ए लल्ली की महतारी!
पैर दबाने से छुट्टी पा मैं सचमुच आभारी'
लाली गरजी: 'कपड़ा, बर्तन करो न जाओ बाहर
बाई आयी नहीं, काम निबटाओ हे नर नाहर!
***
***
हास्य कविता:
लालू -लाली कॉमेडी शो
*
लालू से लाली हँस बोली: 'सुबह-सुबह सच सुन लो
भाग जगे जो मुझ सी बीबी पायी सपने बुन लो
अलादीन का ले चराग खोजो तो भी हारोगे
मुझ सी बीबी मिल न सकेगी, मुझ पर जां वारोगे'
लालू बोले: ' गलती की है एक बार सच मनो
दोबारा दोहराऊंगा मैं कभी नहीं सच जानो'
लालू-लाली की खिचखिच सुन बच्चे फिर मुस्काये
इनका कॉमेडी शो असली से ज्यादा मन भाये
१५.१.२०१४
---
मकर-संक्रान्ति
भारत वस्तुतः गाँवों का देश है. यहाँ के गाँव प्रकृति और प्राकृतिक परिवर्त्तनों से अधिक प्रभावित होते हैं, बनिस्पत अन्य भौतिक कारणों से. चाहे भौगोलिक रूप से देश के किसी परिक्षेत्र में हों, गाँव प्रकृतिजन्य घटनाओं से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं. गाँवों की व्यावसायिक गतिविधियाँ मुख्यतः कृषि पर निर्भर करती है. यही कारण है, कि अपने देश को कृषिप्रधान देश कहा जाता रहा है. कृषि-कार्य के क्रम में प्राकृतिक (और खगोलीय) गतिविधियों पर हमारी निर्भरता हमारे सम्पूर्ण
क्रियाकलाप में दीखती है. सभी छः ऋतुओं के चक्र, दैनिक प्रात-रात का प्रभाव, धरती की घुर्णन गति से होने वाले परिवर्त्तन, चन्द्र कलाओं का प्रभाव, सूर्य के परिवृत धरती का परिधि बनाना, सारा कुछ हमारी दैनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं.
सूर्य का उत्तरायण या दक्षिणायण होना ऋतुओं के एक पूरे समुच्चय (सेट) को परे हटा कर एक नये ऋतु-समुच्चय के आगमन का कारण होता है. पृथ्वी पर सूर्य की स्थिति वस्तुतः पृथ्वी की मुख्यतः तीन मान्य काल्पनिक रेखाओं के सापेक्ष नियत मानी जाती है --विषुवत् रेखा के समानान्तर उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क-रेखा तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा. सूर्य की ये स्थितियाँ पृथ्वी के अपने अक्ष पर साढ़े तेइस डिग्री नत (झुके) होने के कारण आभासी होती हैं. सूर्य का मकर रेखा के ऊपर अवस्थित होना भारत की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से शीत काल के ऋतु-चक्र का कारण बनता है जबकि कर्क रेखा के ऊपर होना ग्रीष्म की सभी ऋतु-समुच्चयों के होने का कारण होता है. दोनों घटनाओं के मध्य का परिवर्त्तन-समय संक्रान्ति-काल कहा जाता है.
सूर्य का दक्षिणायण होना मानव की तमसकारी प्रवृतियों के उत्कट होने का द्योतक है. समस्त प्रकृति और प्राकृतिक गतिविधियाँ एक तरह से ठहराव की स्थिति में आ जाती हैं. सकारात्मक वृत्तियाँ निष्प्रभावी सी हो जाती हैं या कायिक-मानसिक दृष्टि से सुषुप्तावस्था की स्थिति हावी रहती है. इस के उलट सूर्य का उत्तरायण होना कायिक, मानसिक तथा प्राकृतिक रूप से सकारात्मक वृत्तियों के प्रभावी होने का द्योतक है. मानव-मन के चित्त पर सद्-विचारों का प्रभाव काया पर तथा मानवीय काया का सुदृढ़ नियंत्रण समस्त क्रियाकलाप पर स्पष्ट दीखने लगता है. अतः, भारत के लिहाज से सूर्य का उत्तरायण होना उत्साह और ऊर्जा के संचारित होने का काल है. यही कारण है कि यह समय सूर्य की खगोलीय स्थिति पर निर्भर होने के कारण सौर-तिथि विशेष के सापेक्ष नियत होता है. संक्षेप में कहें तो ’मकर-संक्रान्ति’ सूर्य के दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध में स्थानान्तरित हो कर स्थायी होने का परिचायक है.
पूरे भारत वर्ष में यह पर्व सोत्साह मनाया जाता है. भाषायी लिहाज से इसका नाम चाहे जो हो, किन्तु, पर्व की मूल अवधारणा मनस-उत्फुल्लता, चैतन्य-चित्त और कृषि-प्रयास को ही इंगित करती है. ग्रेग्रोरियन कैलेन्डर के अनुसार चौदह या पन्द्रह जनवरी का दिन ’मकर-संक्रान्ति’ का नियत दिन है.
यह दिन भारत के भिन्न प्रदेश में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है. क्यों न हम देश के कुछ प्रदेशों में पर्व के मनाये जाने की विधियाँ देखें.
इनमें से कई प्रदेशों में इस पर्व-समारोह में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है जो मेरी ज़िन्दग़ी के सबसे कीमती अध्यायों में से है -
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में इस दिन को ’खिचड़ी’ के नाम से जानते हैं. पवित्र नदियों, जैसे कि गंगा, में प्रातः स्नान कर दान-पुण्य किया जाता है. तिल का दान मुख्य होता है. तिल आर्युवेद के अनुसार गर्म तासीर का होता है. अतः तिल के पकवान-मिष्टान्न का विशेष महत्त्व है. सूबे में प्रयाग क्षेत्र में संगम के घाट पर एक मास तक चलने वाला ’माघ-मेला’ विशेष आकर्षण हुआ करता है. वाराणसी, हरिद्वार और गढ़-मुक्तेश्वर में भी स्नान का बहुत ही महत्त्व है. हम सभी ’ऊँ विष्णवै नमः’ कह कर तिल, गुड़(Jaggery), अदरक, नया चावल, उड़द की छिलके वाली दाल, बैंगन, गोभी, आलू और क्षमतानुसार धन का दान करते हैं जो कि इस पर्व का प्रमुख कर्म है. और, चावल-दाल की स्वादिष्ट खिचड़ी का भोजन भला कौन भूल सकता है, यह कहते हुए --’खिचड़ी के चार यार, दही पापड़ घी अचार ’ !
बिहार
बिहार में सारी विधियाँ उत्तर प्रदेश की परंपरा के अनुसार ही मनाते हैं. पवित्र नदियों का स्नान और दान-पुण्य मुख्य कर्म है. गंगा में स्नान का विशेष महत्त्व है. साथ ही साथ मिथिलांचल और बज्जिका क्षेत्र (मुज़फ़्फ़रपुर मण्डल) में इस दिन ’दही-चूड़ा’ खाने का विशेष महत्त्व है. और खिचड़ी का सेवन तो है ही ! साथ में गन्ना खाने की भी परिपाटी है.
बंगाल
गंगा-सागर, जहाँ पतित-पाविनी गंगा का समुद्र से महा-मिलन होता है, में बहुत बड़ा मेला लगता है. गंगा-सागर में ऐसा प्रतीत होता है कि भगीरथ के घोर तपस के परिणाम से राजा सगर के श्रापग्रस्त साठ हजार पुत्रों की मुक्ति का कारण बनी गंगा कर्म-पूर्णता के पश्चात निर्भाव बनी उन्मीलित हुई जा रही है. यहाँ भी तिल का दान मुख्य कर्म है.
तमिलनाडु
मकर-संक्रान्ति पर्व को तमिलनाडु में ’पोंगल’ के नाम से जानते हैं, जोकि एक तरह का पकवान है. पोंगल चावल, मूँगदाल और दूध के साथ गुड़ डाल कर पकाया जाता है. यह एक तरह की खिचड़ी ही है. तमिलनाडु में पोंगल सूर्य, इन्द्र देव, नयी फसल तथा पशुओं को समर्पित पर्व है जोकि चार दिन का हुआ करता है और अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इसकी कुल प्रकृति उत्तर भारत के ’नवान्न’ से मिलती है.
पर्व का पहला दिन भोगी पोंगल के रूप में मनाते हैं. भोगी इन्द्र को कहते हैं. इस तड़के प्रातः काल में कुम्हड़े में सिन्दूर डाल कर मुख्य सड़क पर पटक कर फोड़ा जाता है. आशय यह होता है कि इन्द्र बुरी दृष्टि से परिवार को बचाये रखे. घरों और गलियों में सफाई कर जमा हुए कर्कट को गलियों में ही जला डालते हैं. पर्व का दूसरा दिन सुरियन पोंगल के रूप में जाना जाता है. यह दिन सूर्य की पूजा को समर्पित होता है. इसी दिन नये चावल और मूंगदाल को गुड़ के साथ दूध में पकाया जाता है. तीसरा दिन माडु पोंगल कहलाता है. माडु का अर्थ ’गाय’ या ’गऊ’ होता है. गाय को तमिल भाषा में पशु भी कहते हैं. इस दिन कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले पशुओं को ढंग-ढंग से सजाते हैं. और पशुओं से सम्बन्धित तरह-तरह के समारोह आयोजित होते हैं. यह दिन हर तरह से विविधता भरा दिन होता है. इस दिन को मट्टू पोंगल भी कहते हैं. आखिरी दिन अर्थात् चौथा दिन कनिया पोंगल के नाम से जाना जाता है. इस दिन कन्याओं की पूजा होती है. आम्र-पलल्व और नारियल के पत्तों से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है. महिलाएं इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं. आखिरी दिन होने से यह दिन बहुत ही धूमधाम के साथ मनाते हैं. लोग नये-नये वस्त्र पहनते है और उपहार आदि का आदान-प्रदान करते हैं.
आंध्र प्रदेश
आंध्र में पोंगल कमोबेश तमिल परिपाटियों के अनुसार ही मनाते हैं. अलबत्ता भाषायी भिन्नता के कारण दिनों के नाम अवश्य बदल जाते हैं. आंध्र में इस पर्व को पेड्डा पोंगल कहते हैं, यानि बहुत ही बड़ा उत्सव ! पहले दिन को भोगी पोंगलकहते हैं, दूसरा दिन संक्रान्ति कहलाता है. तीसरे दिन को कनुमा पोंगल कहते हैं जबकि चौथा दिन मुक्कनुमा पोंगल के नाम से जाना जाता है. उत्साह और विविधता में आंध्र का पर्व तमिलनाडु से कत्तई कम नहीं होता है.
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में मकर-संक्रान्ति को संक्रान्ति के नाम से ही जानते हैं. यहाँ तिल और गुड़ का अत्यंत विशेष महत्त्व है. गुड़ को महराष्ट्र में गुळ का उच्चारण देते हैं. लोग-बाग एक-दूसरे को ’तिल-गुळ घ्या, गोड़-गोड़ बोला’ यानि ’तिल-गुड़ लीजिये, मीठा-मीठा बोलिये’ कह कर शुभकामनाएँ देते हैं. नये-नये वस्त्र पहनना आज की विशेष परिपाटी है. प्रदेश में सधवा महिलाओं द्वारा हल्दी-कुंकुम की रस्म भी मनायी जाती है, जिसके अनुसार एक स्थान की सभी सुहागिनें जुट कर एक-दूसरे को सिन्दूर लगाती हैं और सदा-सुहागिन रहने का आशीष लेती-देती हैं. महाराष्ट्र में पतंग उड़ाने की परिपाटी है. आकाश पतंगों से भर जाता है.
कर्नाटक
इस प्रदेश में यह पर्व सम्बन्धियों और रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने-जुलने के नाम समर्पित है. यहाँ इस दिन पकाये जाने वाले पकवान को एल्लु कहते हैं, जिसमें तिल, गुड़ और नारियल की प्रधानता होती है. उत्तर भारत में इसी तर्ज़ पर काली तिल का तिलवा बनाते और खाते हैं. पूरे कर्नाटक प्रदेश में एल्लु और गन्ने को उपहार में लेने और देने का रिवाज़ है. इस पर्व को इस प्रदेश में संक्रान्ति ही कहते हैं. यहाँ भी चावल और गुड़ का पोंगल बना कर खाते हैं और उसे पशुओं को खिलाया जाता है. यहाँ ’एल्लु बेल्ला थिन्डु, ओल्ले मातु आडु’ यानि ’तिल-गुड़ खाओ और मीठा बोलो’ कह कर सभी अपने परिचितों और प्रिय लोगों को एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं.
गुजरात
गुजरात में यह रस्म महाराष्ट्र की तरह ही मनाते हैं. बस उपहार लेने-देने की विशेष परिपाटी है जहाँ घर के मुखिया अपने परिवारिक सदस्यों को कुछ न कुछ उपहार देते हैं. तिल-गुड़ के तिलवे या लड्डू को मुख्य रूप से खाते हैं.
सर्वोपरि होती है, पतंगबाजी. स्नानादि कर बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी मैदान या छत पर पतंग और लटाई ले कर निकल पड़ते हैं.
पतंगबाजी गुजरात प्रदेश की पहचान बन चुकी है और प्रदश के कई जगहों पर इसकी प्रतियोगिताएँ होती हैं. अब तो पतंगबाजी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी आयोजित होने लगी हैं. पूरे गुजरात प्रदेश में पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है.
पंजाब
इस समय पंजाब प्रदेश में अतिशय ठंढ पड़ती है. यहाँ इस पर्व को ’लोहड़ी’ कहते हैं जो कि मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या को मनाते हैं. इस दिन अलाव जला कर उसमें नये अन्न और मुंगफलियाँ भूनते हैं और खाते-खिलाते हैं. ठीक दूसरे दिन की सुबह संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है. जिसे ’माघी’ कहते हैं.
असम (अहोम)
इस पर्व को भोगली बिहू के नाम से जना जाता है. बिहू असम प्रदेश का बहुत ही प्रसिद्ध और उत्सवभरा पर्व है. इस दिन कन्याएँ विशेष नृत्य करती हैं जिसे बिहू ही कहते हैं. भोगली शब्द भोग से आया है, जिसका अर्थ है खाना-पीना और आनन्द लेना. खलिहान धन-धान्य से भरा होने का समय आनन्द का ही होता है. रात भर खेतों और खुले मैदानों में अलाव जलता है जिसे मेजी कहते हैं. उसके गिर्द युवक-युवतियाँ ढोल की आनन्ददायक थाप पर बिहू के गीत गाते हैं और बिहू नृत्य होता है जो कि असम प्रदेश की पहचान भी है.
केरल
केरल में सबरीमलै पर अयप्पा देवता का बड़ा ही महातम है. उनकी पूजा-प्रक्रिया चालीस दिनों तक चलती है और चालीसवाँ दिन संक्रान्ति के दिन होता है जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाते हैं. सारे भक्त काले वस्त्र पहन कर कठिन साधना करते हैं.
इस तरह से देखें तो मकर-संक्रान्ति का पर्व पूरे भारत में सोल्लास मनाया जाता है. दूसरे, यह भी देखा जाता है कि तिल, नये चावल, गुड़ और गन्ने का विशेष महत्त्व है. सर्वोपरि, भारत के पशुधन की महत्ता को स्थापित करता यह पर्व इस भूमि का पर्व है.
आइये, हम मकर-संक्रान्ति का पर्व सदाचार और उल्लास से मनाएँ और सभी के साथ मीठा-मीठा बोलें.
१५.१.२०१३
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा मांगता है.
कलियों से कांटा
डरा-कांपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१५.१.२०११
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें